हिन्दू समाज में प्रत्येक संस्कारों के अवसर पर यज्ञकार्य परमावश्यक होता है तथा यज्ञ के सुअवसर पर ही जल देवता के साक्षी रूप में जल जरूर रखा जाता है। इसी परम्परा को जम्भेश्वरजी ने कलश स्थापना के रूप में प्रतिष्ठापित की है। इस कलश स्थापना को समझने के लिए हमें सृष्टि के आदि प्रारम्भकाल में जाना होगा। जैसे कलश पूजा मंत्र में बतलाया था कि स्थूल सृष्टि होने के पश्चात देव, मानव, दानव, सृष्टि के लिए परम पिता परमात्मा ने एक अण्डा उत्पन्न किया था, अण्डे में जल तथा जल में विष्णु की उत्पति होती है। विष्णु की नाभि से कमल विकसित होकर वहां पर ब्रह्माजी की उत्पति तथा ब्रह्माजी से सम्पूर्ण सृष्टि का विस्तार हुआ। उसी अण्डे के प्रतीक रूप में यह मिट्टी का बना हुआ अण्डे की भांति गोलाकार घड़ा रखा जाता है तथा उसमें जल भरा जाता है। जल में ही विष्णु की उत्पति स्थिति होती है। इसीलिए इस घड़े के जल में भी विष्णु का निवास रहता है। विष्णु ही सभी का मूल है जिसका हम घट में मंत्रों द्वारा आह्वान करते हैं।
जब कलशा रख दिया जाता है तो फिर उसकी विधिवत स्थापना होती है। जब सृष्टि के प्रारम्भिक काल में मर्यादा में विकृति आयी थी तब परमात्मा ने स्वयं कलश लाकर स्थापित किया था। वहां पर ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चन्द्र आदि उपस्थित थे तथा बाल निर×जन गोरख स्वरूप परमात्मा ने कलश की प्रथम बार स्थापना की थी। उसी प्रकार से इस समय भी हम पुनः मर्यादा धर्म नियम कयम करने के लिए कलश की स्थापना गृहस्वामी के प्रार्थना पर करते हैं। इसीलिए कलश स्थापक यति गृहस्वामी से आज्ञा लेता है तथा वहां पर देवताओं की भांति समाज, जाति, गांव घर के मुख्य सज्जन लोग उपस्थित रहते हैं तथा अग्निदेव यज्ञ के रूप में रहता है। अन्न के रूप में धरती माता रहती है। इसीलिए कलश के नीचे अन्न रखा जाता है तथा संकल्पकर्ता हाथ में अन्न लेता है और जल देवता तो स्वयं कलश में रहता ही है। वायु तथा आकाश तो सर्वत्र व्यापक रूप से उपस्थित रहते ही हैं तथा माला जो हाथ में रखी जाती है वह भी ईश्वर एक हैं। प्रलयावस्था में शून्य ही था तथा प्रकृति घटने-बढ़ने वाली परिवर्तनशील है। ये ही 108 माला के मनके बतला रहे हैं तथा एक धागे यानि सता में जुड़कर सृष्टि का व्यवहार चलाते हैं। इसी प्रतीक के रूप में माला भी रखी जाती है तथा समाज के या घर के प्रधान व्यक्ति का हाथ ऊपर रखकर करके इन देवताओं तथा यति संत के सन्मुख संकल्प कराया जाता है उन्हें यह अहसास कराया जाता है कि हम धर्म की रक्षा करेंगे तथा अन्य जनमानस से करवायेंगे। इसी भावना के साथ कलश की स्थापना प्रारम्भ होती है तथा कलश पूर्वोतर कोण में रखा जाता है यह देवताओं की दिशा मानी जाती है इसीलिए देवताओं का आगमन अपनी दिशा में स्थित वस्तु में ही हो सकता है तथा उस समय में हाथ में रखा जाने वाला तांबे का पैसा भी इस समय प्रचलित धातु तथा युग का प्रतीक है। इसके द्वारा यह प्रतीत हो जाता है कि यह तांबे का यानी कलयुग चल रहा है, इससे इस समय की शारीरिक बौद्धिक शक्ति का ज्ञान हो जाता है।
इतना सभी कुछ साधन उपस्थित होने के पश्चात कलश संस्थापक यतीश्वर उन्ही ंपरमात्मा विष्णु का कलश मंत्र द्वारा आह्वान करता हुआ यही भावना करता है कि जो धर्म उस आदि कलश से हुआ था वही इसी से होवे तथा आगे युगानुसार सतयुग में प्रहलाद, त्रेता में हरिश्चन्द्र, द्वापर में युधिष्ठिर द्वारा संस्थापित जिस कलश से धर्म हुआ था वही इसी से हो तथा कलियुग में जम्भदेवजी द्वारा स्थापित कलश से जो धर्म हुआ वही इसी हमारे द्वारा स्थापित कलश से होवें। कलश शब्द का अर्थ ही होता है कि वह सर्वोतम वस्तु है। सामान्य घड़े में स्थित जल को मंत्र भावना तथा यज्ञादि साधनों द्वारा सर्वोतम कलश के रूप में स्थापित किया जाता है।
यह कलश पूजा कार्य पूर्ण हो जाने के पश्चात केवल यति साधु सज्जन पुरुष ही माला घुमाकर उसमें पाहल मंत्र पढ़ता है। वहां पर भी यही भावना की जाती है कि हे कलश में स्थित विष्णु परमात्मा! हम जल के माध्यम से आपको ही ग्रहण कर रहे हैं जिससे हमारा सम्पूर्ण जीवन आपके सदृश ही तेजस्वी होवें। हम बल बुद्धि को प्राप्त करके अपने जीवन तथा अन्य लोगों का उद्धार कर सकें। इसीलिए आपको नमस्कार है। आप की इस पाहल मर्यादा को हमसे पूर्व भी हमारे पूर्वजों ने ग्रहण की है। उनमें प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर तथा तेतीस करोड़ देवता, ऋषि, संत-महात्माओं को जब-जब भी अपने अन्दर धर्म कर्म मर्यादा नियम टूटते दिखाई दिये, तब-तब उन्होनें यही पाहल लेकर पुनः मर्यादा की पाल बांधी थी जिससे वे तेजस्वी हो सके थे। हम पाहल रूप में आपकी शक्ति को ही धारण करते हैं। हे प्रभु! आपने जो मच्छ कच्छ वाराहादि अववतार धारण करके जो पाल बांधी थी, वह पाल अब टूट रही है। अब आप ही हमें वह पाल
बांधने की शक्ति प्रदान कर सकते हैं अन्यथा सभी कुछ बाद में बह जायेगा।
इन्हीं पवित्र भावनाओं के साथ पाहल पूर्ण होती है। बाद में सर्वप्रथम संकल्पकर्ता मुखिया को पाहल ग्रहण करवायी जाती है तत्पश्चात अन्य सभी जनों को पाहल ग्रहण करवायी जाती है उस समय गुरु, पंथ, समाज के अग्रगण्य जन उपस्थित रहते हैं तथा अग्नि देवता यज्ञ के रूप में उपस्थित रहते हैं। जल देवता विष्णु रूप को हाथ में देकर तीन बार संकल्प करवाया जाता है कि अब तक जो भी अधर्म कार्य हुआ, मर्यादा टूटी सो तो टूट गयी किन्तु भविष्य में फिर नहीं तोड़ूंगा। इसी भावना से पाहल ग्रहण किया जाता है। तीन बार पाहल देने का अर्थ है कि देवता तीन है, गुण भी तीन है तथा जनेऊ के
धागे भी तीन ही होते हैं। वे तीनों देवता तीनों गुण तथा जनेऊ भी हम बाह्य न रखते हुए हृदय में धारण करें। इसीलिए जनेऊ का विधान भी अन्दर ही धारण पाहल के साथ ही हो जाता है। बाह्य तो केवल दिखावा मात्र है। इसीलिए पाहल ग्रहणकर्ता को स्वीकार्य नहीं है।
गुरु जम्भेश्वरजी के शिष्यों विश्नोईयों का यह कर्तव्य है कि प्रत्यके संस्कार या मेला अमवस्या जागरण होली या अन्य उत्सवों के अवसर पाहल अवश्य ही ग्रहण करनी चाहिये। इससे छूटी हुई मर्यादा नियम धर्म पुनः जुड़ जाते हैं। ऐसी परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। आधुनिकता के रंग में रंगे हुए कुछ लोग यदि इसकी उपेक्षा करते तो भी उन्हें सद्मार्ग में लाना चाहिये। जो प्रेमभाव से पाहल लेना चाहता हो वह चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो उसे देनी चाहिए। उसके जीवन का कल्याण होगा यही बड़ा
धार्मिक कार्य होगा तथा जो इसका महत्व नहीं समझता है, वह चाहे उतम कुल का ही क्यों न हो, ऐसे व्यक्ति को पाहल जबरदस्ती नहीं देनी चाहिये, इससे पाहल का महत्व घटता है। ऐसी ही गुरु जम्भेश्वरजी की आज्ञा है। कलश स्थापना करके पाहल देने वाला भी शुद्ध सात्विक, ज्ञानी, आचार-विचारवान तथा सज्जन पुरुष हो तभी यह कार्य पूर्णरूपेण हो सकता है। कम से कम पाहलकर्ता दाता को यह तो ज्ञान होना ही चाहिये कि में यह क्या कार्य करने जा रहा हूं इसका क्या महत्व है। जब यही नहीं जान सकेगा, मन को एकाग्र करके अपनी भावना को पवित्र ईश्वर प्रार्थनामय नहीं बना सकेगा तो पाहल का महत्व कैसे बढ़ेगा।
इन्हीं शब्दों के साथ यह कलश पूजा एवं पाहल मत्रों की व्याख्या तथा इनका महात्म पूर्ण होता है।
स्वामी कृष्णानंद जी आचार्य (अध्यक्ष जांभाणी साहित्य अकादमी)
पुस्तक : शब्दवाणी जम्भसागर
जब कलशा रख दिया जाता है तो फिर उसकी विधिवत स्थापना होती है। जब सृष्टि के प्रारम्भिक काल में मर्यादा में विकृति आयी थी तब परमात्मा ने स्वयं कलश लाकर स्थापित किया था। वहां पर ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चन्द्र आदि उपस्थित थे तथा बाल निर×जन गोरख स्वरूप परमात्मा ने कलश की प्रथम बार स्थापना की थी। उसी प्रकार से इस समय भी हम पुनः मर्यादा धर्म नियम कयम करने के लिए कलश की स्थापना गृहस्वामी के प्रार्थना पर करते हैं। इसीलिए कलश स्थापक यति गृहस्वामी से आज्ञा लेता है तथा वहां पर देवताओं की भांति समाज, जाति, गांव घर के मुख्य सज्जन लोग उपस्थित रहते हैं तथा अग्निदेव यज्ञ के रूप में रहता है। अन्न के रूप में धरती माता रहती है। इसीलिए कलश के नीचे अन्न रखा जाता है तथा संकल्पकर्ता हाथ में अन्न लेता है और जल देवता तो स्वयं कलश में रहता ही है। वायु तथा आकाश तो सर्वत्र व्यापक रूप से उपस्थित रहते ही हैं तथा माला जो हाथ में रखी जाती है वह भी ईश्वर एक हैं। प्रलयावस्था में शून्य ही था तथा प्रकृति घटने-बढ़ने वाली परिवर्तनशील है। ये ही 108 माला के मनके बतला रहे हैं तथा एक धागे यानि सता में जुड़कर सृष्टि का व्यवहार चलाते हैं। इसी प्रतीक के रूप में माला भी रखी जाती है तथा समाज के या घर के प्रधान व्यक्ति का हाथ ऊपर रखकर करके इन देवताओं तथा यति संत के सन्मुख संकल्प कराया जाता है उन्हें यह अहसास कराया जाता है कि हम धर्म की रक्षा करेंगे तथा अन्य जनमानस से करवायेंगे। इसी भावना के साथ कलश की स्थापना प्रारम्भ होती है तथा कलश पूर्वोतर कोण में रखा जाता है यह देवताओं की दिशा मानी जाती है इसीलिए देवताओं का आगमन अपनी दिशा में स्थित वस्तु में ही हो सकता है तथा उस समय में हाथ में रखा जाने वाला तांबे का पैसा भी इस समय प्रचलित धातु तथा युग का प्रतीक है। इसके द्वारा यह प्रतीत हो जाता है कि यह तांबे का यानी कलयुग चल रहा है, इससे इस समय की शारीरिक बौद्धिक शक्ति का ज्ञान हो जाता है।
इतना सभी कुछ साधन उपस्थित होने के पश्चात कलश संस्थापक यतीश्वर उन्ही ंपरमात्मा विष्णु का कलश मंत्र द्वारा आह्वान करता हुआ यही भावना करता है कि जो धर्म उस आदि कलश से हुआ था वही इसी से होवे तथा आगे युगानुसार सतयुग में प्रहलाद, त्रेता में हरिश्चन्द्र, द्वापर में युधिष्ठिर द्वारा संस्थापित जिस कलश से धर्म हुआ था वही इसी से हो तथा कलियुग में जम्भदेवजी द्वारा स्थापित कलश से जो धर्म हुआ वही इसी हमारे द्वारा स्थापित कलश से होवें। कलश शब्द का अर्थ ही होता है कि वह सर्वोतम वस्तु है। सामान्य घड़े में स्थित जल को मंत्र भावना तथा यज्ञादि साधनों द्वारा सर्वोतम कलश के रूप में स्थापित किया जाता है।
यह कलश पूजा कार्य पूर्ण हो जाने के पश्चात केवल यति साधु सज्जन पुरुष ही माला घुमाकर उसमें पाहल मंत्र पढ़ता है। वहां पर भी यही भावना की जाती है कि हे कलश में स्थित विष्णु परमात्मा! हम जल के माध्यम से आपको ही ग्रहण कर रहे हैं जिससे हमारा सम्पूर्ण जीवन आपके सदृश ही तेजस्वी होवें। हम बल बुद्धि को प्राप्त करके अपने जीवन तथा अन्य लोगों का उद्धार कर सकें। इसीलिए आपको नमस्कार है। आप की इस पाहल मर्यादा को हमसे पूर्व भी हमारे पूर्वजों ने ग्रहण की है। उनमें प्रहलाद, हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर तथा तेतीस करोड़ देवता, ऋषि, संत-महात्माओं को जब-जब भी अपने अन्दर धर्म कर्म मर्यादा नियम टूटते दिखाई दिये, तब-तब उन्होनें यही पाहल लेकर पुनः मर्यादा की पाल बांधी थी जिससे वे तेजस्वी हो सके थे। हम पाहल रूप में आपकी शक्ति को ही धारण करते हैं। हे प्रभु! आपने जो मच्छ कच्छ वाराहादि अववतार धारण करके जो पाल बांधी थी, वह पाल अब टूट रही है। अब आप ही हमें वह पाल
बांधने की शक्ति प्रदान कर सकते हैं अन्यथा सभी कुछ बाद में बह जायेगा।
इन्हीं पवित्र भावनाओं के साथ पाहल पूर्ण होती है। बाद में सर्वप्रथम संकल्पकर्ता मुखिया को पाहल ग्रहण करवायी जाती है तत्पश्चात अन्य सभी जनों को पाहल ग्रहण करवायी जाती है उस समय गुरु, पंथ, समाज के अग्रगण्य जन उपस्थित रहते हैं तथा अग्नि देवता यज्ञ के रूप में उपस्थित रहते हैं। जल देवता विष्णु रूप को हाथ में देकर तीन बार संकल्प करवाया जाता है कि अब तक जो भी अधर्म कार्य हुआ, मर्यादा टूटी सो तो टूट गयी किन्तु भविष्य में फिर नहीं तोड़ूंगा। इसी भावना से पाहल ग्रहण किया जाता है। तीन बार पाहल देने का अर्थ है कि देवता तीन है, गुण भी तीन है तथा जनेऊ के
धागे भी तीन ही होते हैं। वे तीनों देवता तीनों गुण तथा जनेऊ भी हम बाह्य न रखते हुए हृदय में धारण करें। इसीलिए जनेऊ का विधान भी अन्दर ही धारण पाहल के साथ ही हो जाता है। बाह्य तो केवल दिखावा मात्र है। इसीलिए पाहल ग्रहणकर्ता को स्वीकार्य नहीं है।
गुरु जम्भेश्वरजी के शिष्यों विश्नोईयों का यह कर्तव्य है कि प्रत्यके संस्कार या मेला अमवस्या जागरण होली या अन्य उत्सवों के अवसर पाहल अवश्य ही ग्रहण करनी चाहिये। इससे छूटी हुई मर्यादा नियम धर्म पुनः जुड़ जाते हैं। ऐसी परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। आधुनिकता के रंग में रंगे हुए कुछ लोग यदि इसकी उपेक्षा करते तो भी उन्हें सद्मार्ग में लाना चाहिये। जो प्रेमभाव से पाहल लेना चाहता हो वह चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो उसे देनी चाहिए। उसके जीवन का कल्याण होगा यही बड़ा
धार्मिक कार्य होगा तथा जो इसका महत्व नहीं समझता है, वह चाहे उतम कुल का ही क्यों न हो, ऐसे व्यक्ति को पाहल जबरदस्ती नहीं देनी चाहिये, इससे पाहल का महत्व घटता है। ऐसी ही गुरु जम्भेश्वरजी की आज्ञा है। कलश स्थापना करके पाहल देने वाला भी शुद्ध सात्विक, ज्ञानी, आचार-विचारवान तथा सज्जन पुरुष हो तभी यह कार्य पूर्णरूपेण हो सकता है। कम से कम पाहलकर्ता दाता को यह तो ज्ञान होना ही चाहिये कि में यह क्या कार्य करने जा रहा हूं इसका क्या महत्व है। जब यही नहीं जान सकेगा, मन को एकाग्र करके अपनी भावना को पवित्र ईश्वर प्रार्थनामय नहीं बना सकेगा तो पाहल का महत्व कैसे बढ़ेगा।
इन्हीं शब्दों के साथ यह कलश पूजा एवं पाहल मत्रों की व्याख्या तथा इनका महात्म पूर्ण होता है।
स्वामी कृष्णानंद जी आचार्य (अध्यक्ष जांभाणी साहित्य अकादमी)
पुस्तक : शब्दवाणी जम्भसागर