जाम्भाणी साहित्य में अनेको कवि हुऐ है,जिन्होंने काव्य रचना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हीं कवि परंपरा में वि.स.सत्रह सौ से सत्रह सौ निब्बे के बीच महा कवि गोकुल जी हुऐ है। उन्होनें अपने जीवन काल में अनेको स्तुति परक रचनाऐ की है। साथ ही खेजड़ली की प्रसिद्ध घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा भी थे। गोकुलजी ने उस घटना को देख कर अपने भावो को छन्दोबद्ध किया है।
जो साखी के रूप में प्रसिद्ध है।
साखी का प्रारम्भ अजीत सिंह जोधपुर के राजा से होता है। और अन्त तीन सौ तिरेसठ स्त्री-पुरूषो के बलिदान से होता है। प्रारम्भ-पण पालण पिसण गंजण, रूंखा राखण हार --अन्त-गुणि गूंथि गोकल कह साखी,खेजड़ली खल खट सांभल्यौ’’ जोधपुर बसाने वाले राव जोधाजी जाम्भोजी के शिष्य थे। जोधाजी के प्रार्थना पर जाम्भोजी ने उनको बैरीसाल नगाड़ा दिया था। गुरु जाम्भोजी की कृपा से ही जोधपुर नगर आबाद हुआ था। उन्हीं जोधाजी की परंपरा में वि.सं.सत्रह सौ के पश्चात अजीत सिंह जी जोधपुर के राजा बने थे।
गोकुलजी ने अजीत सिंह की महिमा का वर्णन साखी के प्रारम्भ में किया है। अजीत सिंह पूर्णतया धार्मिक राजा था। प्रजा का पालन न्याय पूर्वक करता था। ऐसे ही अजीत सिंह का पुत्र अभयसिंह हुआ। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात राजसिंहासन पर बैठा। अपने राज्य की सीमा की सुरक्षा के साथ ही साथ राज्य विस्तार की भावना से गुजरात में भी कई इलाको पर चढाई कर के विजय हासिल की थी। राजा ने अपना अधिकतर समय युद्ध में ही व्यतीत करता था।
स्वंय राजा अभयसिंह सेना सहित गुजरात से विजय श्री हासिल कर के आया ही था। खुशिया मनाई जा रही थी। राजा का सम्पूर्ण कार्य सूत्र भण्डारी गिरधर के ही हाथ में था। जैसा चाहता था वैसा ही राजा से करवा लेता था। राजा पूर्णतया गिरधारी के हाथ चढ चुका था। इसलिये गिरधरदास की ही मनमानी चलती थी।
गिरधरदास स्वंय ही राजा के पास जाकर कहने लगा-हे अन्नदाता! इस समय राज कोश की हालत बहुत ही खराब चल रही है। कर्मचारियो की नौकरी के लिये भी रूपये नहीं बचे है तथा आपने जो किला बनवाया प्रारम्भ कर रखा है उसके लिये सामग्री चाहिये। यदि आप आज्ञा दो तो मैं व्यवस्था करूं। मुझे आशा है कि इधर बिश्नोइयो के गांवो में खेजड़ी के वृक्ष बहुत है। उन्हें कटवाकर लाता हूं और उस इन्धन से चूना जलाया जायेगा।
उससे अपनी सम्पूर्ण समस्या हल हो जायेगी। अभयसिंह ने भण्डारी को समझाते हुऐ बतलाया कि बिश्नोई लोग जाम्भोजी के शिष्य है,वे तुम्हें हरे वृक्ष काटने नहीं देंगे।
तुम्हें खाली हाथ लौटना होगा। फिर हरे वृक्ष काटना कोई पुण्य का कार्य नहीं कहा जा सकता।
यदि वे लोग काटने नहीं देगें तो भी कोई बात नहीं है। उसके बदले में उनसे कुछ रूपये लेने की मांग रख दी जायेगी। या तो पेड़ काटने देगें। इन लकड़ी की व्यवस्था कही और जगह से कर लेंगे। आप चिंता न कीजिए,आपके दो दोनो हाथा में लड्डू है यह कार्य तो आप मेरे पर छोड़ दीजिए। मैं स्वयं ही व्यवस्था करूंगा। अभय सिंह को पूर्णतया आश्वासन देकर कुछ सिपाहियो को तथा वृक्ष काटने वाले मजदूरो को लेकर गिरधर दास सीधा जोधपुर से चल कर पचीस कि.मी.दक्षिण पूर्व में खेजड़ली गांव पहुंचा और वृक्ष कटवाना प्रारम्भ कर दिया।
वृक्ष पर कुल्हाड़ी की चोट पडने से आवाज को वहां के लोगो ने सुना तथा देखते ही देखते वहां पर हजारो आदमी इकऋे हो गये। और उन वृक्ष काटने वाले आततायी लोगो के हाथ से कुल्हाड़ी छीन ली और उनको वहां से भगा दिया। निहत्थे लोग गिरधर दास के पास पहुचें और सम्पूर्ण वृतान्त से अवगत करवाते हुऐ कहने लगे-
हम तो दुबारा वृक्ष काटने नहीं जायेगे। इस बार तो किसी प्रकार प्राण बचा कर भाग आये। अब की बार तो प्राणो की रक्षा होनी भी कठिन है। यह वृक्ष काटने का दुष्कर कार्य हम से नहीं बनेगा। इसके बदले आप के वचनों की अवहेलना करने से चाहे आप हमें फांसी ही क्यों न चढा दे।
गिरधरदास राजमद से मस्त हुआ घोड़े पर सवार होकर बिश्नोइयो के पास पहुंचा और अकड़ कर जोर से ललकारते हुऐ कहने लगा-आप लोग कौन होते है,हमारे कर्मचारियों को रोकने वाले।आप को पता होना चाहिये कि ये सभी राजकीय आदमी थे। इनको रोकने की आपको हिम्मत कैसे हुई। आप जानते है कि मैं कौन हूं, यदि नहीं जानते तो मैं बतला देता हूं कि मैं जोधपुर राजा अभयसिंह का खास भण्डारी गिरधरदास हूं। इन कर्मचारियो के साथ जो आप लोगो ने व्यवहार किया है वह मेरे साथ हुआ है। मेरा अपमान भी राजा का अपमान है। आप सभी लोग राज दण्ड के भागी हो।
बिश्नोइयो की जमात की तरफ से अणदे ने आगे बढ कर हाथ जोड़ते हुऐ बतलाया कि हमें इस बात का पता नहीं था कि वे सभी राजकर्मचारी थे। हमें कोई आपका या राजा का अपमान करना आवश्यक नहीं था। यह तो अनजान में ही हो गया। किन्तु अजीत सिंह के पुत्र अभयसिंह पर हमें यह भरोसा नहीं होता कि वे कभी हरे वृक्ष कटवा सकते है,यह तो हम कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। जिनके पिता जी ने आगे बढकर सदा ही अपने पिता मह की चलाई हुई मर्यादा का पालन किया। उनका पुत्र यह मर्यादा कैसे तोड़ सकता है। भण्डारीजी आप भूल से यहां बिश्नोईयों की सीमा में प्रवेश कर गये है। यदि जोधपुर से इसी कार्य के लिए आये है तो वापिस लौट जाइये, इसी में ही आपका भला है।
मुझे शिक्षा देने वाला गंवार कौन है? इसे बंदी बनाया जाय और पुनः वृक्ष काटने का कार्य प्रारम्भ किया जाये, यह मेरी आज्ञा है। किन्तु महाराज! आपकी आज्ञा हम नहीं मानेंगे, यहां पर कोई बच कर वापिस नहीं जायेगा। जिस अवस्था में हम खड़े है, यह बड़ी ही नाजुक अवस्था है। ऐसा कहते हुए गिरधरदास के अंग रक्षक एवं कर्मचारियों ने वृख काटने से साफ इनकार कर दिया। और वापिस जोधपुर लौटने की तैयारी करने लगे।
गिरधरदास का मद चूर हो गया था और घोड़े से नीचे उतर कर चैधरी अणदे के पास जाकर हाथ मिलाते हुऐ कहना लगा- ठीक जैसा आप कहते है, वैसा ही करूंगा। अपने कर्मचारियों को मैंने रोक लिया है। यदि आप लोगों को रूंखो से प्रेम ज्यादा है तो मुझे कटवाने का कोई शौक नहीं है। यह लकड़ी का प्रबंध तो मैं कहीं और जगह से कर लूंगा। इस त्याग के बदले में आप लोगों को रूपया तो अवश्य ही देना होगा। राज कोश में रूपयों की महती आवश्यकता है।
बिश्नोईयों ने एक स्वर से कहा- न तो हम वृक्ष का एक पता ही तोडने देंगे और नहीं इस अन्याय के लिए एक रूपया ही हम तुम्हें देंगे, क्योंकि हमारी ही कमाई के रूपये तुम लेकर उससे कहीं पर वृक्ष ही कटवाओगे। यहां नहीं तो कही अन्यत्र ही हरे वृक्ष तो कटेंगे ही। यह कार्य हम कदापि नहीं होने देंगे। इन वृक्षों के बदले हमारा सिर ले सकते हो। यहां तुम देख रहे हो अनेको सिर देने के लिए तैयार खड़े हैं। इन्हीं खोपडियों से ही एक किला तैयार हो जायेगा, ये काट कर ले जाओ।
भण्डारी गिरधरदास चुप होकर अपने साथियों के साथ वापिस जोधपुर के लिए चल पड़ा। जाते समय उसकी अवस्था बिश्नोईयों ने देखी थी। क्रोध से भरा हुआ था, होंठ फड़क रहे थे, कुछ करना चाह रहा था किन्तु अल्प शक्तिवान होने से कुछ करने में असमर्थ था। काले सर्प को छेड़ दिया था, मन में व्यथा लेकर जोधपुर पहुंचा था। बिश्नोई उसके मन के भाव को समझ चुके थे। नाराज होकर यह जा रहा था तो कोई न कोई खतरा अवश्य ही उपस्थित करेगा। इसीलिए अपने को भी चैन से नहीं बैठना चाहिये।
दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता अवश्य ही करेगा। उसके मन में दया का सर्वदा अभाव ही होता है। वह किसी के उपदेश को भी ग्रहण नहीं करता। इसीलिए कोई न कोई उपाय तो अवश्य ही करे। आग लगने से पहले ही कुवां अवश्य ही खोद लेना चाहिये। चैधरी लोग एकत्रित हुए और पंचायत की उसमें यही निर्णय लिया गया कि अब की बार वह दुष्ट आयेगा जरूर और आते समय वह बहुत बड़ी सेना लेकर आयेगा।
अपने पास उस बहुत बड़ी सेना का सामना करने के लिए सेना तो नहीं है परन्तु प्रत्येक बिश्नोई का बच्चा बच्चा सैनिक है, इस खेजड़ली गांव को युद्ध का मैदान बना सकते है। अपने को प्राणों की बाजी लगा कर भी धर्म पर अडिग रहना है। इसीलिए चैरासी गांवो में जो इस कार्य के लिए आ सकते है। सहयोग दे सकते है, उन्हें चिऋी भेजी जाय। पत्र लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ, अणदे चैधरी ने चाचा की सलाह से पत्र लिखा-
मान्यवर! बिश्नोई बंधु अब तक तो जाम्भेजी महाराज की अपार कृपा से हम लोग धर्म रक्षार्थ तत्पर थे। अब श्री गुरूदेव का कृपा हस्त तो अपने सिर पर है। हमारी परीक्षा की घड़ी आ चुकी है, यदि हम लोग इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये तो समझों कि वास्तव में जाम्भेश्वर जी के शिष्य बिश्नोई है।
बात इस प्रकार से है कि जोधपुर राजा अभयसिंह का भण्डारी गिरधर दास अपनी दुष्टता करने के लिए तत्पर, यह बिजली निश्चित ही बिश्नोईयों पर गिरने वाली है। वह दुष्ट अभी अभी यहां पर आया था। हरे वृक्ष देखकर तथा बिश्नोईयों की धन धान्य की सम्पन्नता देखकर मन ललचा गया है। उसने यही कहा है- या तो हरे वृक्ष काटेंगे और इन्हें बचाना है तो इनके बदले में रूपये देने होंगे। प्रथम दाव तो हम सब ने मिल कर फेल कर दिया है। उसे खाली हाथों वापिस लौटा दिया है किन्तु उससे पूरी तरह चिढ गया है।
वह अब बहुत भारी सेना लेकर वापिस आएगा और वन का विनाश करेगा। हम ग्राम वासी आपका सहयोग चाहते है। यह धर्म की रक्षा का सवाल है न कि व्यक्ति गत स्वार्थ का। जो लोग अपना सिर सौंपने को तैयार है वे ही लोग यहां पर आने का कष्ट करें, जो कायर तथा धर्म विमुख है वे लोग आने का कष्ट न करें। अधिक न लिखते हुए थोड़े में ही बहुत समझ कर अतिशीघ्र खेजड़ली गांव पहुंचे। आपको ही अपने खेजड़ली ग्राम निवासी।
इस प्रकार से पत्र लिखकर बहुत से पत्र वाहकों को देकर भेजा और अति शीघ्र सूचित किया। पत्र मिलते ही चैरासी गांवो के लोग प्रत्येक गांव से दस, बीस आदमी एकत्रित कर के सज धज कर के आने लगे। कुछ लोग गुड़े आकर के ठहरे थे। कुछ लोग खेजड़ली आदि गांवो में आकर आसन लगाया था। गिरधर दास के आने की प्रतीक्षा करने लगे थे।
हजारों की संख्या में बिश्नोईयों का आगम हो चुका था। सभी लोग परम धार्मिक थे। संसार का नेह नाता तोड़कर ही आ गये थे। सभी लोग मरने के लिए तैयार खड़े थे। अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। जगह जगह पर आरती साखियां गायी जा रही थी। बड़े विशाल हवन हो रहे थे। सर्वत्र उत्सव मनाया जा रहा था। मानों विवाह हो रहा हो। सभी बाराती मालूम पड़ रहे थे। सर्वत्र ज्ञान चर्चा चल रही थी। अपने देश समाज में जन्म लेकर धर्म रक्षार्थ अपने को वहां तक आया हुआ मान कर गर्व का अनुभव कर रहे थे। घर परिवार की चिंता छोड़कर कर्मयोगी की भांति वसुधैव कुटुम्बकम का नाता जोड़ लिया था। अब उनके जीवन मरण दोनों समान ही बन चुके थे।
उधर गिरधरदास खिन मन से जोधपुर पहुंचा और राजा के पास जाकर वहां की खेजड़ली की घटना को बढा चढा कर बखान किया। राजा भी कुछ क्रोधित हुआ किन्तु पुनः शांत होकर कहने लगा- महाराज! ये बिश्नोई लोग विना दंडित किये काबू में नहीं आयेंगे। ये लोग धर्म के नाम पर दिनोंदिन उच्छंखल होते जा रहे है। आप जितनी भी इन लोगों को ढील दोगे उतने ही ये लोग बिगड़ते चले जायेंगे। इसीलिए मेरा तो यही विचार है कि कल ही बहुत बड़ी सेना के साथ मुझे वहां जाने की आज्ञा दीजिये। मैं वहां के सम्पूर्ण वृक्ष कटवा लाता हूं ये लोग इन्ही वृक्षों पर गर्व कर रहे है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी इस प्रकार से गिरधरदास ने कठोर वचनों से राजा को अपने पक्ष में कर ने कोशिश की थी।
गिरधरदास! तुम ऐसा मत कहो, मैं भी तो आखिरकार राठौड़ वंशी राजपूत हूं कुछ धर्म कर्म के बारे में समझता हूं और नहीं तो मुझे समझना चाहिये। यह तो बड़ा ही नाजुक मामला है। ये लोग जाम्भोजी के शिष्य है, मर जायेंगे पर पीछे नहीं हटेंगे। मैं भला प्रजा को मार कर राज भी तो किस पर करूंगा। इस प्रकार से तो मेरा कुल ही कलंकित हो जायेगा। हमारे यहां तो जोधुपर बसाने वाले हमारे दादाजी से लेकर अब तक किसी ने भी निर्दोष प्रजा पर अत्याचार नहीं किया है। वे सदा ही वृक्षों की रक्षा करते आये है।
और हे भण्डारी ! तुम्हारी बुद्धि न जाने ऐसी क्यों हो गयी। जो मुझे भी धर्म विरूद्ध मार्ग में धकेल रही है। अतना बड़ा कार्य करने से पूर्व मैं अपनी नगरी के विद्वानों से अवश्य ही सलाह लूंगा फिर आगे की कार्यवाही करूंगा। ऐसा कहते हुए अभयसिंह ने पंडित योगी, संन्यासी, यति आदि समाज के नीति विशारद विद्वान लोगों को बुलाया और उनसे यही पूछा कि अब मुझे क्या करना चाहिये। एक तरफ तो राजनीति व्यवस्था का प्रश्न है दूसरी तरफ धर्म का प्रश्न है। इधर भण्डारी की मति मुझे पाप कर्म की तरफ खींच रही है, मुझे क्या करना चाहिये।
राजा की बात का श्रवण करके सभी ने एक मत से कहा- कि हे राजन! धर्म की मर्यादा जो तुम्हारे यहां आदि काल से चली आ रही है, उसे तोडना नहीं चाहिये। बिश्नोई लोग प्राण देने के लिए तैयार खड़े है। वे लोग केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं है, उनका कार्य तो सर्वजन हिताय है। जो कार्य सर्वसाधारण की भलाई के लिये होता है उसे ही ज्ञानी लोग धर्म कहते है। वृक्षों की रक्षा होगी तो उससे कृषि में बढोतरी होगी। अच्छी वर्षा होगी तो धन धान्य से देश परिपूर्ण होगा। किसान ही तो हमारे अन्नदाता देवता है, उन्हें आप मारने की बात मन से ही निकाल दीजिये। हम सभी लोगों का तो यही कहना है, अब आप आगे जैसा उचित समझे वैसा ही करें। इस प्रकार कहते हुए विद्वानों की सभा विसर्जित हो गयी।
गिरधर दास ने राजा के पास आकर समझाते हुए कहा- हे राजन! जिस सभा का आपने आयोजन किया था, ये तो सभी लोग आप के विरोधी है यदि ये लोग आपके तथा राज्य के सहयोगी होते तो राज्य की उन्नति की ही बात कहते। ऐसी धार्मिक ढकोसले वाली बात ही क्यों कहते।
इधर देखिए आपका किला बिना लकड़ी और धन के अधूरा पड़ा हुआ है। विरोधी राजाओं को जीत कर राज्य विस्तार का स्वप्न भी अभी अधूरा ही पड़ा हुआ है। राजा प्रजा पर शासन नहीं चला सकता तो फिर वह राजा ही कहां का है। इस प्रकार से प्रजा मनमानी कर लग जायेगी तो फिर तुम्हारा शासन ही डोल जाएगा। आपके पास बहुत बड़ा सैन्य बल, कोश तथा सुरक्षा के लिए किला भी चाहिये। इन आवश्यक वस्तुओं के अलावा भी आप के लिए मेरे जैसा हितैषी बुद्धिमान मंत्री भी होना चाहिये। किन्तु आप तो मेरी बात का महत्व भी नहीं समझ रहे है।
ये जो जिनको आप विद्वान कहते है, उनकी सभा आपने की है। इनमें से तो आपके हित की बात कहने वाला कोई नहीं है। ये लोग शास्त्र पढते है, मांग कर खाते है, झोंपड़ी में निवास करते है। हे महाराज! इन लोगों की राजनीति का क्या पता है। इन लोगों के सहारे से कहीं राजनीति चलती है। पेट भरने के सिवाय ये लोग जानते भी क्या है? इनसे आप पूछेंगे तो ये लोग तो वही धर्म का पुराना ही ढोल बजायेंगे। आज जो परिस्थिति राजा के सानें आ चुकी है इससे उनको कुछ भी लेना देना नहीं है। जिन लोगों को इसका ज्ञान है उनकी बात की आप अवहेलना कर रहे है यह आपके राज्य के लिए शुभ नहीं है।
कल तो इन बिश्नोईयों ने राजपुरूष एवं सैनिकों की परवाह नहीं की थी, वे लोग मारने के लिए तैयार खड़े थे। वह तो मैं ही था जो बड़ी ही चातुरी से वहां से निकल कर भाग आया था। ऐसे लोगों के साथ आप दया भाव किस लिए दिखा रहे है। उन्होंने राजाज्ञा की परवाह बिल्कुल ही नहीं की है। आज तो वे राजाज्ञा तोड़ते है, कल वे लोग जो आपको अपनी आमदनी से पांचवा हिस्सा देते है, वह भी नहीं देंगे। धीरे धीरे से वे लोग यह भी कहने लगेगे कि यह धरती तो हमारी है। हमारे उपर राजा और कौन होता है।
वे लोग अपना अलग ही राज्य स्थापित कर लेंगे। मैं सच्च कहता हूं कि आपके साथ से यह समझो कि विश्नोईयों का इलाका निकल ही चुका है। राजा में ही जब शक्ति नहीं होगी तो इसका लाभ उठानें से कौन चुकेगा? इस लिए समय रहते हुए उन लोगों को सबक सिखाना चाहिये। किन्तु भण्डारी! दादाजी की बांधी हुई मर्यादा का क्या होगा? क्या मैं अपने कुल मर्यादा की पाज तोड़ दूं, क्या कुल को कलंकित होने दूं? क्या ये बिश्नोई लोग धर्म के लिए ही तो शहीद होने के लिए तैयार नहीं है? क्या वे वास्तव में उद्ण्डता से आप लोगों को पेश आ रहे है?
जाम्भोजी के शिष्य उन्नतीस नियम पालन करने वाले ऐसा तो कदापि नहीं कर सकते। सच सच बताओं मुझे क्या करना है? आपको तो कुछ भी नहीं करना होगा, महाराज! कार्य तो मैं ही आपका सेवक करूंगा, आपको तो केवल आज्ञा ही देनी होगी, तथा जो आपने धन मर्यादा की, बिश्नोईयों की बात कही है इसमें कोई हानि की बात नहीं है। मैं सेना लेकर आपकी आज्ञा से जाउंगा, न तो धर्म मर्यादा टूटने की नौबत आयेगी और नहीं कुल कलंकित होगा।
ये बिश्नोई लोग धर्म भीः डरपोक है, राजा की सेना देख कर डरकर भाग जायेंगे। किसी को भी मरने मारने की नौबत ही नहीं आयेगी। हमें तो हरे वृक्ष नहीं काटना है, उनकी भावना को आहत भी नहीं करना है, यह लकड़ी की व्यवस्था तो कहीं और जगह से भी हो जायेगी। हमें तो उन लोगों को भयभीत कर के रूपये लेना है।
हे अन्नदाता! इन लोगों के पास धन बहुत है, सभी संपन्न है, वहां धरती में गड़ा हुआ धन कहीं काम नहीं आ रहा है, और यहां पर तो धन की आवश्यकता है। प्रजा का धन तो न्यायतः राजा का ही होता है। धन प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना काहे का अन्याय है। जब उनके पास धन ही नहीं रहेगा तो फिर वह राजा की अवहेलना करने का गर्व था वह भी चूर चूर हो जायेगा। धन के अभाव में वे लोग संगठित होकर उपद्रव भी नहीं कर सकेंगे। पुनः धन प्राप्ति के लिए उद्योग प्रारम्भ कर देंगे जिससे देश में खुशहाली होगी। यदि यह नीति आपको उचित लगती है तो मुझे आज्ञा दीजिये मैं अति शीघ्र ही आपका खजाना रूपयों से भर दूंगा इससे तो आपका राज्य समृद्ध ही होगा।
राजा अभयसिंह को वाक्जाल में फंसा कर भण्डारी गिरधरदास ने सेना सहित खेजड़ली गांव जाने की आज्ञा प्राप्त कर ली और हजारो सैनिकों सहित तथा दरखत काटने वाले मजदूरों को साथ लेकर गिरधरदास खेजड़ली गांव की सीमा में प्रवेश किया।
बड़ी भारी सेना के घोड़ों की टाप सुन कर वन्य जीव हरिण आदि इधर उधर भागते हुऐ सुरक्षित स्थानों की खोज करने लगे। बीच में पडने वाले गांवो के लोगों ने देखा और समझ गये कि अब जो होनहार है वही हो कर रहेगा। परीक्षा की घड़ी आ चुकी है। अब हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिये। ऐसा कहते हुए घर बार छोड़कर सेना का ही अनुसरण किया।
खेजड़ली के घने जंगल में पहुंच कर वर्तमान में जाल नाडिया जहां पर तालाब था, वह स्वच्छ जल से परिपूर्ण था। वहीं पर जाकर सेना ने डेरा लगाया। जगह जगह पर तम्बू तन गये। और भादवे महीने के काले कजरारे बादल भी गिरधरदास के हृदय की कालुष्यता देखकर रोते हुए आंसूं टपकाने लगे। बादलों की घन घटाओं ने सूर्य देवता को भी छिपा लिया था। सूर्यदेवता भी मानों उन दुष्टों को दर्शन देना नहीं चाहते थे। सूर्य अप्रकाशित होने से दिन में भी चारों ओर अंधकार ही था। क्योंकि वह काला दिन आगे आने वाला था जिसकी सूचना प्रकृति भी दे रही थी।
रात्रि का चन्द्रमा पूरे यौवन पर होने पर भी धूमिल ही था। उन दुष्ट प्राणियों को अमृत पान से मानों वंचित रखना चाहता था। कहीं कहीं एक दो तारे टिम टिमा रहे थे, मानो यही सूचना दे रहे थे कि धर्म का प्रकाश तो अब कहीं दो चार जगहों पर ही रह गया है। अन्यत्र तो सर्वत्र पाप का अंधकार छा गया है। जब कोई भयंकर विपत्ति आती है तो प्रकृति पूर्व ही सूचित कर देती है।
बिश्नोईयों की जमात रात्रि में सो नहीं सकी किन्तु वह गिरधरदास अपनी योजना को प्रातः काल ही सफल करने के लिए रात्रि में मंत्रणा कर के सो गया। बिश्नोई लोग भी पूरी रात्रि मंत्रणा करते रहे। प्रातः काल ही वह दुष्ट अपना सम्पूर्ण बल लगायेगा और निश्चित ही पेड़ काटेगा। हमें किस तरह से उसका सामना करना है। कैसे रूंखो की रक्षा करनी है?
रात्रि में पंचायत ने यही निर्णय लिया कि हम लोग प्रजा है, यह राजा का सैन्यबल है इन लोगों के पास सैन्य बल है। इन लोगों के पास शस्त्र है, हमारे पास तो कुछ भी नहीं है यदि हम इनके साथ युद्ध करते है तो जीत नहीं सकते। हिंसा से तो हिसा अधिक ही होगी। गुरू जाम्भोजी ने कहा है कि ‘‘जे कोई आवै हो हो कर ता आपजै हुइये पाणी’’ यदि हम लोग इसी सिद्धान्त को अपनायें तभी सफल हो सकते है इसीलिए जब प्रातः काल जब वह भंडारी रूंख कटवाना प्रारम्भ करे तब जितने भी रूंख काटने वाले इकऋे लोग रहेंगे और अलग अलग पेड़ों को काटेंगे तो उतने ही लोग आकर रूंखो से चिपक जायेंगे। शरीर कटा देंगे किन्तु रूंख नहीं कटेंगे। किसी प्रकार का सामना नहीं करना है, मन में सहनशीलता धारण करनी होगी कहीं ऐसा न हो कि आप लोग अत्याचार देख कर उत्तेजित हो जाये और युद्ध कर बैठे यदि ऐसा किसी को करना है तो वे कृपया पीछे हट जाये। प्रथम शांति से कार्य कर प्रातः काल भगवान भास्कर ने प्रथम किरणों का प्रसारित किया। सभी संसार के प्राणी सूर्यदेव को प्रणाम करते हुए अपने अपने कार्य में प्रवृत हुए। आज बिश्नोईयों की जमात का सदा की भांति कार्य नहीं था। कुछ विशेष कार्य करने जा रहे थे। ब्रह्ममूहूर्त में ही उठ कर सदा की भांति जाम्भोलाव तथा गंगाजल में स्नान किया, संध्या- वंदन, हवन आदि कार्य संपन्न कर के परमात्मा का ज्योति रूप में दर्शन किये। सूर्योदय के साथ ही भगवान मरिचि मालिनी को प्रणाम किया।
उधर सूर्योदय पर भण्डारी तथा उनकी सेना उठी और उठते ही अणदे के घर के सामने हरी भरी खेजड़ी के वृक्ष पर दृष्टि लगाई तथा इधर उधर घनी बनी देखकर वही से काटने का विचार किया। अच्छा मौका देखकर सशस्त्र सैनिकों को रक्षा के लिए तैनात कर दिया और स्वयं भण्डारी तथा राजकर्मचारी कुल्हाड़े लेकर सैकड़ों की संख्या में एक ही साथ वृक्ष काटने लगे। वृक्ष कटने की आवाज जमात ने सुनी जो चैरासी गांवो से आकर एकत्रित हो चुके थे।
सभी शिक्षित सिपाही की भांति कतार बध होकर खड़े हो गये थे। नारी पुरूष सभी लोग अपना जीवन समर्पण करने के लिए ही तो आये थे। इसी लिए स्वर्ग में जाने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। अभी मैं देखता हूं अपना सिर कटवा दूंगा किन्तु दरखत नहीं कटने दूंगा।
भीड़ को नियंत्रित किए हुए चैधरी लोग अपने अपने गांव से आये हुऐ खड़े थे। विना आज्ञा कोई आगे पांव भी नहीं रख रहा था। जो जिस समय योग्य था उन्हीं को भेजने की योजना थी। जमात ने देखा कि एक या दो नहीं सैंकड़ो लोग एक साथ वृक्ष काट रहे थे। इसीलिए सभी को एक साथ ही रोकना था। प्रत्येक गांव के दस पचीस आदि संख्या में गांव की जनसंख्या के अनुसार ही उन लोगों के पास भेजने का निर्णय अति शीघ्रता से लिया गया।
तुरंत चैधरियों से आज्ञा पाकर विष्णु को हृदय में धारण कर के जिभ्या से विष्णु का जप करते हुए गुरू जाम्बेश्वरजी को नमन करके वहां से एक साथ ही तीन सौ तिरेसठ स्त्री पुरूषों ने प्रस्थान किया और जहां पर वृक्ष कट रहे थे, वहां जाकर बिना कुछ बोले सुने निर्भय होकर रूंखो से चिपक गये। वहां पर राजकर्मचारी खेजड़ी पर घाव कर ही रहे थे। उसी घाव पर अपने शरीर के अंग हाथ, पांव, सिर रख दिये। जो चोट पहले लग चुकी थी आहत हो चुका था उतनी तो परमात्मा से क्षमा मांगी और आगे के लिए पेड़ों को पूर्णतया सुरक्षित कर दिया।
जो चोट पेड़ों पर पड़ रही थी, पेड़ कट रहे थे। वो चोट अब शरीरों पर पड़ रही थी। शरीर बिना कुछ हुंकार किए ही झेल रहे थे। इस बलिदान यज्ञ में सर्वप्रथम आहुति देने का श्रेय एक कुंवारी कन्या अमृता देवी को मिलता है। इसके पीछे उनकी अन्य बड़ी बहने दामा, चीमा को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इन कन्याओं की बहादुरी देख कर उनकी मां कान्हा कालीरावणी ने भी पीछे रहना ठीक नहीं समझा वह भी अपने शरीर के अनेक टुकड़े करवा कर के स्वर्ग गति को प्राप्त किया।
पुरूषों में सर्वप्रथम अणदोजी विरता वणियाल चाचोजी ऊदोजी,कान्होजी तथा किसन जी ने अपने प्राणों की आहुति खेजड़ी वृक्ष रक्षार्थ दी। इनके पीछे तो तांता ही लग गया था। एक ही क्षण में यह घटना घटित हो गयी। इसके बाद तो लोग सचेत हो गये थे। पीछे कुछ उत्साही नवयुवक गर्मदल के भी तैयार खड़े थे किन्तु उनको तो दो हाथ दिखाने का मौका ही नहीं मिला था। सभी के देखते ही देखते तीन सौ तिरेसठ शरीरों के एक साथ हाथ- पांव सिर, धड़ आदि के टुकड़े टुकड़े होकर धरती पर गिरने लगे। खून से धरती लाल हो गयी।
भण्डारी गिरधरदास ने जब तक रोकने का आदेश नहीं दिया तब तक वे कर्मचारी शरीर के टुकड़े करते ही रहे। तीन सौ तिरेसठ शरीरों के न जाने कितने टुकड़े उन दया हीन जनों ने किया होगा उसका कोई अन्तपार नहीं है। जब वे कर्मचारी एक एक शरीर को काट चुके थे फिर मूंड कर पीछे देखा तो एक या दो नहीं हजारों की संख्या में लोग खड़े है कहां तक काटोगे, ज्यूं ज्यूं काटोगें त्यूं त्यूं ही उन लोगों में जोश दुगुना चैगुना होता जायेगा।
कर्मचारी लोगों ने तो वृक्ष काटना साफ इंकार कर दिया। कुल्हाड़ी फेंक कर जोधपुर की तरफ ही भाग खड़े हुए। सैनिकों ने भी उन्हीं का अनुसरण किया। आते समय भण्डारी सब से आगे आया था किन्तु जाते समय हारा हुआ उदास मन से पीछे पीछे भागता हुआ किसी प्रकार से जोधपुर नरेश को समाचारों से अवगत करवाया।
अभयसिंह से बधाई लेते हुए कहने लगा- हे महाराज! ये तुम्हारे सैनिक तथा कर्मचारी पहले ही कायर पड़ गये, इनका दिल कमजोर है। यदि ये लोग साथ देते तो मैं अवश्य ही कार्य सिद्ध कर के आता। अब तक कुछ सैंकड़ो राज विद्रोहियों का सफाया किया है और यदि थोड़ी देर तक ये सैनिक न भागते तो मैं सदा के लिए आपका नाम रोशन कर देता, यहां पर लाशों एवं दरखतों का ढेर लगा देता।
अभय सिंह ने आश्चर्य प्रगट किया और भण्डारी को पुरूस्कार के बदले दण्डित किया और उसे पद से हटा दिया और कहा- रे दुष्ट! यह पाप तुमने किया है किन्तु मेरे शासन अधिकार में हुआ है इसलिए इसके फल का भागी तो मैं ही हूं। एक तो वो लोग है जो वृक्षों के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे रहे थे एक तूं है जो उनके प्राणों को लेने के लिए तैयार हो गया। अरे निर्दयी! कुछ तो दया करनी सीखता। तेरा हृदय कठोर पत्थर सदृश है, तूं क्या सिखेगा? इस प्रकार से कठोर वचनों से प्रताड़ित किया तथा अभयसिंह स्वयं पश्चाताप की आग में जलने लगा।
विक्रम संवत सत्रह सौ सतीयासी में भादवा सुदी मंगलवार को यह घटना घटित हुई थी। उस समय की प्रातः काल की वेला में ही आमने सामने आकर खड़े हो गये थे प्रथम तो हरे वृक्ष काटने प्रारम्भ भंडारी ने ही किये थे। उनका अनुसरण उनके कर्मचारियों ने किया था। भंडारी के चले जाने के पश्चात उन मृत शरीरों का क्रियाकर्म किया तथा बिश्नोईयों की जमात ने हार जीत का निर्णय किया कि आखिरकार जीत तो हमारी ही हुई है। इतने लोगों के सिर कट जाने पर भी रूंखो की रक्षा तो हो ही गयी। यदि ‘‘सिर साटै रूंख रहै तो भी सस्तो जांण’’ इन रूंखो की रक्षा सदा के लिए हो गयी यह कोई छोटी बात नहीं है यह जीवन धर्म के कार्य में आजाये तो जीवन सफल है। एक दिन तो इस शरीर को तो जाना ही होगा।
अभय सिंह को न तो दिन में चैन था न ही रात में। आखिर हार कर अपना दुख हलका करने के लिए एक दिन खेजड़ली गांव में आया और उस जगह को देखा जहां धरती खून से लाल हो गयी थी। उन मृत आत्माओं को प्रणाम किया और उन्हें तथा उनके माता-पिता उनके गुरू को प्रणाम किया तथा बहुत बहुत धन्यवाद दिया।
बिश्नोईयों की जमात में जाकर अपने सिर की पगड़ी जमात के चरणों में रख दी और प्रार्थना करते हुए कहा- यह मेरा सिर आपके चरणों में है चाहे आप इसे उतारे या छोड़े? मैं आपका अपराधी हूं, मैं जब तक जीवित रहूंगा तब तक पश्चाताप की आग में जलता रहूंगा। आप न्यात गंगा के समान पवित्र है मुझे उबार सकती है।
बिश्नोईयों की जमात ने अभयसिंह को क्षमा करते हुए कहा- जिन लोगों ने रूंखो की रक्षा के लिए बलिदान किया है उनका आप और हम यही उपकार कर सकते है कि फिर कभी आपके राज्य में कोई इस प्रकार से रूंख नहीं काटे। और जो कोई चोरी से काटे तो आप उसे दंडित करे। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
अभयसिंह ने उनकी यह बात स्वीकार करते हुए उन बिश्नोईयों का पक्का पट्टा लिखकर दिया और साथ ही भविष्य में पुनः ऐसी घटना तो क्या? कोई एक पता भरी नहीं काट सकेगा। इस वन को पुनः हरा भरा बनाऊंगा तथा नये नये वृक्ष लगाऊंगा ऐसी क्षमा याचना करते हुए अभयसिंह वापिस जोधपुर पहुंचा और अपने राज्य में हरे वृक्षों की रक्षा तथा जीव रक्षा का नियम बना दिया था उसका पालन कड़ाई से होता था।
तत्कालीन लेखकों ने बिश्नोई समाज की उपेक्षा की थी तथा अभी भी करते चले आ रहे है। इसीलिए यह घटना इतिहास में अपना स्थान नहीं पा सकी। इस समय पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है इसे कैसे बचाए इसके लिए तो प्रयत्नशील है किन्तु इस बलिदान घटना को महत्व कम ही दिया जा रहा है यदि इस घटना को समाज में उजागर किया जावे तो भारत में गांवो की जनता इससे प्रेरणा लेकर हरे वृक्षें के महत्व को समझेगी।
बहुत वर्षो तक यह बात उजागर नहीं हो सकी क्योंकि केवल जाम्भाणी साहित्य तक ही सीमित रही। दुर्भाग्यवश जाम्भाणी साहित्य पढने का कष्ट उन विद्वानों ने इतिहास लेखकों ने नहीं किया। विश्नोई तो कृषक समाज होने से अनपढ था, वह इस बात को जन जन तक कैसे पहुंचाये कोई उपाय नहीं दिख रहा था।
अभी ही कुछ वर्षो से आधुनिकता की लहर में कुछ विश्नोई भी पढ लिख कर जागृत हुऐ किन्तु साहित्य के प्रचार प्रसार में नगण्य है इस समय दुनियां में पर्यावरण प्रदूषित हो जाने से त्राहि त्राहि मची हुई है सभी के प्राण घुट रहे है, अंतिम अवस्था में पहुंच चुके है ऐसी अवस्था में खेजड़ली का बलिदान मानव समाज को प्रेरित करने में बहुत बड़ा सहयोगी हो सकता है। यदि हम उसे प्रचारित करते हुए घर घर पहुंचाने का प्रयास करें। यह कार्य करना ही धार्मिकता है क्योंकि यह सभी कुछ सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय है।