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तिलवासणी के शूरवीरों का बलिदान :
तिलवासणी गांव जोधपुर राजा के अधीन था इस गांव में बिश्नोईयों का निवास होता आ रहा है। बिश्नोईयों को अपना ग्राम एवं वन, वन्यजीव अति प्रिय थे। वे लोग अपने प्रिय गांव को स्वर्ग से कम नहीं मानते थे क्योंकि जो सुख स्वर्ग से मिलने वाले थे वे अपने ग्राम में उपलब्ध थे। धार्मिक अनुष्ठानों तथा अपने परिश्रम से ही उन लोगों ने अपने गांव को स्वर्ग सदृश बनाया था।
गांव का वन सदा हर भरा रहता था। समय पर वर्षा होती थी। अनाज के भण्डार भरे रहते थे। पशुओं के खाने के लिए हरा घास, जल की कमी नहीं रहती थी। जिससे गायें आदि दुधारू पशु भरपूर दूध देते थे। दूध, दही, घी आदि सेवन करने से वहां के बिश्नोई अति बलिष्ठ थे और उनकी भावना सात्विक थी, जिससे धर्म के कार्य के लिए सदा तत्पर रहते थे। सद्गुरू के वचनों को ही वेदवाक्य मान कर उनका पालन करते थे।
तिलवासणी के निकट ही खेजड़ले गांव में भाटी राजपूत लोग रहते थे। उस समय राजपूतो का राज्य था। खेजड़ला गांव तथा तिलवासणी वहां के भाटी गोपालदास के आधीन थे। गोपालदास वहां का एक तरह का राजा ही था। किसानों से आमदनी का चौथा भाग लेता था। बिश्नोइयो से अनाज- आमदनी का पांचवा भाग लेता था। जाम्भोजी महाराज ने तत्कालीन राजाओं से बिश्नोइयो के लिये पांचवा हिस्सा करवाया था क्योंकि बिश्नोई परिश्रमी बहुत होते है। अन्न अधिकता से उपजाते थे तथा दान देने की प्रवृति अधिक होने से उन्हें यह छूट प्राप्त थी। 
भाटी गोपालदास को किवाड़ आदि कुछ बनवाने के लिये लकड़ी की आवश्यकता पड़ी,उन्होंने अपने कारीगर किरपे को लकड़ी लाने के लिये वन में भेजा,अन्य जगहो पर तो लकड़ी मिलना दुर्लभ थी क्योंकि वृक्ष पहले ही कट चुके थे। सभी जगहो पर भटक कर किरपो बिश्नोइयो के गांव तिलवासणी पहुंचा और देखा तो आश्चर्य चकित रह गया क्योंकि वहां पर वृक्ष से वृक्ष जुड़ा हुऐ एक से एक अति सुन्दर सुहावने तथा उपयोगी भी थे। 
अपने साथियो से किरपे ने कहा-देखते क्या हो,अपनी अपनी कुल्हाड़ी संभालो और पेड़ काटना प्रारम्भ करो। सेवक जनों ने सकुंचाते हुऐ कहा-ठाकुर साहब ये वृक्ष तो बिश्नोइयो के है। जरा पहले सोच लीजिये। किरपे ने उनकी बात की परवाह नहीं की और वृक्ष काटने का आदेश दे दिया। स्वंय तैयार हो कर खड़ा हो गया। 
वन काटे जा रहे है,आप बिश्नोई लोग अचेत हो कर सो रहे हो। क्या इतनी जल्दी ही जाम्भोजी के उपदेश भूल गये? क्या इसी प्रकार से वन कटता रहेगा?क्या आप लोग ऐसी दशा में बिश्नोई कहलाने के अधिकारी हो सकते हो? यदि वन कट गया तो फिर आप लोग क्या सुखी जीवन जी सकते हो? बिना वन के तो सुखी जीवन जीने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है? यह घोर अनर्थ पका बिश्नोई तो सहन नहीं कर सकेगा। उठो जागो कुछ करो या मरो। 
इस प्रकार की ध्वनि सभी धर्म प्रेमी बन्धुओं के कर्ण रन्ध्रो में गुंजायमान हुई। सभी लोग एकत्रित हुऐ और विचार किया कि अब क्या करना चाहिये। सभी लोग एक स्वर से आकाश को गुंजामान करते हुऐ जय जय कार के साथ कहने लगे हमारे प्राण भले ही चले जाय किन्तु वृक्ष नहीं कटने देंगे। हमारा सर्व सम्मत यही अन्तिम फैसला है।
उसी समय गांव के पंचो और पीथो दो चौधरियो ने आगे आकर समझाते हुऐ कहा- आप लोग शांत रहिये,कही जोश में होश मत खो देना। हम दोनो आपके प्रतिनिधि बनकर के ठाकुर गोपालदास के पास गांव खेजड़ले जाते है। उनको जाकर यहां की स्थिति बतलायेगें तथा किरपो एवं उनके साथियो को दण्डित करवायेगे। तब तक आप लोग धैर्य धारण करो। 
पांचो और पीथो खेजड़ले गांव के ठाकुर गोपालदास के सामने उपस्थित हुऐ और उन्हें वहां की स्थिति से अवगत करवाया। परन्तु गोपालदास के उपर तो मद का भूत सवार था। उसने उन बिश्नोइयो की एक भी बात नहीं सुनी और धमकाते हुऐ कहा- तुम लोग इस गांव व जमीन में क्या मांगते हो? इस धरती में तुम्हारा कुछ भी नहीं है। जो कुछ धरती के उपर या अन्दर है वह सभी कुछ मेरा ही है। यह तिलवासणी गांव बाबेजी म्हाने ही दिया है। यदि अपनी खैर चाहते हो तो बिश्नोइयो चुप चाप वापिस लौट जाओ। मैंने जिन आदमियो को भेजा है वे तो अपना कार्य करेंगे ही और उनकी रक्षा के लिये आज ही एक सौ सिपाहियो को ओर भेज रहा हूं। अब आप चाहे जैसा करना,अपनी जोर अजमाइश कर के देख लेना। यही आपका जबाब है। 
आज तो आप लोग वृक्ष नहीं काटने दे रहे है,कल यह भी कहोगे कि हम हिस्सा भी नहीं देंगे। ऐसी जनता हमें नहीं चाहिये। पांचो और पीथो ने हाथ जोड़ कर अरदास की किन्तु उसका कुछ भी असर उस ठाकुर पर नहीं पड़ा। और इस प्रकार का कठोर जवाब सुन कर दोनों चौधरी वापस आ गये। आते ही जमात को फैसले से अवगत करवा दिया और कहा- अब हमें पीछे नहीं हटना है, प्राण देकर भी वृक्ष बचायेंगे। दूसरे दिन प्रात: काल ही किरपों ने वृक्ष कटवाने प्रारम्भ कर दिये। ज्योंहि कुल्हाड़ी की आवाज सुनाई दी, त्योंहि हजारों धर्मवीर पुरूष जाम्बोलाव तालाब के जल से स्नान कर के तैयार हो गये। सभी एक दूसरे से आगे बढ कर वृक्षों के चिपकने के लिए उतावले हो रहे थे। यह शरीर, पुत्र, पौत्र, भाई- बंधु का नाता तोड़ कर लोग स्वेच्छा से प्राण देने के लिए हजारों की संख्या में खड़े हुए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे।
साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति के अनुसार सर्व प्रथम शांत दल को आगे भेजा गया और गर्म दल से कहा- कि तुम पीछे रहो। यदि एक या दो लोगों के जीवन दान से समस्या हल हो सकती है तो फिर क्यों लड़ाई द्वारा हजारों लोगों का खून खराबा किया जावे। इस नीति के अनुसार सर्व प्रथम खीवणी खोखर परम भक्ता को आदर देते हुए उन राक्षसों के सामने मरने के लिए जाने दिया। खीवणी सहर्ष आगे बढ़ी, किरपों जिस पेड़ को काट रहा था उसी के जाकर चिपक गयी।
प्रथम तो किरपे ने कहा- अरे भोली भाली नारी यह क्या कर रही है? तूं अपने घर जा, यहां तुम्हारा कुछ भी कार्य नहीं है। यदि यहां से नहीं हटती है तो यह देख धारीदार कुल्हाड़ा आ रहा है, ऐसा कुल्हाड़ा उपर उठाते हुए कहा। यह कुल्हाड़ा आने दीजिये, रोकिये नहीं, मुझे इससे कुछ भी भय नहीं है। मैंने हृदय में विष्णु को धारण कर रखा है उसे तो यह तुम्हारा कुल्हाड़ा काट नहीं सकता और यह शरीर तो आज नहीं तो कल कभी न कभी काल के वश में हो ही जायेगा। आत्मा अजर अमर अविनाशी को कौन मार सकता है? पाप पुण्य ही व्यक्ति के साथ जाते है और सभी कुछ यही धरा रह जाता है। तो फिर सांसारिक वस्तुओं से मोह भी कैसा?
जहां वृक्ष पर चोट पड़ रही थी, उसे निर्दया से काटा जा रहा था, अब वृक्ष की तो रक्षा हो गयी किन्तु किरपे की कुल्हाड़ी खीवणी के शरीर पर चलने लगी, जो वृक्ष को काट सकता है तो वह मानव शरीर को भी काट सकता है उस दुष्ट प्रकृतिवान मानव ने ऐसा ही किया। शरीर का एक एक अंग कुल्हाड़ी की चोट झेलते हुए कटकर शरीर से विलग होकर गिरने लगा। सम्पूर्ण शरीर के केई टुकड़ा कर चुका था। तब कहीं शरीर के प्राण पंखेरू उड़ गये।
शरीर के जीवित रहते किरपो खेजड़ी का एक भी वृक्ष नहीं काट सका। इस दृश्य को दूर उपस्थित जन समूह ने अपनी आंखो से देखा था। ऐसी हृदय विदारक घटना देख कर कुछ गर्मदलीय युवको में जोश आ गया वे कुछ अनहोनी कर गुजरने के लिए सशस्त्र तैयार थे किन्तु उन प्रधानों ने उनको रोका और अनुशासन बरतने के लिए कहा। वे अनुशासित योद्धा थे। उनकी बात का आदर करते हुए कुछ देर के लिए ठहर ही गये।
दुष्ट किरपों के भी खून सवार हो गया था उसका हृदय कठोरतम हो गया था और फिर से खेजड़ी वृक्ष पर कुल्हाड़ी का वार प्रारम्भ कर दिया। अब की बार भक्त मोटे ने कहा- मेरी बारी है मुझे जाने दीजिये। अति शीघ्रता से मोटा भी जाकर रूंख से चिपक गया और कुल्हाड़ी के घाव को अपने शरीर पर झेल लिया।
किरपे ने फिर समझाते हुए कहा- जो दुर्गति खींवणी की हुई है, वही तेरी भी होगी, मेरे में दयाभाव नाम की कोई वसतु नहीं है, दया का तो खाता ही खाली है, क्यों अपने जीवन को मिटा रहा है? हट जाओ यहां से? मोटा भक्त तो अपने धर्म पर दृढ था। गुरूदेव की आज्ञा का पालन करने वाला था। मोह माया जनित क्लेश का लेश भी नहीं था। भला वह यह अवसर कैसे हाथ से जाने देता।
खीवणी की तरह मोटा भक्त भी हंसते हुए दरखत से चिपका रहा, और परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए शरीर से प्राण अलग होते हुए देखता रहा। किरपे ने कुल्हाड़ी द्वारा चोट पर चोट करते हुए शरीर के केई टुकड़े कर दिये और दूर खड़ा होकर अट्टहास करने लगा।
किरपा उच्च स्वर से कहने लगा- आप लोग आते जाइये और मैं काम तमाम करता जाउंगा। अब तक मेरी कुल्हाड़ी में धार है और मेरे शरीर में नेतू नैण से ये कठोर वचन नहीं सहे गये और भीड़ के अंदर से बाहर निकल आयी आते समय अपने लोगों को सचेत भी कर दिया कि आप लोग धैर्य रखिये, कहीं ऐसा न हो कि परस्पर युद्ध हो जाये और अपनी शांति की योजना धरी की धरी रह जाये और फिर कभी भी हम रूंखों की रक्षा करने में सफल नहीं हो सकेंगे। यह मेरा बलिदान तुम्हारे लिए निर्णायक सिद्ध होगा। ऐसा कहते हुए नैतू नेण आगे बढ चली। पीछे से उन जाम्भाणी लोगों ने बार बार धन्यवाद दिया और परमात्मा से प्रार्थना भी की-हे प्रभु! हमें शक्ति प्रदान करो,नेतू को शक्ति भक्ति दो, जो यह अपने मार्ग से पीछे नहीं हटे। आज ही यह निर्णायक युद्ध होने जा रहा है। महान कौन है, स्वेच्छा से मरने वाला या मारने वाला? सहन शक्ति तो भी महान शक्ति है। इसके सामने शस्त्र की शक्ति तो कुछ भी नहीं है। यही निर्णय होना है कि विजय किस की होती है ''यतो धर्म ततो जय
नेतू ने उस वृक्ष को अपने प्रिय शिशु की भांति छाती से चिपका लिया। भला कोई अपने जीवित रहते हुए अपनी प्रिय संतान को कटने थोड़े ही देगा। नेतू ने तो ऐसा ही किया था। गुरू के वचनों का पालन किया था। किरपे ने यह दृश्य देखा तथा पीछे खड़े बिश्नोइयो की जमात ने भी देखा। किरपा थोड़ी देर के लिए रूक भी गया, क्योंकि उसके हाथ उपर उठने से इंकार कर रहे थे। किरपे ने सचेत होकर कहा-हे नारी ! तूं यहां क्या कर रही है, यह नहीं देख रही है, तुम्हारे ही सामने एक स्त्री एक पुरूष कट गये है। यह देख कर तुम्हारे अंदर कायरता नहीं आ रही है? स्त्री जाति की होकर भी यह दुष्कर कार्य करने जा रही है। तुम्हें किसी ने बहकाया होगा, अब भी मौका है वापिस लौटने का, चली जा।
नेतू ने कहा- रे दुष्ट ! तूं मुझे क्या समझा आ रहा है? अब तक तुझे धर्म के मर्म का पता ही नहीं है? मैं जो कुछ भी करने जा रही हूं, यह मेरा कार्य परम धार्मिक है। मैं तो अपनी आत्मा की आवाज पर ही जो कुछ कर रही हूं। मेरे साथ सद्गुरू जाम्भोजी के वचन है, मैं मर्यादा की पाल बांधने जा रही हूं किन्तु तुम्हारे जैसे दुष्ट लोग तोडऩे के लिए उतावले हो रहे है। धर्म केवल कहने सुनने की बात नहीं है धर्म तो क्रिया रूप से करके दिखाने की बात है। मुझे तो जो कुछ करना था वह कर लिया अब तुझे जो कुछ करना है वह कर के दिखादे, रूक क्यों गया। मैं स्त्री जाति की होने से कोई कमजोर नहीं हूं, पुरूष होने से कोई शूरवीर या महान नहीं हो सकता। तन, मन, श्वास, मास, आत्मा आदि तो स्त्री पुरूष में समान ही है फिर भेद कैसा? आदमी किसी जाति में पैदा होने से महान नहीं हो जाता उसकी महानता तो उसके कर्मानुसार होती है।
तो फिर यह बात है इसीलिए पीछे नहीं हटोगी,यदि तुम्हें पीछे नहीं हटना है तो पीछे मुझे भी नहीं हटना है। ऐसा कहते हुए कुल्हाड़ा उपर उठा ही लिया और सभी के देखते हुए उस निर्दयी पत्थर हृदय प्राणी ने कुल्हाड़े का वार नेतू के उपर कर ही दिया। खेजड़ी तो नहीं कटी किन्तु नेतू का एक हाथ कटकर दूर जा गिरा, खून की धारा बह चली। दूसरी चोट से दूसरा हाथ कट कर गिर पड़ा। दोनों भुजायें कट जाने से रूंख की पकड़ तो छूट गयी और नीचे धरती पर नेतू गिर पड़ी। नीचे गिरते हुए भी शिर अब तक उस पेड़ के चिपका हुआ ही था, मानों अंतिम बार नमन कर रही हो। शरीर भी अंतिम श्वास ले रहा था। उस दुष्ट से नत मस्तक भी नहीं देखा गया और पूरा जोर लगा कर सिर भी धड़ से अलग कर दिया। नेतू के प्राण पंखेरू उड़ गये।
जहां पर योगी तपस्वी, हजारों वर्षो की साधना से पहुंच पाते है, उसी दिव्य लोक को आत्मा ने प्रयाण किया। किन्तु खून से लथ पथ शरीर वहीं धरती माता की गोद में लेट गया। धरती माता से ही पैदा हुआ था और अति शीघ्र ही माता की गोद में समाहित हो गया। कठोर पत्थर सदृश दिल भी ऐसी घटना को देखकर पिघल ही जायेगा। किरपै के हाथ की कुल्हाड़ी छूट कर नीचे गिर पड़ी। बार बार पुन: उठाने की कोशिश की परन्तु उठा नहीं सका। उसके सहयोगियों ने भी ऐसा ही प्रयत्न किया किन्तु पेड़ काटने की हिम्मत किसी में भी नहीं हो सकी। सभी हार कर वहां से जान बचाकर भाग खड़े हुए।
खेजड़ले जाकर गोपालदास को इस घटना का पूरा वृतान्त सुनाया और कहने लगे- तीन स्त्री पुरूषों ने बलिदान दे दिया है किन्तु एक भी वृक्ष कटने नहीं दिया है। हम तो खाली हाथ लौट आये है, अब पुन: वहां पर जाने की हमारी हिम्मत नहीं हो रही है। चाहे आप स्वयं ही जाना चाहो तो जा सकते है। वहां पर तो हजारो स्त्री पुरूष मरने के लिए तैयार खड़े है। अब आगे हो सकता है द्वन्द्व युद्ध हो जाये।
हजूर ! संभल कर ही जाना होगा। गोपालदास भी तो आखिर मनुष्य ही था। उसके शरीर में भी तो एक मानव का दिल धड़क रहा था। हृदय पसीज गया और कहने लगा- रे दुष्टो! तुम्हारे अंदर कुछ भी दया नहीं है, अरे वे लोग तो मानव नहीं देवता है। उन्होंने तो अपना बलिदान देकर मेरी आंखे खोल दी है। मैं भी पहले भ्रम में ही था। क्या ऐसा भी हो सकता है? वृक्षों की रक्षा के लिए भी कोई बलिदान दे सकते है। ऐसा तो कभी भी इतिहास में न तो कहीं लिखा गया है और नहीं कहीं सुना भी गया है। यह तो दुनिया की अद्भुत घटना है।
ऐसा कहते हो ठाकुर साहब ! अभी ही तो कुछ वर्ष पूर्व रामासड़ी में ही दो स्त्रियों ने वृक्ष रक्षार्थ प्राणों की आहूति दी थी। यह जान कर भी आप अनजान क्यों बन रहे हो? ऐसा ग्राम के चौधरी ने बतलाया। गोपाल दास ने अज्ञता प्रगट करते हुए कहा- यह मैं सच कह रहा हूं, मुझे इस पूर्व की घटना का पता नहीं था। यदि ऐसा मालूम होता तो मैं ऐसी घटना कभी नहीं होने देता। मुझे मेरे समीपस्थ लोगों ने अंधेरे में रखा है।
जो होनहार थी वह तो हो गयी, अब मुझे पश्चाताप की आग में जीवन भर जलना होगा। वे तो बेचारे झटिति कट गये किन्तु मेरा एक एक टुकड़ा धीरे धीरे पछतावा करता हुआ जलेगा। यदि यह जलना कुछ हल्का हो सके तो इसका कोई उपाय कीजिये चौधरीजी। यह दुख कुछ हल्का हो सके इसके लिए तो यही उपाय होगा कि आप स्वयं विनम्र भाव से अपराधी बन कर उन बिश्नोईयों की जमात में जाकर क्षमा याचना करे। वे दयालु है, शायद आप के अपराध को देखते हुए माफी दे दे। यही उपाय हो सकता है।
गोपालदास तिलवासणी गांव में अपने विश्वास पात्र लोगों को साथ लेकर पहुंचा और अपना शिर पंचायत के सामने झुकाया और कहा- यह सिर तुम्हारा है, चाहे तो इसे काट लो, चाहे तो इसे छोड़ दो। पांचो- पीथो चौधरी वहां पर उपस्थित थे, उन्होंने तथा सम्पूर्ण जमात ने कहा कि अब आपका सिर काटने से तो ये जीवित नहीं हो सकते किन्तु उनके सम्मान के लिए तुम्हें यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि फिर कभी रूंख नहीं काटेंगे और नहीं किसी को काटने देंगे।
ठाकुर ने बिश्नोईयों की बात का आदर किया और यह समझौता लिखित रूप से कर के दिया। उसी दिन से फिर कभी भी हरे वृक्ष काटने की हिम्मत नहीं की। बिश्नोई लोग अमन चैन से रहने लगे।
यह कथा वील्होजी ने अपनी साखी ''विज्ञानी आत्म थक्यो'' में वर्णन की है। वील्होजी इस घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा थे। तथा इसी का अनुसरण क%
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