बिश्नोई समाज के मुख्य अष्टधाम
बिश्नोई समाज में अनेक साथरियां, धाम या तीर्थ स्थान है, जो श्रद्धा के
विशेष केन्द्र माने जाते हैं। इनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में गुरु
जांभोजी से रहा है। आरम्भ में इन सभी श्रद्धा केन्द्रों को साथरी ही कहा
जाता था, परंतु कालांतर में कुछेक विशेष स्थानों को धाम कहा जाने लगा।
कवि गोविंदराम ने उस स्थान को साथरी कहा है जो गुरु जांभोजी के चरणों से
पवित्र हुआ था।
इस विषय में उनके निम्न छन्द द्रष्टव्य है-
वृंदावन की रैण का, पावन सुध सरूप।
ज्यूं जंभगुरु के चरण सूं, भूमिभई अनूप।।
सो भूमि भई साथरी, कहिये कारण कूण।
यह संतों संसय हरो, कृपा करो सुख भूण।।
गुरीष्ट मांहि प्रवीण, जो बुद्धि भंगतां तणी।
निश्चै करै सरूप, ताते कहिये साथरी।।
मुख्य अष्टधाम इस प्रकार हैं :-
बिश्नोई समाज में अनेक साथरियां, धाम या तीर्थ स्थान है, जो श्रद्धा के
विशेष केन्द्र माने जाते हैं। इनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में गुरु
जांभोजी से रहा है। आरम्भ में इन सभी श्रद्धा केन्द्रों को साथरी ही कहा
जाता था, परंतु कालांतर में कुछेक विशेष स्थानों को धाम कहा जाने लगा।
कवि गोविंदराम ने उस स्थान को साथरी कहा है जो गुरु जांभोजी के चरणों से
पवित्र हुआ था।
इस विषय में उनके निम्न छन्द द्रष्टव्य है-
वृंदावन की रैण का, पावन सुध सरूप।
ज्यूं जंभगुरु के चरण सूं, भूमिभई अनूप।।
सो भूमि भई साथरी, कहिये कारण कूण।
यह संतों संसय हरो, कृपा करो सुख भूण।।
गुरीष्ट मांहि प्रवीण, जो बुद्धि भंगतां तणी।
निश्चै करै सरूप, ताते कहिये साथरी।।
मुख्य अष्टधाम इस प्रकार हैं :-
पीपासर

पीपासर : यह वही पुण्यस्थली है जहां भगवान श्री जम्भेश्वर जी महाराज ने अवतार लिया था। यह धाम जिला नागौर से १५ कोस ;४५ कि.मी.द्ध उत्तर में स्थित है। ग्राम पीपासर में श्री गुरु जम्भेश्वर जी ने संवत` १५८० भादव बदी अष्टमी को अर्धरात्रि के समय श्री लोहट जी के घर अवतार लिया था। उस जगह पर इस समय मन्दिर बनी हुई है और यह स्थान उनके घर की सीमा में है, जिसके पूर्व की ओर छोटी-सी गुमटी है। उस स्थान पर गुरु जी का अवतार हुआ माना जाता है। जिस कुएं से जाम्भोजी ने काचे करवे व धागे से जल निकाल उसी से दीप प्रज्जवलित किये व प्रथम सबद का उच्चारण करके तांत्रिक को पर्चा दिया था वह इसी गांव में ही है और अब वह कुआं बन्द पड़ा है। इसी कुएं से पशुओं को पानी पिलाते हुए राव दूदा मेड़तिया ने गुरु जी को देखा तथा आश्चर्य चकित हुआ था। इस कुएं और मन्दिर के बीच एक पुराना खेजड़ी का वृक्ष भी मौजूद है जहां राव दूदा मेड़तिया ने अपनी घोड़ी बांधी थी और गुरु महाराज की शरण में आया था। इसी स्थल पर जाम्भोजी ने राव दूदा को मेड़तापति होने का वरदान दिया और केर की तलवार दी तथा उनके इसी आशीर्वाद के फलस्वरूप उसे खोया राज्य पुनः प्राप्त हुआ था। यहां पर हर अमावस्या को अनेक श्रधालुजन आकर श्रधासुमन अर्पित करते हैं और अपनी मनोतिया मनाते हैं। समाधी मन्दिर में धोक लगाने वाले सभी श्रालुजन पीपासर दर्शनार्थ अवश्य जाते हैं।
समराथल धोरा

यह धाम मुकाम से १ कोस लगभग ३ कि.मी. दक्षिणपूर्व में स्थित है तथा बीकानेर से लगभग ८३ कि.मी. की दूरी पर है। यहां गुरु जी ने १५४०-१५९३ वि.संवत तक निवास किया तथा १५४२ वि.संवत में बिश्नोई पन्थ की स्थापना की। गुरु जी ने बैकुण्ठवास पर्यन्त ५१ वर्ष तक अपने श्री मुख से लोककल्याणार्थ अमृतवाणी कही। कवियों ने जाम्भोजी को सम्भराथल ;सांमीद्ध कहकर इसको और भी सम्मान प्रदान किया है। बालू रेत का बहुत बड़ा तथा उच्चा थल धोरा ;टीलाद्ध है। इस थल के सबसे शिखर की चोटी पर गुरु जी विराजमान थे और हवन किया करते थे। इसके चारों ओर जंगल ही जंगल ;ओरणद्ध है।
गुरूजी ने सबद नं. ७३ में "हरि कंकेड़ी मण्डप मेड़ी, तहां हमारा वासा॔" कहकर इसी स्थान की ओर इंगित किया है। जाम्भोजी के संदर्भ में समराथल का उल्लेख किसी न किसी रूप में प्रायः प्रत्येक कवि ने किया है। इसकी गणना साथरियों के मुख्य धामों में है। अनेक स्थानों पर भ्रमण करने के पश्चात गुरु जी यहीं आकर विराजते थे।
यहां पर श्रधालुओं का अपार जन समूह हर समय उनके दर्शनार्थ एवं ज्ञान श्रवणार् विघमान रहता था। श्रधालुओं की दृष्टि में समराथल, मथुरा तथा द्वारिका में कोई अन्तर नहीं है यह स्थान अन्य अनेक नामों जैसे- सोवन नगरी, थलां, थल, संभरि आदि से भी जाना जाता है। मेले के अवसर पर सभी श्रधालुजन प्रथमतः सुबह सवेरे ही निज मन्दिर में चढ़ावा चढ़ाते हैं तथा श्री चरणों में धोक लगाकर पंक्तिबध हो समराथल पर धोक लगाकर प्रत्येक "जातरी॔" बिश्नोई नीचे से श्रधानुसार मिटटी धोरे पर लाता है जो उनकी श्रधा व आस्था का प्रतीक है।
गुरूजी ने सबद नं. ७३ में "हरि कंकेड़ी मण्डप मेड़ी, तहां हमारा वासा॔" कहकर इसी स्थान की ओर इंगित किया है। जाम्भोजी के संदर्भ में समराथल का उल्लेख किसी न किसी रूप में प्रायः प्रत्येक कवि ने किया है। इसकी गणना साथरियों के मुख्य धामों में है। अनेक स्थानों पर भ्रमण करने के पश्चात गुरु जी यहीं आकर विराजते थे।
यहां पर श्रधालुओं का अपार जन समूह हर समय उनके दर्शनार्थ एवं ज्ञान श्रवणार् विघमान रहता था। श्रधालुओं की दृष्टि में समराथल, मथुरा तथा द्वारिका में कोई अन्तर नहीं है यह स्थान अन्य अनेक नामों जैसे- सोवन नगरी, थलां, थल, संभरि आदि से भी जाना जाता है। मेले के अवसर पर सभी श्रधालुजन प्रथमतः सुबह सवेरे ही निज मन्दिर में चढ़ावा चढ़ाते हैं तथा श्री चरणों में धोक लगाकर पंक्तिबध हो समराथल पर धोक लगाकर प्रत्येक "जातरी॔" बिश्नोई नीचे से श्रधानुसार मिटटी धोरे पर लाता है जो उनकी श्रधा व आस्था का प्रतीक है।
रोटू

रोटू : रोटू धाम तहसील जायल, जिला नागौर से लगभग १५ कोस पूर्वोत्तर में स्थित है। प्रसिद्ध है कि यहां १५७२ वि.संवत में गुरु जम्भेश्वर जी महाराज ने जोखा भादू की बेटी उमां ;नौरंगीद्ध बाई का भात ;मायराद्ध भरा था।
'अमर थार॔' नियम का केवल यही अक्षरशः पालन होता है। जिस स्थान पर आकर गुरु जी रूके वहां पर एक सुखा हुआ खेजड़ी का पेड़ था जो स्वतः ही हरा-भरा हो गया था। कालान्तर में श्रधालुओं ने उस स्थान पर चौकी बनवाकर एक पूजा स्थल बना दिया, जहां अब अटल जोत होती है। यही स्थान साथरी कहलाता है।रोटू गांव में जन-सहयोग से वर्तमान में एक भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया है, जिसमें दर्शनार्थ एक खांडा तथा गुरुजी के पत्थर पर अंकित चरण चिन्ह मौजूद हैं। गुरु महाराज ने यहां खेजड़ी के हजारों वृक्ष लगाये थे जो आज भी देखे जा सकते हैं। यहां यह प्रसिद्ध है कि इस गांव की फसलों से चिडि़या दाना नहीं खाती, मात्र् इन खेजडि़यों पर विश्राम करती हैं। टोकी स्थान पर साणियां सिद्ध का धोरा है जिसका गुरु जी से साक्षात्कार हुआ था और वह उनके आदेश से वहां से स्थानान्तरित हो गया था। जो ओरण है, वह यही स्थल है जहां गुरु जी भात भरने आये थे। उस दिन सर्वप्रथम उन्होंने यहीं आसन लगाया था।
'अमर थार॔' नियम का केवल यही अक्षरशः पालन होता है। जिस स्थान पर आकर गुरु जी रूके वहां पर एक सुखा हुआ खेजड़ी का पेड़ था जो स्वतः ही हरा-भरा हो गया था। कालान्तर में श्रधालुओं ने उस स्थान पर चौकी बनवाकर एक पूजा स्थल बना दिया, जहां अब अटल जोत होती है। यही स्थान साथरी कहलाता है।रोटू गांव में जन-सहयोग से वर्तमान में एक भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया है, जिसमें दर्शनार्थ एक खांडा तथा गुरुजी के पत्थर पर अंकित चरण चिन्ह मौजूद हैं। गुरु महाराज ने यहां खेजड़ी के हजारों वृक्ष लगाये थे जो आज भी देखे जा सकते हैं। यहां यह प्रसिद्ध है कि इस गांव की फसलों से चिडि़या दाना नहीं खाती, मात्र् इन खेजडि़यों पर विश्राम करती हैं। टोकी स्थान पर साणियां सिद्ध का धोरा है जिसका गुरु जी से साक्षात्कार हुआ था और वह उनके आदेश से वहां से स्थानान्तरित हो गया था। जो ओरण है, वह यही स्थल है जहां गुरु जी भात भरने आये थे। उस दिन सर्वप्रथम उन्होंने यहीं आसन लगाया था।
जाम्भोलाव

जाम्भोलाव : यह तीर्थ राजस्थान राज्य की फलौदी तहसील जिला जोधपुर से ८ कोस अर्थात २५ कि.मी. उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित है। यहां एक बड़ा व दर्शनीय तालाब है जिसको स्वयं जाम्भोजी ने १५६६ वि संवत में खुदवाना शुरू किया था, जिसकी १५७० वि. संवत के बाद तक खुदाई होती रही। इसी तालाब के ठीक उत्तर दिशा की तरफ अत्यन्त निकट ही मन्दिर है। जहां सुबह-शाम हवन के समय विघुत चालित वाघयन्त्र् सुमधुर ध्वनि में प्रभु का यशोगान करते हैं। इस तालाब में भक्तजन स्नानकर भगवान के चरणों में नतमस्तक हो स्वर्गिक आनन्द का अनुभव करते हैं। तालाब के पास बसे गांव का नाम भी जाम्बा है। यहां पर 'आथूणी व अगूणी जागा॔' के नाम से साधुओं की दो परम्पराये विघमान है जो क्रमशः मन्दिर संचालन का कार्य करती हैं। यह तीर्थ विसन तीरथ, विसन-तालाब, कलयुग तीर्थ आदि अनेक नामों से विख्यात है। यह वही स्थल है जहां कपिल मुनि ने तपस्या की थी व पाण्डवों ने यज्ञ किया था। जाम्भो जी ने कलयुग के जीवों के उद्धार हेतु इसे पुनः प्रकट किया था। यहां पर वर्ष में दो मेले लगते हैं। बड़ा मेला चैत्र् बदी अमावस्या को तथा छोटा मेला भादवा सुदी पूर्णिमा को लगता है। श्रधालुजन यहां मिटटी खुदवाने व परिक्रमा आदि की 'जात॔' भी बोलते हैं। बिश्नोई पन्थ में इसकी महिमा और महत्व प्रयाग संगम के समान है। यह तीर्थो का तीर्थराज है। मन्दिर में स्थापित कमलासन इसी का पुण्य प्रतीक है। संतप्रवर केसो जी ने इस तीर्थ की महिमा को यूं प्रतिपादित किया है :
पारब्रह्म परगट कियौ जगमां जाम्भोलाव। पापां षांडंण कारणै, तीर्थ कियौ तलाव।।
पारब्रह्म परगट कियौ जगमां जाम्भोलाव। पापां षांडंण कारणै, तीर्थ कियौ तलाव।।
लोदीपुर धाम

लोदीपुर धाम : जैसा कि 'उत्तर प्रदेश॔' के प्रमुख स्थल नामोल्लेख में उल्लेखित है, गुरु महाराज यहां १५८५ वि.संवत` में जब आये तो अपने भ्रमण काल में उन्होंने ग्रामवासियों के निवेदन पर खेजड़ा का वृक्ष लगाया था।
लालासर साथरी

लालासर : लालासर साथरी बीकानेर से ६ कि.मी. दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित है, जो चारों ओर ओरण से घिरी हुई है। यह साथरी गांव लालासर से ७ कि.मी. की दूरी पर है जिसके चारों ओर जंगल है। वि.संवत` १५९३ मिंगसर बदी नवमी के दिन गुरु जम्भेश्वर जी महाराज ने निर्वाण पद प्राप्त किया। वहां स्थित कंकेड़ी तथा लालासर साथरी श्रधालुओं के लिए श्रदधा का अनुपम केन्द्र है। यहां पर मन्दिर भी है जहां मेले के अवसर पर श्रधालुओं का तांता लगा रहता है।
मुक्तिधाम मुकाम

मुक्तिधाम मुकाम : मुक्तिधाम मुकाम बीकानेर से लगभग ८ कि.मी. तथा नोखा से १२ मील की दूरी पर स्थित है जो केवल सड़क से जुड़ा है। वैसे नोखा तक रेलमार्ग भी है। समराथल के समान ही मुक्तिधाम मुकाम का भी महत्व है। मुकाम धाम बिश्नोई समाज की श्रदधा एवं आस्था का मूल केन्द्र है। यहां पर समाधी मन्दिर है जो कि गुरु जम्भेश्वर भगवान की समाधि पर निर्मित है। यहां गुरु महाराज के पार्थिव शरीर को मिंगसर बदी ग्यारस वि.संवत` १५९३ को समाधि दी गई थी। उनके पवित्र् शरीर का अन्तिम पड़ाव होने से यह तीर्थ मुकाम के नाम से विख्यात है तथा समाज में यह आम धारणा है कि यहां निष्काम भाव से सेवा करने वालों को मुक्ति मिलती है। इसीलिए इसका नाम मुक्तिधाम मुकाम है।
गुरु महाराज ने निर्वाण से पूर्व खेजड़ी तथा जाल के वृक्ष को अपनी समाधि का चिन्ह बताया। उनके अनुसार ठीक उसी स्थान पर जहां आज समाधि है। उनको समाधि देने के लिए खोदने के दौरान २४ हाथ नीचे एक त्रिशूल मिला जो कि आज भी निज मन्दिर मुक्तिधाम मुकाम पर लगा हुआ है। यहां हर वर्ष मुख्य रूप से दो मेले लगते हैं। फाल्गुन की अमावस्या तथा आसोज की अमावस्या पर, जिसका प्रारम्भ वील्होजी ने किया था।
गुरु महाराज ने निर्वाण से पूर्व खेजड़ी तथा जाल के वृक्ष को अपनी समाधि का चिन्ह बताया। उनके अनुसार ठीक उसी स्थान पर जहां आज समाधि है। उनको समाधि देने के लिए खोदने के दौरान २४ हाथ नीचे एक त्रिशूल मिला जो कि आज भी निज मन्दिर मुक्तिधाम मुकाम पर लगा हुआ है। यहां हर वर्ष मुख्य रूप से दो मेले लगते हैं। फाल्गुन की अमावस्या तथा आसोज की अमावस्या पर, जिसका प्रारम्भ वील्होजी ने किया था।
जांगलू

जांगलू : यह साथरी जांगलू गांव से लगभग ५ कि.मी. दक्षिण पश्चिम में स्थित है। साथरी में उत्तर की ओर एक चौकी बनी हुई है। प्रसिद्ध है कि यहां गुरु जम्भेश्वर जी साथियों सहित १५७० वि. संवत में जैसलमेर में जेतसंमद बांध का उद्घाटन -यज्ञ करने हेतु वहां जाते समय यहां ठहरे थे तथा इस स्थान पर हवन किया था। इसके पास ही कंकेड़ी का एक वृक्ष है जिसे जाम्भोजी ने खुद अपने हाथों से लगाया था। ठाकुर धनराज जी भाटी ने इसके लिए ६००० बीघा ओण ;परती भूमिद्ध छोड़ी थी। जांगलू गांव और साथरी के बीच "बरींगआली नाड़ी॔" स्थित है। यह एक बड़ा तालाब है जिसको गुरु जी के आदेश पर भक्त बरसिंह बणीयाल ने खुदवाया था। प्रति अमावस्या को दूरदराज से श्रधालुजन इसकी मिटटी निकालने व मन्नत मनाने आते हैं। जांगलू गांव के पछेवड़ा में एक बहुत ही सुन्दर एवं भव्य मन्दिर है जहां गुरु जी का चोला, चींपी ;भिक्षापात्र्द्ध रखे हैं। यहां प्रतिवर्ष लगभग २०० क्विंटल से भी अधिक घी का चढ़ावा आता है जिसे श्रधालुजन गुरु आदेश एवं मन्नत हेतु चढ़ाते हैं। मेहोजी थापन श्री जाम्भो जी की तीन वस्तुएं चोला, चींपी ;भिक्षापात्र्द्ध और टोपी ले कर यहां आये थे। जिसमें से टोपी उन्होंने मुकाम के थापनो की प्रार्थना पर वापिस लौटा दी थी। शेष दोनों वस्तुएं यहां विघमान हैं। ये मेहो जी यहां मन्दिर के पिछवाड़े से लाये थे तभी से यह मन्दिर पिछोवड़ो के नाम से विख्यात हुआ।
