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संतो द्वारा रचित 

||छन्द||

जम्भ ब्रह्मा सनातनं,गुरु एक सच्चित जानियों |
जगद्वंद्य पुरातनं, जगदीश निश्चय भानियों ||
जम्भ विष्णु विष्णु जम्भ जी, यामें भेद न ठानियों |
श्री जम्भ गुण गाते हुए, दोषों को निशदिन भानियों ||

 ||चौपाई||

जैसे भानु उदय उजियारो | दूर करै जग को अंधियारों |
तैसे जम्भ गुरु जग मांही | सदुपदेश दे तिमिर नशांही |
सब शिष्यन के अद्य प्रभु हरता | विज्ञानोदय मन में करता |
ऐसा सुना महा उपकारी | क्षण में दे संशय सब टारी |
ऐसा हैं गुरु जम्भ विवेकी | जग में विचैरे एकाएकी |हे जम्भेश्वर परम दयालु | दुरी करो अज्ञान कृपालु |
ह्रदय ग्रंथि सब दुरी भगाओ | मेरे सब संदेह मिटाओ |
धर्म संख्या द्यो मुझे समझाई | पृथक-पृथक अब देओ सुनाई |
जम्भेश्वर गुरु शब्द सुनायो | जोगी का संदेह नशायो ||

||सवैया||

धन्यही जंगल समराथले, धन्य ही बाल ग्वाल | 
जांके संग सतगुरु रम्यों, लालण लील भंवाल ||१||
हरि कंकेड़ी धन्य जंहा,प्रभु कियो प्रवेश |
रुखां बल रल आवणा, रमतो बाले भेष ||२||
परच्या पशु  अरु पक्षियां, जीवां उत्तम जात |
हुआ पवित्र जोतसों, परची गुप्त न्यात ||३||
धन्य दिहाडों रेणही, प्रगट्यों गुरु संसार |
वील्ह कहे जे ओलख्यो तेहि उतर सी पार ||४||

                         |कवित ||


ओउम प्रगटे जब रूप निरंजन,  यह जम्भेश्वर नाम कहावन को |
गेरूवां वस्त्र धर जाप जपै समराथल जाग जगावन को |
गुरु आप अखंडित एक भजे सब लोगन के समझावन को |
जिन पावन से महि किन्ही शुची, धन्यवाद सदा उन पावन को ||

                                     ||कवित ||

आदि अनादि युगादि को योगी, लोहट घर अवतार लियो हैं |
धन ही धन भाग बड़ो, जिन हांसल को हरिमत कह्यो हैं |
होत उजास प्रकाश भयो, जैसे रैन घटी अरु भोर भयो हैं |
कोटि दवादश काज के तांही, केशवदास भणे समराथल आय रह्यो हैं ||

                              ||कवित ||

जोगी जम्भ देव जटा जूट धारी शम्भू जैसे |
भव्य देह भ्राजत हैं भगवा सुभेष में |
परम प्रचण्ड दौर दंड दंभ खंडन को |
मंडन महान धर्म देशरू विदेश में |
ज्ञान की दशा तें उन्मत्त विष्णु भक्त भारी |
दत्त अवधूत जैसे देन उपदेश में |
शेष मे सुरेश में दिनेश में न ऐते गुण |
 तेते गुण गुरु में विराजत विशेष में |

   || छप्पय ||

श्री गुरु जम्भेश्वर शिष्य भक्त रणधीर भण्डारी |
सुवरण की जो सिलम, अक्षय पाई उपकारी  ||
तातें करि करि  दान, मान पायो मरुधर में |
कीरति लता अखूट, घणी पसरी घर-घर में ||
मन्दिर मुकाम विरच्यो महा, देखि दुष्ट जन जरि गए |
खल गरल खवायो तहितें ,तन तजि  ध्रुव यश कर गये ||

श्री  वील्हाजी कृत  धूप मन्त्र: 

ओउम वर्ष सात संसार, बाल लीला निरहारी |
वर्ष पांच बाईस पाले, बहुता धेनु चारी ||
ग्यारह ऊपर चालीस, शब्द कथिया अविनाशी |
बाल ग्वाल गुरु ज्ञान,सकल पूगा सवा पच्यासी ||
पन्दरा सौ तिरानवे वदी मिगसर नौ आगले |
पालटियो रूप रहिया ध्रुव अडिग ज्योति समराथ्ले ||

 स्वामी वील्हाजी कृत छप्पय 

 ओउम जम्भ गुरु जगदीश ईश् नारायण स्वामी |
निरलेख निरलेप, सकल घट अन्तर्यामी ||
पेट पीठ नहिं ताहिं सकल को सन्मुख दरशे |
 पाप ताप तन हरै, जहां पद पंकज परशे ||
अखै अडोल अनन्त अज अवगत अलख अभेव |
स्वयं स्वरूपी आप हैं जम्भ गुरु जगदीश ||१||
जम्भ गुरु जगदेव भेव कोई विरला पावै |
 रहै शरण जो आय बहुरि भव जल नहीं आवै |
विष्णु रूप अवतार प्रगट पोहमी में आये |
 सतयुग विसरै जिव उन्हीं को आन चेताये ||
विष्णु धर्म प्रगट कियो ,धर्म विकट विहंडनम |
समराथल परगट सही ज्योति स्वरूप जगमंडनम ||२||

 श्री  साहबराम  कृत  धूप मन्त्र: 

महर करो महाराज महर कर महल पधारो |
त्रिकुटी भवन में दास के संकट टारो ||
धूप घृत मिष्ठान पाय प्रभु पाप निवारो |
जम्भ गुरु जगदीश संत के कारज सारो |
चोष लह्रा भक्ष भोज रस अचमन करो अघाय |
साहब ह्रदय संत के सदा रहो सुरराय ||१||
धूप लीजिये जलन धूप ले रूप समावो |
कृपा करो कर गहो हरि तुम हिरदे आवो |
वासुदेव विष्वेश विश्वधर ब्रह्मा रहवो |
ह्रदय ध्वांत कूं हरि ज्ञान उद्योत करोवो ||
ज्ञान अग्न जोग अग्न जठराग्न प्रचण्ड |
साहब ससितारा तड़ित तुंही तरुन मार्तण्ड ||२||
तुंही तेज तप करे निरंजन नाम धरावे |
ब्रह्मा तेज बल रचै विष्णु शिव पालन सावे ||
इंद्र तेज तप करे सप्त नवखण्ड बसावे |
शेष तेज लवलेश शीस ब्रह्माण्ड उठावे ||
तपही साध तपही ऋषि तप कर तेज अपार |
तप कर साहब अवनिपत तेजपुंज ततसार ||३||
शब्द रूप सोई जोत,जोत निहतन्त भनिजे |
अमितत सोई जोत, जोत सब हंस गिणिजे |
तेज शिला सोई जोत, निरंजन जोत जाणीजे |
हिरण्य गर्भ सोई जोत, जोत विराट तणीजे ||
महा तत्व ब्रह्मा विष्णु शिव सब ही जोत अपार |
दस चौबीसुं जोत है, साहब सो उर धार ||४||
महाजोत गुरु जम्भ भक्तं हित लीलाधारी |
सप्त वर्ष रहे मौन सप्त बीसुं गऊ चराई ||
इक्यावन कथ  ज्ञान शब्द अणभे अधकारी |
पच्चासी त्रिय मास तेज तप लाई तारी ||
आठम सोम अठोतरे पनरा से अवतार |
तिरानवे मिगसर वद नवमी साहब पहुंचे पार ||५||

उनतीस नियमों का उपदेश (दोहा )

मास एक सूतक कहूं ,रजस्वला दिन पांच |
जो इनको पालै नहीं ,लगै धर्म की आंच ||१||
प्रात: काल उठाणों , उसी समय को स्नान |
या विधि जो बरते सदा ,हॉट जहाँ तहां मान ||२||
शील संतोष पालन करै, उज्जवल राखे अंग |
बाहर भीतर एकरस , कहै मुनिजन संग ||३||
दोनों काल संध्या करै ,शमन करै मन धीर |
इन्द्रिय गण को रोकनों ,दम भाषत बुध बीर ||४|| 
सांयकाल में जायके , ढूंढे निर्जन देश |
विष्णु नाम रसना जपै , लोग करै आदेश ||५|| 
दत्तचित्त से होम कर , राखै बहुत आचार |
मन में धारै विष्णु को , तब उतरे भाव पार ||६||
बाचा निश दिन बोलिये ,सत्य सहित सुन बीर |
जन्म मरण से छूटकर , बनो आप गंभीर ||७||
पानी पी तू छानकर , निर्मल बाणी बोल |
इन दोनों का वेद में , नहीं मोल कुछ तोल ||८||
समिधा लीजै देखकर , कृमी बचा कर बीर |
स्थावर जंगम आत्मा , देखै सकल शरीर ||९|| 
चोरी निंदा झूंठ को , तजियो सभ्य सुजाण |
क्षमा दया उर धारिके , पहुंचो पद निर्वाण||१०||
शुष्क बाद नहीं कीजिये , मनु बतायो जोय |
श्रद्वा लज्जा धारके , सुख पाओ सब कोय ||११||
सुने बहुत उपवास में , इनमें नहीं कुछ सार |
व्रत अमावस को को सही , कियो वेद साधार ||१२||
व्रत अमावस के किये , मॉल विक्षेप को नाश |
मॉल विक्षेप को नाशन तै , होत हि बुद्वि प्रकाश ||१३||
इनके खंडन की दवा , तुझे बताई जोय |
याको राखे जगत में ,बहुरि न आना होय ||१४||
ओउम विष्णु विष्णु जपते रहो , जब लग घट में प्रान |
इसी नाम के जपने में मिले विष्णु भगवान ||१५||
जीव दया नित पालणी , सदाचार यह जाण |
तन मन आत्म बस करै , पहुंचे पद निर्वाण ||१६||
हरा वृक्ष नहीं काटना, यह सबका मंतव्य |
रक्षा में तत्पर रहै , जान यही कर्तव्य ||१७||
अजर काम अरु क्रोध हैं , अजर लोभ को जान |
इनको जो निशदिन जरै ,सो पावै सन्मान ||१८||
संस्कार से रहित जन, सो वह शुद्र समान |
पाहल दीजै ताहिं को , कीजै ब्रह्मा समान ||१९||
तिसके हाथ का अन्न जल , अशन करो सब बीर |
अथवा अपने हाथ से , पाक बनाओ धीर ||२०||
छेरि भेडी आदि को , पर उपकारी मान |
रक्षा में तत्पर रहै , सोई बुद्विमान ||२१||
इनसे अधिक जूं बैल है , पर उपकारी जोय |
ताको बधिया नहीं कर  ,ब्रह्मवेत्ता है सोय ||२२||
भांग तमाखू छोतरा , इनका कीजै त्याग |
मद्य  मांस को त्याग कै , कर  ईश्वर अनुराग ||२३||
श्वेताम्बर धारण करै , नहीं नीलाम्बर होय |
धर्म कहै उनतीस ये , धारै वैष्णव सोय ||२४|| 

स्वामी वील्हाजी कृत बत्तीस आखड़ी -छन्द

 सेरा उठै सुजीव छाण जल लीजिये |दातण कर करै सिनान जीवाणि जल कीजिये ||
बैस एकांयत ध्यान नाम हरि पीजिये |रवि ऊगै तेहि बार चरण सिर दीजिये ||
गऊ घृत लेवो छाण होम नित ही करो |पंखे से अग्न जगाय फूंक देता डरो ||
सुतक पातक टाल छाण जल पीजिये |कर आतम को ध्यान आरती कीजिये ||
मुख बोली जै सांच झूठ नहीं भाखिये |नेम झूंठ सूं जाय जीभ बस राखियो ||
निज प्रसुवा गाय चुंगती देखिये |मुखां बताइये नाहीं और दिस पैंखिये ||
अमावस्या व्रत राख खाट नहीं सोइये |चोरी जारी त्याग कुदृष्ट नहीं जोइये ||
नेम धर्म गुरु कहै कदे नहीं छोड़िये |लाधी वस्तु पराई बोल देवोङिये ||
जीव दया नित राख पाप नहीं कीजिये |जांडी हिरण संहार देख सिर दीजिये |बधिया करै तो बेल जु देख छोड़ाइये ||
बरजत मारै जीव तहां मर जाइये |ऋतुवंती ह्ववै नार पलो नहीं छूइये |पांचू कपड़ा धोय न्हाय सुधि होइयै |
सुतक पातक अन्त धरहू लिपवाइयै |गऊ घृत सुध छाण जु होम कराइयै |जल छाणै दोय बार साँझ सवेरे ही |
जीवाणी जल जोड़ कुंवे जाय गेरही ||राख दया घट माही वृक्ष घावे नहीं |अमावस दिन धर्म इता नित पालिये |
गायर बच्छो बैल बेचन सू टालिये |पंथन चालै भूल खाट नहीं सोइयै |ऊखल खड़वै नाहीं चाकी नहीं झोइयै ||
वस्त्र धोवै नहीं सीस  नहीं धोइयै |जुवां लीखा नांव लिया पुन खोइयै |ओलै अमावस दूध दधी नहीं मथ्थिये |
साखी हरिजस गाय ज्ञान गुण कथ्थिये |दाती कसी गंडासी बाण नहीं बोइयै |धोबी चकरी ढेढ़ घरे नहीं जाइये |
चमारां घर जाय भूल करि बैठ हैं |नरक पङै निराधार रक्त में पैठ हैं |आन जात को पाणी भूल नहीं पीजिये |
बिन मांज्या बरतन कबहूँ नहिं लीजिये |चौके बिना रसोई कबहूँ मत करो |गउ बैठक शत ग्रेह करत तुम जन डरो |
ब्राह्मण दश प्रकार तिन शुद्व जानियै |अमल तमाखू भांग लील नहीं ठानिये |इंह ओगुण नहीं होय विप्र सुध है सही |
और छत्तीस पूंण एक सम गुरु कही ||वे अस्नाने कोय जो पलो लगावहीं |न्हाये तै सुध होय गुरु फरमावही ||
अपने घर में बैठ निन्दा नहीं कीजिये |देख्या सुण्या अदेख जू अजर जरीजियै |त्रिधा देवा शाध सुंसंग कीजिये |
गुरु ईश्वर की आण नहीं भानीजियै ||हल अरु गाठो गाडि बैल नहीं बाहिये |जीव मरै जेहि काम कदै न कराइये |
अमावस को दूध जू भूलन बलोंय हैं |कदेन उतरै पार रक्त सम होय हैं |होके पाणी आग कदे नहीं दीजिये |
अमल तंमाखू नाम भूल नहीं लीजिये |जुवां लीखा काढ छाह में डारिये |इन मारयां सुख होय पुत्र क्यूं नी मारिये |
घर को बकरों भेड़ थाट संग कीजिये |बेच्यो कुटयो बैल उलट नहीं लीजिये |तीस ऊपर दोय आखड़ी गुरु कहीं |
जो विश्नोई होय धर्म पाले सही ||गहै धर्म बत्तीस तीर्थ सब न्हाइया |अड़सठ  तीरथ पुण्य घरां चल आविया ||
गहै उनतीस बतीस विष्णु जानिये |इकसठ सातु छोत अड़सठ एहि मानिये |देखा देखि तीर्थ और नहीं कीजिये |
मन सुरती कूं जीत परम पद लीजिये |पाले गुरु का कवल जम्भगुरु ध्याव हैं |घाटो भूख कुरूप कदे नहीं आव हैं |
यह विधि धर्म सुनाय कह्हो गुरु जगत नै |अज्ञानी कूं डांस प्रिये ज्ञानी भक्त नै |


दोहा - या विधि धर्म सुनायके , किये कवल किरतार |
           अन धन लक्ष्मी रूप गुण ,मूवां मोक्ष दवार ||
              
                      
                         

                             
                             


    
       

                   

       







 उनत्तीस नियम (चौपाई)

 मास एक सूतक तुम मानों | पंच दिवस ऋतुवंती  जांनों || 
प्रातरुत्थाय करो सब स्नाना | पालो शील (शौच) तोष सुजाना ||
दोनों काल की संध्या मानी | मुनि जन गण यह साक्षी बखानी ||
संध्या कर काटो मन मैला | देश विविक्त रहो पुन शैला ||
सांयकाल विष्णु गुण गाओ | कर आरती परमानन्द पाओ ||
प्रेम सहित सब होम कराओ | पुन: बैकुंठ बस सब पाओ || 
अमृत पूत कर सब पाना  | सम्मति एक में होगी सहाई ||
पूत करी बाणी सुखदाई | विष्णु भजन में होगी सहाई ||
इन्धन छान बिन सब को टारो | दृष्टि पूत बिन कबहूं नहीं देना ||
गुरु आज्ञा बिन सब को टारो | क्षमा दया उरमें सब धारो ||
गुरु जी जान कियो उपदेशा | धारण करो विष्णु आदेशा ||
हेय करो चोरी अरु निंदा | इन संग मिथ्या जानों धन्धा ||
इन तीनों को बर्जो भाई | बाद विवाद न करियो कोई ||
अमावस्या व्रत कबहूँ न टारो | विष्णु भजन कर कुल निस्तारो ||
जीव दया राखो मन मांही | जिन्ही राखो सब अघ मिट जाहीं ||
वृक्ष आदि स्थावर सब सृष्टि | ब्रह्मा रूप यह जान समष्टि ||
इसमें नाना जीव विराजै | चेतन रूप सकल वपु छाजै ||
बिना विचारे नहीं इन्हें हरना | काट बाट घर नहीं धरना ||
अजर क्रोध जो तांही जरावै | लोभादि को दूर भगावै  ||
जीवन मुक्त सदा बैरागी | जाकी लगन स्वर्ग से लागी ||
अपने हाथ से पाक बनावै | पुन एकांत बैठ कर पावै ||
अजाअवी सब अमर रखावै | वृषभ नपुंसक होने न पावै ||
अमल तमाल भांग नहीं पीना | कर निषेध रहै सदा अदीना ||
मद्य अरु मांस कभी न खावै | नीलाम्बर तन कबहूँ न लावै ||
   
दोहा - उनतीस धर्म की आखड़ी , हिरदै धारै जोय ||
              जम्भराय ऐसे कहै , फेर जन्म नहीं होय |


जाम्भोजी के मुख्य शिष्य रेड़ाजी का कथन (चौपाई)

उनतीस धर्म की निति चलाई | सब शिष्यन के मन में भाई  |
विंशति नौ जब नियम बनाये | तब से ये बिश्नोई कहाये |
जाम्भाजी  ने पंथ चलाया | सन्मार्ग सबको दिखलाया |
शिक्षा सूत्र सब के उतराये | देख दशा ब्राह्मण घबराये |
जाति भेद सब दूर भगाया | अदभुत मार्ग खूब दिखाया |
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य मुण्डाए | सत्यगुरु के शरणै आए |
किये संस्कार सर्व के स्वामी | सकल गुरु जम्भानन्द नामी |
मद्य मांस सबके छुडवाये | पाहल दे निज दस बनाये |
पुन: सबको यह किया उपदेशा | हिल मिल रहना यही आदेशा |
उनतीस धर्म का कीजो मंडन | कीजो काम क्रोध का खंडन |
गुरु की वाणी वेद सम मानी | ताको पढ़ हो गये बहुज्ञानी |
वाणी पढ़ लहो परमानन्दा | आन मतों का त्यागो फन्दा |
सत्यवादी निरमान कहावै | अद्वै अमल ब्रह्मा गुण गावै |
जीतो संग दोष सब भाई | ब्रह्मा विद्या की करो बड़ाई |
निवृत करो खोटे सब कामा | विष्णु पुरी में करो विश्रामा |
हानि लाभ में सुख-दुःख नहीं पाना | कर सन्तोष विष्णु गुण गाना |
जम्भ जम्भ पुन जम्भ जी गाओ | निश्चय  निकट निकटपद पाओ |
न तहां चन्द्र सितारे भानुं | न तहां अग्नि विद्युत जानूं |
उसी धाम में जम्भ विराजै | सर्वाधार | रह सर्व में सबसे न्यारा |
कारण से कारज उपजाया | कर पैदा सबको दिखलाया |
यह सब जानों जम्भ पसारा | जम्भ न बन्धा बन्धा संसारा |
अद्वय अजर जम्भ अविनाशी | जिन यह सारी सृष्टि प्रकाशी |
जम्भ जी सदगुरु एकओंकारा | भजो ताहि जो कटै विकारा |
वेद पुराण विष्णु गुण गावै | नेति नेति कह भेद न पावै |
विष्णु जगदगुरु सिरजन हारा | ले अवतार मनुज तनधारा | 
दासन के तिन कारज सारे | दे उपदेश अधम जन तारे |
विष्णु जी पूर्ण परम विधाता | बिन विष्णु को नहीं जग त्राता |
लोहट घर हरि लीन्ह अवतारा | प्रमर गोत्र  का मुकुट सितारा | 
केसर मात कृतार्थ किन्हीं | अलभ्य मुक्ति प्रभु ताको दीन्हीं |
और अनेक भक्त प्रभु तारे | काम क्रोध शत्रु सब मारे |
अजर अमर गुरु जम्भ संन्यासी | पूर्ण ब्रह्मा सकल घट वासी |
परमानन्द सकल अद्य जारण | आयो जम्भ सकल जग तारण | 
मुनि जन सब वाके गुण गावें | धर्म अर्थ मुक्ति फल पावें |
योग समाधि आप प्रभु लावें | सब शिष्यन को योग सिखावें |
धारणा ध्यान समाधि बतावें | प्रत्याहार खूब समझावें |
यम और नियम की बात सिखावें | प्राणायाम खूब बतलावें |
इन आठन का करै विस्तारा | जम्भ गुरु जग सिरजन हारा |
बैर भाव सबसे छुड़वायो | भाषण सत्य सबने समझायो |
ब्रह्मचर्य सब का रखवावे | सब से चोरी त्याग करावे |
सब के विषय विकार मिटावे | यही अपरिग्रह अर्थ बतावे ||
                         ||इति||
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