बूचोजी का बलिदान
विक्रम संवत सौलह से तीस से सत्रह सौ छतीस के बीच में संत केशोजी महान कवि हुए थे। केशोजी उस समय बूचों के बलिदान के प्रत्यक्ष दृष्टा थे। अपने गुरू वील्होजी की भांति इन्होंने भी खड़ाणे की अनेक साखियां विरचित की है। उन साखियों में ही यह प्रसिद्ध साखी बूचेजी की है। जिसमें कवि ने उक्त घटना का सविस्तार वर्णन किया है ''बूचो बारां करोड़''
बूचो भक्त मेड़ता परगने के पोलावास गांव का रहने वा
ला एक सच्चा विष्णु का भक्त था। उस गांव में सभी बिश्नोई भाई ही निवास करते थे। जिस गांव में विश्नोई निवास करते थे, वहां वहां रूंखो का बाहुल्य था। जो अब भी देखा जा सकता है। जहां पर रूंख अधिक होंगे वहां वर्षा भी ज्यादा होगी, जिस वजह से तालाब जल से लबालब भरे रहते थे। उन्हीं तालाबों के आस पास तथा सम्पूर्ण वन में ही वृक्ष इतने गहरे तथा घने थे कि पतों के भार से नीचे झुके हुए थे। धरती पर टिक चुके थे। कहीं पर भी धरती खाली नहीं थी। उन में भी अधिकतर खेजड़ी के ही वृक्ष थे, क्योंकि उस क्षेत्र में ओर दरखत कम ही पनपते है।
अन्य वृक्ष तो अपने नीचे धान- घास आदि को पनपने ही नहीं देते किन्तु खेजड़ी वृक्ष अपने नीचे दूसरों को पनपने में सहायता ही देते है। किसी अन्य से विरोध न होकर सहयोग ही रहता है। इतना घना वन भी इसलिए ही था क्योंकि विश्नोई लोग जाम्भोजी के वचनों को पालने वाले थे '' जीव दया पालनी, रूंख लीलो नहीं घावै'' इस नियम का अक्षरस: पालन करते आ रहे थे, इसलिए न तो स्वयं ही काटते थे और न ही दूसरों को काटने देते थे।
उस समय विश्नोई केवल अपने बलबूते पर ही वृक्षों की रक्षा कर रहे थे किन्तु राजकीय सहायता बिना तो वृक्षों की रक्षा करना उनके लिए कितना कठिन था, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। बिश्नोईयों के गांव भी प्राय: एक ही जगह पर हुआ करते थे। वे अपना समूह बना कर आस पास के ही जंगलों में बस जाया करते थे। मेड़ते परगने में उस समय तथा अभी भी लगभग पन्द्रह बीस गांव बिश्नोईयों के थे। वे सभी एक ही जंगल में बसे थे। इसीलिए वन की हरियाली दूर दूर तक बड़ी ही सुहावनी लग रही थी। उससे बाहर तो अज्ञानी लोगों ने वृक्ष काट लिये थे। जब कर्भी इंधन व इमारती लकड़ी की आवश्यकता पड़ती थी सभी लोग विश्नोईयों के गांवो की सीमाओं में ही दृष्टि लगाये रखते थे। उनसे रक्षा बिश्नोई करते थे।
कुछ वस्तुएं पूजनीय होती है, जिनमें एक ईश्वर विष्णु की भक्ति- उपासना करना, गुरू जाम्भोजी महाराज, एवं उनके वचन- शब्द, गऊ जो माता तुल्य दूध देती है, वन्य जीव, हरिण, मयूर आदि तथा खेजड़ी वृक्ष जो तुलसी मानी जाती है। यदि इन पूजनीय वस्तुओं की हानि होती है तो बिश्नोई लोग कदापि सहन नहीं कर सकते थे।
रैण और राजोद गांव भी पोलावास गांव के निकट ही पड़ते है, वहां पर उस समय जाम्भोजी के शिष्य राव दूदा के पौत्र रहा करते थे। हालांकि दूदा तो परम धार्मिक था किन्तु उनकी औलाद उस प्रकार से धार्मिक नहीं थी। वे ही लोग उस समय वहां पर जागीरदार थे। मेड़ते का राज्य तो उनसे छिन गया था क्योंकि उन्होंने जाम्भोजी के वचन नहीं माने थे। अब ये लोग यहीं पर ही रह कर अपने दिन व्यतीत कर रहे थे किन्तु अपनी दुष्टता नहीं छोड़ी। दूदा तो सुगरा था गुरू के वचनों को मान कर अपने राज्य में हरे वृक्ष न काटने का नियम बनाया था। किन्तु उनकी औलाद इतनी जल्दी ही उन नियमों को भूल चुकी थी। जहां तहां भी हरे-सूखे वृक्ष दिखाई दिये वही से कटवाकर मंगवाने प्रारम्भ कर दिये। हरे वृक्ष काट काट कर के रैण और राजोद का वन तो प्राय:खाली कर दिया था। अब बारी पोलावास के जंगल की भी बारी आ चुकी थी। लगभग होली के आस पास के दिन थे और किसान अपनी फसलें खेतो से समेट कर घर आ चुके थे। होली की खुशियां मनाने की तैयारियां चल रही थी। वन-खेत तो प्राय: सूना हो चुका था। उस शून्य जन रहित वन में उस दूदे की औलाद ने घार लगा कर अनेक खेजड़ी के वृक्ष काट लिये और काट कर एकत्रित कर लिये,तथा बैलगाडिय़ो में भर कर वहां से उठा कर ले भी गये। ग्वालों द्वारा पोलास के बिश्नोइयो को यह खबर मिली कि अपने ही वन से रूंख कट गये है एक तरफ से धरती खाली हो गयी है। यदि इसी प्रकार का क्रम चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं कि सम्पूर्ण वन कट जायेंगे। गांव के लोग एकत्रित हुऐ और वन में जाकर जहां जहां पर वृक्ष कटे थे वहां वहां पर पेड़ो के मूल देखे तो बात सच्ची ही निकली। वहीं से पंचो ने चिट्ठी लिख कर चारो ओर बिश्नोइयो के गांवो में भेजी और स्वंय उन लोगो ने पैरो के निशान देखे और पैर के निशाने पर आगे चले तथा राजोद गांव पहुंच गये। वहां जाकर देखा तो वृक्षो का ढेर लगा हुआ था। मानो होली जलाने के लिये ही लगाया हो। खोजी ने पैरो के निशान देख कर यह बतलाया कि ये तो नरसिंघदास ठाकुर के ही आदमी है। जिनमें करम चंद दुरजण आदि प्रमुख है,इन्हीं लोगो ने यह अन्याय किया है। जमात एकत्रित हो चुकी थी। सभी ने कहा- वास्तव में यह तो बड़ा ही पापी जागीरदार है इसी पाप के कारण तो इनका मेड़ता छिन गया है। वहां पर बिश्नोई ही नहीं किन्तु वहां के स्थानीय मान्यता प्राप्त लोग ब्राह्यण,बनिया,राजपूत,आदि एकत्रित हुऐ थे। पंचायत होने लगी थी किन्तु बुद्धि हीन उन लोगो ने नरसिंघदास का ही साथ दिया। बिश्नोइयो का पक्ष नहीं लिया। क्योंकि उनको यह भय था कि कहीं ग्राम पति ठाकुर नाराज हो गया तो हमें यहां से निकाल देगा इसलिये स्वार्थ के वशीभूत होकर अन्याय का ही साथ दिया। बिश्नोइयो के प्रधान ने भरी सभा के बीच में खड़े होकर कहा- यदि तुम लोग अन्याय का साथ देना चाहते हो तो भले ही दो,किन्तु ये दरख्त तो इस नरसिंघदास ने ही कटवाये है। हम पीछे नहीं हटेगें।
'सिर धन आवै सिर साटै,सिर साटै सनमान,
सिर साटै लाभै सुरग,जे सिर दीनों जाय।
हम अपना बलिदान दे देगें किन्तु इस प्रकार से वन का विनाश नहीं होने देगें। वहां पर उपस्थित जन समूह ने इस बात पर आश्चर्य प्रगट करते हुऐ कहा-कि यह असंभव है। क्या कभी कोई रूंखो के बदले भी अपने प्राण निछावर कर सकता है?कदापि नही। हम लोग भी धार्मिक अनुष्ठान करते है,पूजा पाठ यज्ञ उपासना,आदि यही धार्मिकता है। कही कोई वृक्षो के बदले मर जाना भी क्या कोई धार्मिकता है? हे बिश्नोइयो क्यों व्यर्थ में अपने प्राणो से हाथ धो रहे हो।
बिश्नोइयो ने सम्बोधन कर के कहा-हम लोग केवल कहते ही नहीं है कर के भी दिखाते है। धर्म तो केवल कहने सुनने की वस्तु नहीं है,वह तो आचरण का विषय है। हमारे गुरु जम्भेश्वर जी ने हमें यही सिखाया है कि प्राणो को देकर भी हरे वृक्षों की रक्षा करो। एक या दो के शरीर भले ही चले जाये किन्तु उसके बदले में धर्म की रक्षा होगी तो उससे असंख्य प्राणियों की रक्षा होगी। यही सब से बड़ा परोपकार है।
यदि ऐसी बात है तो हम सभी लोग यहां देख रहे है तुम्हारे बीच में से कौन मरने के लिये तैयार है। किस व्यक्ति को घर परिवार,स्त्री बच्चे प्यारे नहीं है?कौन व्यक्ति ऐसा है जो शरीर को इस धर्म रक्षार्थ सहर्ष सौंप देगा। शस्त्र की पैनी धार के सामने स्थिर कौन रहेगा? यदि ऐसा कोई है तो अवश्य ही सामने आये,और अपनी शूरवीरता दिखाये।
ऐसी वार्ता श्रवण कर के बूचोजी भक्त बीच में से निकल कर सामने आकर खड़े हो गये। बूचोजी ने अभी ही यौवनावस्था में पदार्पण किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि उड़सर गांव में विवाह हुआ था,और थोड़े ही दिन पूर्व अपनी पत्नी आदि का मोह माया छोड़कर सभी के बीच में निर्भय होकर खड़ा था।
बूचोजी ने ललकारते हुए कहा- यह मैं शहीद होने के लिए तैयार खड़ा हूं आइये, कौन आकर मेरा तमाम करेगा। मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं बिल्कुल इस जगह से हिलंूगा नहीं, सामने हाथ उठाऊंगा नहीं, मेरा सिर धड़ से अलग कर दीजिये। नहीं अन्य कोई मेरा भाई बंधु विरोध करते हुए आपका सामना करेगा। आप लोगों में से जो अपने को शूरवीर समझता है वह सामने आ जाइये। मेरी एक शर्त है वह भी सुन लो मेरे बलिदान हो जाने के बाद फिर कभी भी तुम्हारे सम्बन्धियों से कोई भी हरा वृक्ष नहीं काटेगा और नहीं कटवाने की प्रेरणा ही देगा। यह जो वृक्ष कट गये है इनकी जगह पर तुम्हे दूसरे रूंख लगवा कर देने होगे यही रूंख कटने की घटना इस इलाके में अंतिम होनी चाहिये। इसलिए मेरा शरीर तुम्हारे समर्पित है। मेरा सिर काट लीजिये परन्तु रूंख नहीं काटना।
राजोद गांव के ठाकुर नरसिंघदास की तरफ से बूचे जी का सिर छेदन के लिए रतनें को हाथ में नंगी तलवार देकर भेजा गया और कहा- बिना कुछ सोचे समझे, बिना दया दिखाये, तुम जाकर उस सभा के बीच में खड़े व्यक्ति का सिर काट लो, मैं देखता हूं कि कैसे नहीं कोई विरोध करता है, जहां थोड़ा भी विरोध करते हुए यदि देखा गया तो हम समझेंगे कि यह इनका धर्म नहीं पाखण्ड है। यदि ये लोग पाखण्डी सिद्ध हो जायेंगे तो इन्ही सभी को यहां से भगा देंगे।
बूचो जी ने हाथ जोड़ कर भगवान विष्णु का नाम स्मरण किया और गुरू जाम्भोजी से प्रार्थना की कि हे गुरू देव! अब तो इस पंथ के आप ही रखवाले है, यह मेरी तथा समाज की परीक्षा की घड़ी आ गयी है। इस अवसर पर आप मुझे शक्ति प्रदान कीजिये, ताकि मैं शांति पूर्वक धर्म का निर्वाह कर सकूं। इस शरीर की मुझे चिंता नहीं है किसी भी प्रकार से धर्म की रक्षा हो जाये यही मैं चाहता हूं।
रतने ने सभी के देखते ही देखते बूचे जी के शरीर पर नंगी तलवार से वार किया और सिर धड़ से अलग होकर धरती पर गिर पड़ा। खून की धारा बह चली। धरती माता के एक सपूत ने अपने खून से माता के मस्तक पर तिलक किया था। जिससे यह धरती भी गौरवता को प्राप्त होकर सदा के लिये उस मरू भूमि का मस्तक ऊंचा कर दिया। ऊपर आकाश में सूर्य देवता देख रहे थे। उस दिन तो भगवान सूर्य कुछ अधिक ही प्रसन्न हो रहे थे। मानों आशीर्वाद देने के लिए किरण सीधी धरती पर उतर कर के आ रही थी। देवता भी अत्यधिक प्रसन्न होकर मौसम को सुहावना बना दिया था। उपस्थित जन समूह ने भी हर्ष की ध्वनि प्रगट करके बूचोजी की जय जय कार की, चारों ओर से धन्य धन्य की ध्वनि गूंज रही थी।
बूचोजी के प्राण तो शरीर से विलग होकर स्वर्ग को प्रस्थान कर गये थे और जाते जाते धर्म की मर्यादा को बांध गये। फिर कभी भी मेड़ता की अधिकार भूमि में हरे वृक्ष नहीं काटे गये। नरसिंघदास ने आकर जमात से क्षमा याचना मांगी और निवेदन किया कि आज से मैं और मेरा सम्पूर्ण परिवार जाम्भोजी की आज्ञा का पालन करेगा। आप बिश्नोई लोग मेरे बड़े गुरु भाई है। जो भी कार्य करूंगा,मैं आप लोगो से पूछ कर ही करूंगा। मुझे क्षमा प्रदान कीजिये।
अब मुझे वास्तविकता का पता चल गया है। हरे वृक्ष तथा वन्य जीव कितने हमारे लिये परोपकारी है। इन को काट बाढ कर हम कभी सुखी नहीं हो सकते,इसलिये आज से मेरी यह प्रतिज्ञा होगी कि मैं कभी भी न तो स्वंय रूंख काटूगा और नहीं दूसरो को काटने दूंगा। आज बूचे जी के बलिदान ने मेरी आंखे खोल दी है।
यह घटना वि संवत् सत्रह सौ के होली के पश्चात चेत वदि तीज को घटित हुई थी। उस दिन हस्त नक्षत्र मंगलवार था।
केशोजी कहते है कि सुकर्म कर के बूचोजी स्वर्ग में पहुंच गये थे। यह वार्ता मैंने विचार पूर्वक सच्ची कही है। इसे सुन कर लोगो के मन में धार्मिक भावना उदय हो सके यही मेरा उद्देश्य है।