करमा और गौरा का बलिदान :
करमा और गौरा दो बहिनों ने खेजड़ी वृक्ष की रक्षा के लिये अपना बलिदान सहर्ष दिया था। इस घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा वील्होजी ने साखी में इस घटना का भाव पूर्ण यथार्थ वर्णन किया है। वह साखी इस प्रकार है-
''साखी छन्दा की''
कलि मां कलम फिरी, अब छोड़ो मेरा।
आलमा सिंवरिये जुग चौथे फेरा।
जुग चौथे विसन मिलियो, हाथ जप माली जपै।
सांध पूगी लेवे लेखो, हुकम हासल रिव तपे।
छेद कालिग चड़े दुल
दुल, गिणै, मेर न तेरिया।
अलख लेखो गुरु जंभ पिछाणियो,कली मां कलम फेरियां।1।
गाफिल भूल रह्या, गुरु म्हारे साध चिताया।
सुर तेतीस मिल, सब सहज समाया।
सहज सुर तेतीस मिलिया, जोर जरब बसेखिया।
एक ओंकार ध्यावो, सर्ब सुख बसेखिया।
खरा खोटा परख लेसी, खलक तुल बिन तोलिए।
पोह बिन क्यूं रंग राचा, मोह गाफिल भूलिए।2।
हंसो राजा मोख लहै, क्यूं सुकरत करियो।
मन संतोष करो, कुछ अजर भी जरिया।
अजर जरियो जीव काजै, पंथ होय सुहेल हो।
संसार राता फिरे गाफिल, अति होय दुहेल हो।
काया मसीती मन मुलाणो सिदक एक धियाइये।
पढि कतेब कुराण करणी, मोख हासं पाइये।3।
काया रतन सरीखी, पहरेलो मोमिण कोई।
पहर जिण करण कियो, गुरु म्हारो दाता भी सोई।
दाता भी सोई पोह पूरो, सूरे सभा पंहुचाइये।
मिनख रूपी फिरे कलि मां, भेद बिरला पाइये।
दीन और दुनिया को साहिब, विसन करे सो होयसी।
पार गिराय पंहुचाये जम्भराय, रतन काया देवसी।4।
घरि चल मिमलड़ा, कलि कोयल आई।
कलि पर कोट तजो, पार पंहुचो मेरा भाई।
पंहुचो सब भाई पहे पूरो, छोड़ मन दुभांतिया।
चौसल के अम्बारायो, के खड़ी बेकुंठिया।
देव दाता देऊं संदेसो, खड़ी दरगे मोमणा।
उरवारि निहचे चले कोय नाही, पार चले मेरा मोमणा।5।
पार गिराय वसा,े जित म्हारो सारंगपाणी।
खेवट आप हरि, नाहरसिंघ विवाणी।
नारसिंघ रूप विवाण बस, देख जीवड़ो परहरे।
जीव जगात दसुंध पूजा, साध मोमिण उधरै।
पांच, सात नव कोडि़ बारा, बहोड़ नाहीं फेरवौ।
अजर अमर कर जम्भराय, पारगिराय बसैरवो।6।
जोधपुर के अन्तर्गत रैवासड़ी-रामासड़ी गांव की रहने वाली करमा और गौरा दोनो ही गुरु देव के बचनों का पालन करते हुऐ धर्म पर दृढ रहने वाली थी। एक दिन अबस्मात् गौरा करमा के घर पहुंची। और कहने लगी- हे करमणी। अपने को संसार में ही रह कर जीवन यापन करना है किन्तु जीवन जीना कठिन है। हमें अत्यन्त संभल कर के ही चलना है। अन्यथा एक पैर भी चूक गया तो हम गिर जायेगी। और न जाने कहां जाकर गिरेगी,फिर संभलना कठिन होगा।
वैसे यह शरीर जो नाशवान ही है,इसका तो डर नहीं है। एक यह शरीर टूट जायेगा तो दूसरा मिल जायेगा। वह चाहे किसी पशु-पक्षी योनि का हो परन्तु खतरा तो इस शरीरस्थ जीवात्मा का है। उसकी कही दुर्गति नहीं हो जाये। कर्मानुसार कही नीच योनि में चला गया तो फिर दुख का कोई आर पार ही नहीं है।
हे करमा !इसलिये तो मेरा तो कहना बस इतना ही है कि इस संसार में जीवन जीते हुऐ,कार्य करते हुऐ इस मन को तो अजर अविनासी परमात्मा के अमर धाम की तरफ ही लगा दे। अमरापुर में जाने के लिये वही कार्य सुचारू रूप से करो,जो जाम्भोजी ने फरमाया है। अपनी मान मर्यादा,गुरु का मार्ग तथा सतगुरु को पहचान कर के सचेत हो जा। इस समय सचेत होने का अवसर आ चुका है। सम्पूर्ण जीवन की कमाई का फल उपस्थित हो चुका है।
हे करमा! यह हमारी परीक्षा की घड़ी उपस्थित हुई है। यदि हम इस परीक्षा में अनुतीर्ण हो गयी तो फिर हमारा धार्मिक अनुष्ठान केवल ढकोसला मात्र ही था। इसलिये सचेत होकर बहुत ही सावधानी से पैर आगे बढना है।
हे करमा ! विष्णु को नाम द्वारा स्मरण करो। वही विष्णु ही सर्व देवाधीदेव है तथा जगदगुरु जाम्भोजी भी वही है। उन्ही को मन में रखते हुऐ हमे आगे बढना है,कहीं ऐसा न हो कि इस शुभ अवसर पर कोई सांसारिक मोह माया की तरफ चंचल मन न चला जाये। दूसरी सावधानी यह भी रखनी होगी कि वह भक्ति,ज्ञान,कुल,धन,बल आदि का अहंकार किंचित मात्र भी न आ जाये। यदि ऐसा हुआ तो हमारा कर्तव्य पूर्णता से निभ जायेगा। दूसरी बात का ध्यान यह भी रखना होगा कि कठिन से कठिन विपति,अनर्थ में भी किसी को कठोर वचन गाली-गलौच न कहे। यदि तुम्हारे उपर कोई अन्याय करता भी है तो उसे शांत करने के लिये उसके सामने अपना सिर मांड दीजिये,वह मर जायेगा और यदि ईंट का जबाब पत्थर से देगे तो कलह कभी शांत नहीं होगी और धर्म अनुष्ठान में बाधा उपस्थित होगी।
इन्हीं सभी समस्याओ के समाधान के लिये हे करमा! कभी भी ओछी बाणी न बोले, सदा ही हित कर प्रिय बोले। करमा ने गौरा की बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुनी और कहने लगी-हे गौरा। आज तू इस प्रकार की बाते क्यों कह रही है? आखिर इस समय कौन सी विपति आ पड़ी है जो इस प्रकार की बाते तू कहने को उतावली हो रही हो।
हे करमां ! तुम तो बहुत ही भोली एवं अनजान हो। तुम्हें यही मालूम नहीं है कि कल के दिन अपने ही इस प्रिय गांव की सीमा में दुष्ट हत्यारो का प्रवेश हो चुका है। वे लोग राजमद,धनमद,एवं बलमद से अन्धे हो रहे है। उन्होंने अपने गांव के खेतो मे अपने ही हाथ से पाल-पोष बड़े किये हुऐ पुत्रवत प्रिय वृक्षों को काट रहे है। तुम्हें यह पता हो जाना चाहिये कि इस गांव के ठाकुर ने ही इन लोगो को कुल्हाड़ी देकर भेजा है
हमारे बिश्नोई भाई बन्धुओं ने इस का डट कर विरोध किया है। अब तक तो एक टहनी भी काटने नहीं दी है। उन लोगो के साथ संग्राम हुआ है। उस परस्पर के युद्ध में अब तक तो धर्म की ही विजय हुई है। जितने भी हमारे लोग है वे सभी मरने के लिये तैयार है। यह निश्चित हो चुका है कि कोई भी पीछे नहीं हटेगा। चाहे सभी को प्राणो की बाजी लगानी क्यों न पड़ जाये। हमारे धर्मवीर भाई बन्धु पुत्र आदि सभी जब इस संसार को तिनके की तरह तोड़ कर जाने के लिये तैयार खड़े हुऐ है तो हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिये।
स्त्री तो सदा ही धर्म के कार्य में पुरूष से दो कदम आगे ही रही है। सदा ही अन्याय का डटकर विरोध किया है। राम के साथ सीता ने कदम से कदम मिलाया था। द्रोपदी ने भी तो पाण्डवो को विजय श्री दिलवायी थी और दुष्टो का विनाश करवा कर के धर्म की रक्षा की थी। वे भी तो सभी नारिया ही थी। उसी प्रकार से हम भी तो उन्हीं की संतान है तो भला पीछे क्यों रहे। यदि हम उन दुष्टो के सामने जाकर सत्याग्रह नहीं करेगी तो हमारा तो वंश ही नष्ट हो जायेगा,साथ ही साथ धर्म भी चला जायेगा और सब से बड़ी हानि तो यह होगी कि हमारे सभी दरखत कट जायेगें। इनमें एक भी नहीं बचेगा।
ये हमारे दरखत ही नहीं रहे तो हमारा जीवन ही दूभर हो जायेगा। इन के बिना तो हम जी भी नहीं सकते और नहीं जीना चाहेगे। इसलिये हे करमा! मैं तो संसार की मोह माया छोड़ कर ही घर से चली थी। अब मुझे मरने में किंचित भी भय नहीं है। पंथ की डोरी न टूटे,आगे से आगे जुड़ती रहे। इसलिये इस समय हमें कुछ करना ही होगा। मैंने तो इस संसार से नाता तोड़ लिया है और स्वर्ग की तरफ एक पांव आगे बढा दिया है। पीछे का सम्बन्ध टूटते ही आगे का स्वत: ही जुड़ जायेगा। मेरे हृदय में तो विष्णु नाम का स्मरण ही है। उसी को मैंने धारण किया है। वही मेरे सच्चे प्रेरक है जो भी मुझे से करवायेगे वही अच्छा ही होगा। इसलिये हे करमा! तूं भी इस मार्ग पर चलने के लिये तैयार होजा।
हे करमा ! मैं जब इस कार्य के लिए घर से चली थी तो उस समय परम पिता परमात्मा का स्मरण करते हुऐ चली थी। यह मैं तुम से सच कह रही हूं कि यहां पहुंचते पहुंचते मेरे शरीर में सत बहुत ही आ चुका है वही परमात्मा ही शक्ति दाता है इसमें मेेरा अपना कुछ भी नहीं है। अब तो मुझे इस धर्म के मार्ग से पीछे कोई भी मोह जाल नहीं हटा सकता। इस प्रकार से कहते हुऐ गौरा ने करमां को ज्ञान तत्व समझाया और धर्म का अकुंर उत्पन्न करके अपने साथ चलने के लिये तैयार कर ली।
करमा भी गौरा के साथ ही घर से निकल कर सहर्ष चल पड़ी। करमा भी गौरा की तरह अस शुभ अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। होनहार को मो कोई मिटा नहीं सकता। जो कुछ भी अपने भाग्य या कर्मो में लिखा हुआ है,वह लेख तो अमिट है। उसे तो सुख या दुख द्वारा भोग कर ही मिटाया जा सकता है। भूख की निवृति तो भोजन द्वारा ही की जा सकती है,दबाने से दबेगी नही। कर्मो का फल दुख सुख भी तो दबाने से नहीं दबता,किसी न किसी रूप में प्रगट हो ही जाता है।
दोनो ओर से रणबांकुरे युद्ध के लिए तैयार खड़े थे। यदि करमां और गौरा उनके बीच में न आती तो न जाने कितना अनर्थ हो जाता। कितनी माता बहिनें विधवा हो जाती और न जाने कितने बच्चो के सिर से पिता का भाई का साया उठ जाता। करमा गौरा दोनों ही हरि का स्मरण करते हुए दोनों पक्षों के बीच में जाकर खड़ी हो गयी। उधर से ग्राम पति ठाकुर के अनुचर जो वृक्ष काटने की तैयारी में थे।
कहने लगे- ये औरतें यहां क्यों आ गयी? इनको यहां से भगा दो। यहां पर कुछ ऐसा हो सकता है जो इन से देखा नहीं जा सकता जो इन से देखा नहीं जायेगा, ये कायर है। इधर वृक्ष रक्षार्थ खड़े हुए बिश्नोई कहने लगे- हे माता बहनो! तुम यहां से चली जाओ, तुम्हारा कुछ भी यहां पर कार्य नहीं है। हम पुरूष लोग यहां पर उपस्थित है, अपने प्राणों की बाजी लगा कर के भी वृक्षों की रक्षा करेंगे। एक भी दरखत नहीं कटने देंगे।
वे दोनों देविया कहने लगी- आप पुरूष लोग पीछे हट जाओ, यह शुभ अवसर तो हमारे लिये ही आया है। जब तक हम आगे नहीं बढेगी, तब तक धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। ऐसा कहते हुए दोनों आगे बढ चुकी और उन हत्यारों के सामने जाकर निर्भय भाव से खड़ी होकर कहने लगी- आप लोग इस प्रकार की दुर्भावना छोड़ दीजिये और वापिस अपने घर लौट जाइये। जब तक हमारे शरीर में प्राण रहेगा तब तक तुम लोग वृक्ष तो क्या एक पता भी नहीं काट सकते। हमें मार कर भलें ही यह सम्पूर्ण वन काट लेना।
ठाकुर के अनुचर लोग कहने लगे- यदि हम काटेंगे तो तुम क्या कर सकती हो? हम अपना सिर दे सकती है, हमें रूंख कटते हुए देखने में अपने सिर से भी ज्यादा पीड़ा होती है, इसलिए सहर्ष अपना तन वृक्षों की रक्षार्थ दे देगी। वे भ्रमित अन्यायी लोग कहने लगे- यदि ऐसा है तो हम भी देखते है। तुम किस प्रकार से अपना सिर सौंप देती हो। ऐसा कहते हुए उन्होंने एक साथ दो खेजड़ी के पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलानें प्रारम्भ किये।
करमां और गौरां ने भी अन्त समय जान कर ओम की ध्वनि करते हुए मन को परमात्मा के साथ जोड़कर अपने शरीर को ले जाकर स्वयं ही उन वृक्षों के चिपका दिया। कुल्हाड़ी की चोट वृक्ष के नहीं लगने दी। अपने ही शरीर पर झेल ली। कुल्हाड़ी की धार से शरीर का एक एक अंग कटकर गिरने लगा, किन्तु अपने शरीर से रूंख प्यारे है, इसीलिए उनको नहीं कटने दिया। खून की धारा बह चली, वहां की धरती लाल हो गयी। सूर्य देवता साक्षी थे तथा वहां पर उपस्थित जन समूह भी साक्षी थी। दोनों वीरांगनाओं ने देखते ही देखते शरीर के टुकड़े करवा लिये फिर भी अपने लक्ष्य से नहीं हटी। ऐसा देख कर दोनों ओर से हा हा कार होने लगा किन्तु अब क्या हो सकता था, बाण तरकस से निकल चुका था। उन दोनों की आत्मायें तो वहां से प्रयाण कर चुकी थी। पीछे शरीर ही अवशेष मात्र टुकड़ों के रूप में पड़े हुए थे।
इस प्रकार शांति पूर्वक स्वेच्छा से मरण सुन कर, देख कर उन दुष्ट जनों का पत्थर सदृश हृदय भी पिघल गया और वहां पर सभी द्रवित होकर आंसू बहाने लगे और बिश्नोईयों से आकर क्षमा प्रार्थना करने लगे। कहने लगे- हम अपराधी है, आप लोग जो चाहो सो करो, हमारा सिर आपके आगे झुका हुआ है। इसे काट लीजिये, तभी हमें शांति मिल सकेगी। अन्यथा हम पश्चाताप की आग में जीवन भर जलते रहेंगे तो भी हमारा पाप नहीं उतरेगा।
बिश्नोई कहने लगे महाशय जी! आप अपना शिर अपने पास ही रखिऐ। हमें इन शिरों की आवश्यकता नहीं है, जिन शिरों में ज्ञान नहीं है, ऐसे मस्तको से हम लेकर भी क्या करेंगे? और नहीं तुम्हारा मस्तक काट लेने से हमारी माता- बहिनों का पुन: जीवित होने का कारण बनेगा किन्तु इसके बदले में हम यह चाहेंगे कि हमारे गुरू जाम्भोजी की बताई हुई मर्यादा का धर्म का पालन हो आप लोग कभी भी इसमें अड़चन न करें। फिर कभी इस प्रकार से वन काटने का जीव हत्या करने का दु:साहस न करे जिन्होंने हंसते हुए वृक्ष रक्षा हेतु अपने प्राण दे दिये उनका दिया हुआ बलिदान व्यर्थ न जाये।
हम आप से यही चाहेंगे कि आप राजा की तरफ से लिखित प्रमाण पत्र प्रदान करें कि हम फिर कभी ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे जीव हत्या एवं वृक्षों का काटना हो। गांव पति ठाकुर ने बिश्नोईयों की बाते स्वीकार की और जीव हत्या एवं वृक्ष न काटने का पका पट्टा लिख कर दिया।
वील्होजी साखी में लिखते है कि करमा और गौरां ने जैसा गुरू जाम्भोजी ने फरमाया था वैसा ही किया। आये हुए अवसर का लाभ उठाया। दूसरे जीवों की भलाई के लिए अपने प्राण समर्पण कर दिये। इससे बढकर और परोपकार क्या हो सकता है। वृक्षों की रक्षा के लिए जिन्होनें अपना जीवन बलिदान दिया है हमें भी नके बताये हुए मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।
करमा और गौरां ने विश्नोई पंथ का नाम उज्जवल किया। प्रेम तत्व का पसारा किया। करमां और गौरां खेजडिय़ों के लिए बलिदान हो गई वह भी रेवासड़ी के चौराहे पर सम्पूर्ण जमात के सामने। यह घटना वि.सं. सौलह सौ इकसठ के ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष द्वितीया तिथि और वार शनिवार के दिन घटित हुई थी।
करमां और गौरा तो धर्म रक्षार्थ बलिदान देकर अमर हो गयी और सदा सदा के लिए रूंखो की रक्षार्थ प्रमाण प्रस्तुत कर गयी। निश्चित ही ऐसे लोगों की दुर्गति नहीं हुआ करती। गुरू की कृपा से वील्होजी कहते है कि मैंने यह साखी सुनाई है और करमां और गौरां का बलिदान ही मेरी इस प्रेरणा का स्रोत है।
करमा और गौरा दो बहिनों ने खेजड़ी वृक्ष की रक्षा के लिये अपना बलिदान सहर्ष दिया था। इस घटना के प्रत्यक्ष दृष्टा वील्होजी ने साखी में इस घटना का भाव पूर्ण यथार्थ वर्णन किया है। वह साखी इस प्रकार है-
''साखी छन्दा की''
कलि मां कलम फिरी, अब छोड़ो मेरा।
आलमा सिंवरिये जुग चौथे फेरा।
जुग चौथे विसन मिलियो, हाथ जप माली जपै।
सांध पूगी लेवे लेखो, हुकम हासल रिव तपे।
छेद कालिग चड़े दुल
दुल, गिणै, मेर न तेरिया।
अलख लेखो गुरु जंभ पिछाणियो,कली मां कलम फेरियां।1।
गाफिल भूल रह्या, गुरु म्हारे साध चिताया।
सुर तेतीस मिल, सब सहज समाया।
सहज सुर तेतीस मिलिया, जोर जरब बसेखिया।
एक ओंकार ध्यावो, सर्ब सुख बसेखिया।
खरा खोटा परख लेसी, खलक तुल बिन तोलिए।
पोह बिन क्यूं रंग राचा, मोह गाफिल भूलिए।2।
हंसो राजा मोख लहै, क्यूं सुकरत करियो।
मन संतोष करो, कुछ अजर भी जरिया।
अजर जरियो जीव काजै, पंथ होय सुहेल हो।
संसार राता फिरे गाफिल, अति होय दुहेल हो।
काया मसीती मन मुलाणो सिदक एक धियाइये।
पढि कतेब कुराण करणी, मोख हासं पाइये।3।
काया रतन सरीखी, पहरेलो मोमिण कोई।
पहर जिण करण कियो, गुरु म्हारो दाता भी सोई।
दाता भी सोई पोह पूरो, सूरे सभा पंहुचाइये।
मिनख रूपी फिरे कलि मां, भेद बिरला पाइये।
दीन और दुनिया को साहिब, विसन करे सो होयसी।
पार गिराय पंहुचाये जम्भराय, रतन काया देवसी।4।
घरि चल मिमलड़ा, कलि कोयल आई।
कलि पर कोट तजो, पार पंहुचो मेरा भाई।
पंहुचो सब भाई पहे पूरो, छोड़ मन दुभांतिया।
चौसल के अम्बारायो, के खड़ी बेकुंठिया।
देव दाता देऊं संदेसो, खड़ी दरगे मोमणा।
उरवारि निहचे चले कोय नाही, पार चले मेरा मोमणा।5।
पार गिराय वसा,े जित म्हारो सारंगपाणी।
खेवट आप हरि, नाहरसिंघ विवाणी।
नारसिंघ रूप विवाण बस, देख जीवड़ो परहरे।
जीव जगात दसुंध पूजा, साध मोमिण उधरै।
पांच, सात नव कोडि़ बारा, बहोड़ नाहीं फेरवौ।
अजर अमर कर जम्भराय, पारगिराय बसैरवो।6।
जोधपुर के अन्तर्गत रैवासड़ी-रामासड़ी गांव की रहने वाली करमा और गौरा दोनो ही गुरु देव के बचनों का पालन करते हुऐ धर्म पर दृढ रहने वाली थी। एक दिन अबस्मात् गौरा करमा के घर पहुंची। और कहने लगी- हे करमणी। अपने को संसार में ही रह कर जीवन यापन करना है किन्तु जीवन जीना कठिन है। हमें अत्यन्त संभल कर के ही चलना है। अन्यथा एक पैर भी चूक गया तो हम गिर जायेगी। और न जाने कहां जाकर गिरेगी,फिर संभलना कठिन होगा।
वैसे यह शरीर जो नाशवान ही है,इसका तो डर नहीं है। एक यह शरीर टूट जायेगा तो दूसरा मिल जायेगा। वह चाहे किसी पशु-पक्षी योनि का हो परन्तु खतरा तो इस शरीरस्थ जीवात्मा का है। उसकी कही दुर्गति नहीं हो जाये। कर्मानुसार कही नीच योनि में चला गया तो फिर दुख का कोई आर पार ही नहीं है।
हे करमा !इसलिये तो मेरा तो कहना बस इतना ही है कि इस संसार में जीवन जीते हुऐ,कार्य करते हुऐ इस मन को तो अजर अविनासी परमात्मा के अमर धाम की तरफ ही लगा दे। अमरापुर में जाने के लिये वही कार्य सुचारू रूप से करो,जो जाम्भोजी ने फरमाया है। अपनी मान मर्यादा,गुरु का मार्ग तथा सतगुरु को पहचान कर के सचेत हो जा। इस समय सचेत होने का अवसर आ चुका है। सम्पूर्ण जीवन की कमाई का फल उपस्थित हो चुका है।
हे करमा! यह हमारी परीक्षा की घड़ी उपस्थित हुई है। यदि हम इस परीक्षा में अनुतीर्ण हो गयी तो फिर हमारा धार्मिक अनुष्ठान केवल ढकोसला मात्र ही था। इसलिये सचेत होकर बहुत ही सावधानी से पैर आगे बढना है।
हे करमा ! विष्णु को नाम द्वारा स्मरण करो। वही विष्णु ही सर्व देवाधीदेव है तथा जगदगुरु जाम्भोजी भी वही है। उन्ही को मन में रखते हुऐ हमे आगे बढना है,कहीं ऐसा न हो कि इस शुभ अवसर पर कोई सांसारिक मोह माया की तरफ चंचल मन न चला जाये। दूसरी सावधानी यह भी रखनी होगी कि वह भक्ति,ज्ञान,कुल,धन,बल आदि का अहंकार किंचित मात्र भी न आ जाये। यदि ऐसा हुआ तो हमारा कर्तव्य पूर्णता से निभ जायेगा। दूसरी बात का ध्यान यह भी रखना होगा कि कठिन से कठिन विपति,अनर्थ में भी किसी को कठोर वचन गाली-गलौच न कहे। यदि तुम्हारे उपर कोई अन्याय करता भी है तो उसे शांत करने के लिये उसके सामने अपना सिर मांड दीजिये,वह मर जायेगा और यदि ईंट का जबाब पत्थर से देगे तो कलह कभी शांत नहीं होगी और धर्म अनुष्ठान में बाधा उपस्थित होगी।
इन्हीं सभी समस्याओ के समाधान के लिये हे करमा! कभी भी ओछी बाणी न बोले, सदा ही हित कर प्रिय बोले। करमा ने गौरा की बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुनी और कहने लगी-हे गौरा। आज तू इस प्रकार की बाते क्यों कह रही है? आखिर इस समय कौन सी विपति आ पड़ी है जो इस प्रकार की बाते तू कहने को उतावली हो रही हो।
हे करमां ! तुम तो बहुत ही भोली एवं अनजान हो। तुम्हें यही मालूम नहीं है कि कल के दिन अपने ही इस प्रिय गांव की सीमा में दुष्ट हत्यारो का प्रवेश हो चुका है। वे लोग राजमद,धनमद,एवं बलमद से अन्धे हो रहे है। उन्होंने अपने गांव के खेतो मे अपने ही हाथ से पाल-पोष बड़े किये हुऐ पुत्रवत प्रिय वृक्षों को काट रहे है। तुम्हें यह पता हो जाना चाहिये कि इस गांव के ठाकुर ने ही इन लोगो को कुल्हाड़ी देकर भेजा है
हमारे बिश्नोई भाई बन्धुओं ने इस का डट कर विरोध किया है। अब तक तो एक टहनी भी काटने नहीं दी है। उन लोगो के साथ संग्राम हुआ है। उस परस्पर के युद्ध में अब तक तो धर्म की ही विजय हुई है। जितने भी हमारे लोग है वे सभी मरने के लिये तैयार है। यह निश्चित हो चुका है कि कोई भी पीछे नहीं हटेगा। चाहे सभी को प्राणो की बाजी लगानी क्यों न पड़ जाये। हमारे धर्मवीर भाई बन्धु पुत्र आदि सभी जब इस संसार को तिनके की तरह तोड़ कर जाने के लिये तैयार खड़े हुऐ है तो हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिये।
स्त्री तो सदा ही धर्म के कार्य में पुरूष से दो कदम आगे ही रही है। सदा ही अन्याय का डटकर विरोध किया है। राम के साथ सीता ने कदम से कदम मिलाया था। द्रोपदी ने भी तो पाण्डवो को विजय श्री दिलवायी थी और दुष्टो का विनाश करवा कर के धर्म की रक्षा की थी। वे भी तो सभी नारिया ही थी। उसी प्रकार से हम भी तो उन्हीं की संतान है तो भला पीछे क्यों रहे। यदि हम उन दुष्टो के सामने जाकर सत्याग्रह नहीं करेगी तो हमारा तो वंश ही नष्ट हो जायेगा,साथ ही साथ धर्म भी चला जायेगा और सब से बड़ी हानि तो यह होगी कि हमारे सभी दरखत कट जायेगें। इनमें एक भी नहीं बचेगा।
ये हमारे दरखत ही नहीं रहे तो हमारा जीवन ही दूभर हो जायेगा। इन के बिना तो हम जी भी नहीं सकते और नहीं जीना चाहेगे। इसलिये हे करमा! मैं तो संसार की मोह माया छोड़ कर ही घर से चली थी। अब मुझे मरने में किंचित भी भय नहीं है। पंथ की डोरी न टूटे,आगे से आगे जुड़ती रहे। इसलिये इस समय हमें कुछ करना ही होगा। मैंने तो इस संसार से नाता तोड़ लिया है और स्वर्ग की तरफ एक पांव आगे बढा दिया है। पीछे का सम्बन्ध टूटते ही आगे का स्वत: ही जुड़ जायेगा। मेरे हृदय में तो विष्णु नाम का स्मरण ही है। उसी को मैंने धारण किया है। वही मेरे सच्चे प्रेरक है जो भी मुझे से करवायेगे वही अच्छा ही होगा। इसलिये हे करमा! तूं भी इस मार्ग पर चलने के लिये तैयार होजा।
हे करमा ! मैं जब इस कार्य के लिए घर से चली थी तो उस समय परम पिता परमात्मा का स्मरण करते हुऐ चली थी। यह मैं तुम से सच कह रही हूं कि यहां पहुंचते पहुंचते मेरे शरीर में सत बहुत ही आ चुका है वही परमात्मा ही शक्ति दाता है इसमें मेेरा अपना कुछ भी नहीं है। अब तो मुझे इस धर्म के मार्ग से पीछे कोई भी मोह जाल नहीं हटा सकता। इस प्रकार से कहते हुऐ गौरा ने करमां को ज्ञान तत्व समझाया और धर्म का अकुंर उत्पन्न करके अपने साथ चलने के लिये तैयार कर ली।
करमा भी गौरा के साथ ही घर से निकल कर सहर्ष चल पड़ी। करमा भी गौरा की तरह अस शुभ अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी। होनहार को मो कोई मिटा नहीं सकता। जो कुछ भी अपने भाग्य या कर्मो में लिखा हुआ है,वह लेख तो अमिट है। उसे तो सुख या दुख द्वारा भोग कर ही मिटाया जा सकता है। भूख की निवृति तो भोजन द्वारा ही की जा सकती है,दबाने से दबेगी नही। कर्मो का फल दुख सुख भी तो दबाने से नहीं दबता,किसी न किसी रूप में प्रगट हो ही जाता है।
दोनो ओर से रणबांकुरे युद्ध के लिए तैयार खड़े थे। यदि करमां और गौरा उनके बीच में न आती तो न जाने कितना अनर्थ हो जाता। कितनी माता बहिनें विधवा हो जाती और न जाने कितने बच्चो के सिर से पिता का भाई का साया उठ जाता। करमा गौरा दोनों ही हरि का स्मरण करते हुए दोनों पक्षों के बीच में जाकर खड़ी हो गयी। उधर से ग्राम पति ठाकुर के अनुचर जो वृक्ष काटने की तैयारी में थे।
कहने लगे- ये औरतें यहां क्यों आ गयी? इनको यहां से भगा दो। यहां पर कुछ ऐसा हो सकता है जो इन से देखा नहीं जा सकता जो इन से देखा नहीं जायेगा, ये कायर है। इधर वृक्ष रक्षार्थ खड़े हुए बिश्नोई कहने लगे- हे माता बहनो! तुम यहां से चली जाओ, तुम्हारा कुछ भी यहां पर कार्य नहीं है। हम पुरूष लोग यहां पर उपस्थित है, अपने प्राणों की बाजी लगा कर के भी वृक्षों की रक्षा करेंगे। एक भी दरखत नहीं कटने देंगे।
वे दोनों देविया कहने लगी- आप पुरूष लोग पीछे हट जाओ, यह शुभ अवसर तो हमारे लिये ही आया है। जब तक हम आगे नहीं बढेगी, तब तक धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। ऐसा कहते हुए दोनों आगे बढ चुकी और उन हत्यारों के सामने जाकर निर्भय भाव से खड़ी होकर कहने लगी- आप लोग इस प्रकार की दुर्भावना छोड़ दीजिये और वापिस अपने घर लौट जाइये। जब तक हमारे शरीर में प्राण रहेगा तब तक तुम लोग वृक्ष तो क्या एक पता भी नहीं काट सकते। हमें मार कर भलें ही यह सम्पूर्ण वन काट लेना।
ठाकुर के अनुचर लोग कहने लगे- यदि हम काटेंगे तो तुम क्या कर सकती हो? हम अपना सिर दे सकती है, हमें रूंख कटते हुए देखने में अपने सिर से भी ज्यादा पीड़ा होती है, इसलिए सहर्ष अपना तन वृक्षों की रक्षार्थ दे देगी। वे भ्रमित अन्यायी लोग कहने लगे- यदि ऐसा है तो हम भी देखते है। तुम किस प्रकार से अपना सिर सौंप देती हो। ऐसा कहते हुए उन्होंने एक साथ दो खेजड़ी के पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलानें प्रारम्भ किये।
करमां और गौरां ने भी अन्त समय जान कर ओम की ध्वनि करते हुए मन को परमात्मा के साथ जोड़कर अपने शरीर को ले जाकर स्वयं ही उन वृक्षों के चिपका दिया। कुल्हाड़ी की चोट वृक्ष के नहीं लगने दी। अपने ही शरीर पर झेल ली। कुल्हाड़ी की धार से शरीर का एक एक अंग कटकर गिरने लगा, किन्तु अपने शरीर से रूंख प्यारे है, इसीलिए उनको नहीं कटने दिया। खून की धारा बह चली, वहां की धरती लाल हो गयी। सूर्य देवता साक्षी थे तथा वहां पर उपस्थित जन समूह भी साक्षी थी। दोनों वीरांगनाओं ने देखते ही देखते शरीर के टुकड़े करवा लिये फिर भी अपने लक्ष्य से नहीं हटी। ऐसा देख कर दोनों ओर से हा हा कार होने लगा किन्तु अब क्या हो सकता था, बाण तरकस से निकल चुका था। उन दोनों की आत्मायें तो वहां से प्रयाण कर चुकी थी। पीछे शरीर ही अवशेष मात्र टुकड़ों के रूप में पड़े हुए थे।
इस प्रकार शांति पूर्वक स्वेच्छा से मरण सुन कर, देख कर उन दुष्ट जनों का पत्थर सदृश हृदय भी पिघल गया और वहां पर सभी द्रवित होकर आंसू बहाने लगे और बिश्नोईयों से आकर क्षमा प्रार्थना करने लगे। कहने लगे- हम अपराधी है, आप लोग जो चाहो सो करो, हमारा सिर आपके आगे झुका हुआ है। इसे काट लीजिये, तभी हमें शांति मिल सकेगी। अन्यथा हम पश्चाताप की आग में जीवन भर जलते रहेंगे तो भी हमारा पाप नहीं उतरेगा।
बिश्नोई कहने लगे महाशय जी! आप अपना शिर अपने पास ही रखिऐ। हमें इन शिरों की आवश्यकता नहीं है, जिन शिरों में ज्ञान नहीं है, ऐसे मस्तको से हम लेकर भी क्या करेंगे? और नहीं तुम्हारा मस्तक काट लेने से हमारी माता- बहिनों का पुन: जीवित होने का कारण बनेगा किन्तु इसके बदले में हम यह चाहेंगे कि हमारे गुरू जाम्भोजी की बताई हुई मर्यादा का धर्म का पालन हो आप लोग कभी भी इसमें अड़चन न करें। फिर कभी इस प्रकार से वन काटने का जीव हत्या करने का दु:साहस न करे जिन्होंने हंसते हुए वृक्ष रक्षा हेतु अपने प्राण दे दिये उनका दिया हुआ बलिदान व्यर्थ न जाये।
हम आप से यही चाहेंगे कि आप राजा की तरफ से लिखित प्रमाण पत्र प्रदान करें कि हम फिर कभी ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे जीव हत्या एवं वृक्षों का काटना हो। गांव पति ठाकुर ने बिश्नोईयों की बाते स्वीकार की और जीव हत्या एवं वृक्ष न काटने का पका पट्टा लिख कर दिया।
वील्होजी साखी में लिखते है कि करमा और गौरां ने जैसा गुरू जाम्भोजी ने फरमाया था वैसा ही किया। आये हुए अवसर का लाभ उठाया। दूसरे जीवों की भलाई के लिए अपने प्राण समर्पण कर दिये। इससे बढकर और परोपकार क्या हो सकता है। वृक्षों की रक्षा के लिए जिन्होनें अपना जीवन बलिदान दिया है हमें भी नके बताये हुए मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।
करमा और गौरां ने विश्नोई पंथ का नाम उज्जवल किया। प्रेम तत्व का पसारा किया। करमां और गौरां खेजडिय़ों के लिए बलिदान हो गई वह भी रेवासड़ी के चौराहे पर सम्पूर्ण जमात के सामने। यह घटना वि.सं. सौलह सौ इकसठ के ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष द्वितीया तिथि और वार शनिवार के दिन घटित हुई थी।
करमां और गौरा तो धर्म रक्षार्थ बलिदान देकर अमर हो गयी और सदा सदा के लिए रूंखो की रक्षार्थ प्रमाण प्रस्तुत कर गयी। निश्चित ही ऐसे लोगों की दुर्गति नहीं हुआ करती। गुरू की कृपा से वील्होजी कहते है कि मैंने यह साखी सुनाई है और करमां और गौरां का बलिदान ही मेरी इस प्रेरणा का स्रोत है।