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पौराणिक श्री जाम्भाणी चिन्ह
(आईये अपनी पहचान बनायें : 4)
वर्तमान विश्व में विभिन्न विचारधाराओं पर आधारित असंख्य धर्म प्रचलित हैं. दार्शनिक विचारधारा धर्म की सम्पूर्ण परिभाषा का एक अभिन्न अंग होती है व किन्ही दो धर्मों के मध्य दार्शनिक विचारधारा में अवस्थित मौलिक अंतर ही उन्हें एक दुसरे से भिन्न करता है. विश्व के मुख्य धर्मों में विचारधारा के स्तर पर कुछ सामान्य एवं कुछ असामान्य विभेद दृष्टिगोचर होते हैं. धर्म की उत्पति एवं विकास एक लम्बी व समझने में कठिन प्रक्रिया है. मानवता के विकास कर्म में असंख्य धर्म विकास के विभिन्न चरणों में लुप्त हो गए तथा उतने ही नूतन धर्मों की उत्पत्ति होती चली गयी. वर्तमान में प्रचलित धर्म भी विकास के किसी न किसी चरण में हैं तथा बिश्नोइज्म भी इसका अपवाद नहीं है. धर्मों की उत्पत्ति, विकास तथा लोप का यह क्रम निरंतर जारी है. विश्व के समस्त धर्मों का आधारभूत स्वरुप एक समान ही है व धर्म के आधारभूत ढांचे को बनाने के लिए आवश्यक कुछ घटक प्रत्येक धर्म में विद्यमान हैं.
नाम, ध्वज, दर्शन, प्रतीक चिन्ह व नारा ऐसे ही कुछ अति महत्वपूर्ण घटक हैं. प्रमुख धर्मों का एक भिन्न व विशिष्ट धार्मिक चिन्ह होता है, जो की उस धर्म विशेष की पहचान व द्योतक होता है तथा विश्व में उस धर्म का प्रतिनिधित्व करता है. स्वास्तिक, ओंकार, कमल, क्रोस, अर्धचन्द्र निशान साहिब आदि विभिन्न धर्मों के विश्व प्रसिद्ध प्रतिक-चिन्ह हैं. ये प्रतीक चिन्ह आधुनिक समय में इतने अधिक प्रचलित हैं की इनसे सम्बंधित धर्म का नाम लेकर उल्लेख करना आवश्यक नहीं रह जाता है. ये प्रतीक-चिन्ह स्वधर्म के नाम के पर्याय व उसकी पहचान बन चुके हैं. यह तथ्य प्रतीक चिन्ह की शक्ति को दर्शाता है. धर्मों के द्वारा प्रतीक चिन्हों को आत्मसात करने के असंख्य उदहारण हमारे समक्ष उपलब्ध हैं.
एक प्रतीक चिन्ह कोई वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, कला का नमूना, ध्वनि, निशान अथवा इनमें से किन्ही भी दो या अधिक चीजों का वह संयोग होता है जो किसी दूसरी चीज़ को सबंध, समानता, संकेत अथवा आचार से इंगित करता है. उदहारणतया मानव खोपड़ी के नीचे स्थित दो आर पार हड्डियाँ खतरे का वैश्विक प्रतीक-चिन्ह है. वस्तुत प्रतीक-चिन्ह हमारे जीवन का अभिन्न भाग होते हैं. यदि हम ध्यानपूर्वक अवलोकन करें तो विभिन्न प्रकार के असंख्य प्रतीक-चिन्हों से स्वयं को घिरा हुआ पाएंगे. सभी भाषाएँ प्रतीक-चिन्हों से बनी होती हैं. अंक भी संख्या अथवा मात्र दर्शाने वाले प्रतीक-चिन्ह ही हैं. व्यक्तिगत नाम व्यक्तियों को इंगित करने वाले ध्वन्यात्मक प्रतीक-चिन्ह होते हैं. प्रतीक-चिन्हों ने प्रत्येक मानव के जीवन को एकाधिक प्रकार से छुआ है तथा मानव का प्रतीक-चिन्हों के प्रति प्रेम भी प्रारम्भिक कल से ही रहा है.
धर्मों व प्रतीक-चिन्हों के मध्य परस्पर प्रत्यक्ष व अटूट सम्बन्ध आदिकाल से ही रहा है. धर्मों ने प्रतीक-चिन्हों को अपनाया है व प्रत्युत प्रतीक-चिन्हों ने धर्मों को पहचान दी है व उनके प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया है. प्रतीक-चिन्हों के प्रति धर्मों के आकर्षण के कुछ प्राकृतिक व अति महत्वपूर्ण कारक रहे हैं. किसी भी धर्म विशेष का प्रतीक चिन्ह उस धर्म विशेष के अनुयायियों में परस्पर सम्बंधित होने की भावना उत्पन्न करता है व उन्हें उनके आराध्य के समीप लाता है. धार्मिक प्रतीक-चिन्ह सामूहिक उत्साह का संवाहक होता है तथा धर्मावलम्बियों में समर्पण, गर्व, एकता व विस्तार का वह सम्मिलित भाव जगाने में सफल होता है जो की शब्दों में लिखित पुस्तके भी प्राय: नहीं कर पाती हैं. एक धार्मिक प्रतीक चिन्ह की शक्तियां व संभावनाएं असीमित होतीं हैं तथा धर्मों के प्रचार-प्रसार में सर्वाधिक प्रयोग किया जाने वाला यन्त्र भी यही है. धार्मिक प्रतीक-चिन्ह को प्रत्येक धर्म में पवित्रतम माना जाता है एवं इसे समर्पित उपासना के सांकेतिक चिन्ह के तौर पर प्रयोग किया जाता है. प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान एंव उपासना में धार्मिक प्रतीक-चिन्ह का स्थान अति-सम्मानीय, विशिष्ठ तथा प्राय: सर्वोच्च होता है. प्रतीक-चिन्ह किसी भी धर्म का परिचायक होता है व बिना प्रतीक-चिन्ह का धर्म बिना विषय सूची की पुस्तक की तरह ग्रहण कर पाने में कठिन होता है. अत: एक सम्पूर्ण रूप से विवरणित, प्रतिष्ठित व सार्थक धार्मिक प्रतीक-चिन्ह किसी भी धर्म के प्रचार-प्रसार व विस्तार की मूलभूत आवश्यकता प्रतीत होता है. विश्व के विभिन्न धर्मों में प्रतीक-चिन्हों का प्रयोग इतना अधिक हुआ है की धार्मिक प्रतीक-विद्या (ygolobmyS suoegileR) एक पूर्ण शैक्षणिक विषय का दर्जा पा चुकी है. यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है की
मानव विकास क्रम में जब 'धर्म' की संकल्पना का पूर्ण रूप से विकास नहीं हो पाया था तब भी आदिकालीन तथा अविकसित धर्म को मानने वाले लोग भी प्रतीक-चिन्हों का प्रयोग करते थे. आधुनिक समय में न केवल धर्म अपितु विभिन्न व्यावसायिक उपक्रम, उत्पाद, ब्रांड, सेवाएँ, संगठन इत्यादि स्व-पहचान को शक्ति प्रदान करने व अन्यों से इसे अलग दिखलाने के लिए विभिन्न प्रकार के चिन्ह, जिन्हें 'लोगो' कहा जाता है, का प्रयोग करते हैं.
लोगो का मुख्य प्रयोग शीघ्र लोक-प्रसिद्धी पाने के लिए तथा ध्यानाकर्षण के लिए किया जाता है. प्रत्येक संगठन यह इच्छा करता है की उसका लोगो आकर्षक, अलग, विशेष एंव ऐसा हो जो उस संगठन की पहचान बने एंव एक शक्तिशाली व प्रभावशाली लोगो बनवाने के लिए पेशेवर 'ग्राफिक डिजाइनर' को भारी-भरकम पारिश्रमिक चुकाया जाता है. प्रतीक-चिन्ह भाषाई व सांस्कृतिक बाधाओं को मौखिक अथवा लिखित शब्दों की अपेक्षा कहीं आसानी से पार कर जाते हैं. सन्देश छोड़ने में प्रतीक-चिन्ह शब्दों से अधिक प्रभावी सिद्ध हुए हैं. जिन धर्मों का सुस्पष्ट प्रतीक-चिन्ह रहा वे स्वयं को अधिक प्रसारित करने में सफल रहे.
वर्तमान कालखंड में बिश्नोई धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई भी प्रतीक-चिन्ह प्रचलन में नहीं है. क्या इस तथ्य को बिश्नोइज्म के अप्रसार का लघु अथवा वृहद कारक माना जा सकता है? क्या एक स्थापित धार्मिक प्रतीक-चिन्ह का न होना बिश्नोइज्म के सामर्थ्य में कोई कमी उत्पन्न करता है? बिश्नोई इतिहास के अध्यन के उपकर्म में हमें ज्ञात होता है की एक विशेष कालखंड में बिश्नोई पंथ का भी एक विशिष्ट धार्मिक प्रतीक-चिन्ह अस्तित्व में था. इस चिन्ह विशेष को "जाम्भाणी चिन्ह" अथवा ‘जाम्भाणी दाग' कहा जाता था व इसका मुख्य प्रयोग बिश्नोई लोग अपने पशुओं को दागने के लिए किया करते थे. दागने की यह प्रक्रिया पशुओं पर स्वामित्व निर्धारण के उद्देश्य से प्रचलन में थी. पशु के दायें पुट्ठे पर त्रिशूल तथा बाएं पुट्ठे पर सात किरणों के सूर्य को संयुक्त रूप से " श्री जाम्भाणी चिन्ह" कहा जाता था. ‘जाम्भाणी दाग' को अत्यंत ही पवित्र माना जाता था व इस चिन्ह से युक्त गाय का दूध बिलोया नहीं जाता था एंव इसे मात्र पीने व बाँटने के काम में ही लाया जाता था. इस चिन्ह से युक्त सभी पशु भय-मुक्त होकर स्वछन्द चारण कर सकते थे क्योंकी इन्हें बिश्नोईयों का जानकर शिकारी, कसाई तथा यहाँ तक की राजपरिवार के लोग भी इन्हें हानि पहुँचाने से कतराते थे. तात्पर्य यह की "जाम्भाणी चिन्ह" बिश्नोइज्म का द्योतक था किन्तु क्रमिक विकास में यह आश्चर्यजनक रूप से , संभवत: प्रयोग की अनिरंतरता के कारणवश, लुप्त हो गया.
"जाम्भाणी चिन्ह" के संशोधित स्वरुप को बिश्नोइज्म के प्रतीक-चिन्ह के रूप में अपनाया जा सकता है. यह प्रतीक-चिन्ह इस पंथ के चिर-अवरोधित प्रसार का मार्ग प्रशस्त करने में सफल रहेगा. संशोधन से पुरातन बिश्नोई प्रतीक " श्री जाम्भाणी चिन्ह" को आधुनिक स्वरुप प्रदान किया जा सकता है क्योंकि एक प्रतीक चिन्ह प्रत्येक प्रकार से सरल, बोल्ड, आसानी से पहचाना जाने योग्य एंव आसानी से बन जाने वाला होना चाहिए. इसमें जटिलता का अभाव होना चाहिए तथा इसे बनाने के लिए किसी प्रकार की कलात्मक कुशलता की आवश्यकता नही होनी चाहिए. एक प्रतीक चिन्ह का सपष्ट अर्थ एंव स्पष्ट इतिहास होना भी अत्यंत आवश्यक है. यह मनगढ़ंत नहीं होना चाहिए, निर्वात में से उत्पन्न नहीं होना चाहिए तथा इसके स्रोत का भी पता होना अनिवार्य है.
संशोधित " श्री जाम्भाणी चिन्ह" में सात किरणों के सूर्य को यथावत रखते हुए इसके मध्य में देवनागरी अंको में २९ (उनतीस) लिखा जा सकता है. २९ के नीचे अर्धगोलाकार ढंग से “माने सो बिश्नोई” लिखा जा सकता है जो की बिश्नोइज्म के 'घोष' के रूप में अपनाया जा सकता है. सम्पूर्ण चिन्ह को एकवर्णी स्कीम में सफ़ेद पृष्ठभूमि में भगवें रंग का तथा भगवें रंग की पृष्ठभूमि में सफ़ेद रंग का बनाया जा सकता है.
"श्री जाम्भाणी चिन्ह" में सूर्य का प्रयोग कब एंव क्यों आरम्भ हुआ यह शोध का विषय है किन्तु सर्वज्ञात रूप से सूर्य शक्ति व चेतना का परम स्रोत है तथा सौर परिवार के केंद्र में स्थित है. विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में सूर्य को वन्दनीय माना गया है. समस्त प्राणियों का अस्तित्व सूर्य के कारण ही संभव है. पुरातन बिश्नोईयों ने सूर्य की इन्ही विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही संभवत: इसे " श्री जाम्भाणी चिन्ह" में स्थान दिया था. सात किरणों के सूर्य का सन्दर्भ वेद व विष्णु पुराण में भी प्राप्त होता है. सात में से प्रत्येक किरण एक भिन्न व विशेष गुण एंव अर्थ से युक्त मानी गयी है. सात किरणे सम्पूर्णता की द्योतक है. सूर्य की किरणों के सात रंगों में विभक्तिकरण की प्रक्रिया से बनने वाले इन्द्रधनुष के सात रंग जीवन के सात विविध भावों को प्रदर्शित करते हैं. सात वार एंव सप्ताह में सात दिन होते हैं जो मानव जीवन को सांकेतिक रूप से निरुपित करते हैं. मानव शरीर में सात सर्विकल वर्तिब्री होती हैं जिन्हें मानव के अध्यात्मिक उथान्न की पराकाष्ठा माना गया है संगीत के सात सुरों से किसी भी प्रकार .की लय का सृजन किया जा सकता है. बिश्नोई महिलाओं के द्वारा सर्वाधिक प्रयोग किये जाने वाले मुहावरे "सात सुखी" का अर्थ सम्पूर्ण सुखी होना है. मानव मन में उत्पन्न होने वाले सभी विचारों को सात प्रकार में वर्गीकृत किया गया है व मानव सिद्धांतों की संख्या भी सात ही मानी गयी है.
सूर्य के मध्य में अंकित उनतीस बिश्नोइज्म की रीढ़ माने जाने वाले उनतीस नियमों का द्योतक है. इसे अरबी (29) में न लिखकर हमारी मातृ-लिपि देवनागरी में लिख दिया गया है. उनतीस बिश्नोई समाज में सर्वाधिक प्रयोग किया जाने वाली अंक संख्या है. इस संख्या से हमारे समाज के लोगों को सनक की सीमा तक प्रेम है. यधपि यह प्रेम अधिक पुरातन न होते हुए संचार व यातायात क्रांति का समकालीन ही है. बिश्नोई लोगों का उनतीस की संख्या पर समाप्त होने वाले ‘मोबाइल सिम नम्बर’ व वाहन पंजीकरण संख्या के प्रति प्रेम जग जाहिर है. समुदाय के युवाओं में तो इस संख्या के प्रति प्रेम देखते ही बनता है.
उनतीस की संख्या को विशेष बनाने वाले कतिपय अन्य कारक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. यह संख्या तीन लगातार वर्गों का योग है- 22+32+42=29. ताम्बा धातु की परमाणु संख्या उनतीस है एंव यह धातु बिश्नोइज्म में पवित्र मानी गयी है तथा इसे बिश्नोइज्म में दीक्षित होते समय पिलाये जाने वाले पाहल को बनाने के काम में लाया जाता है. ताम्बा प्रत्येक प्राणी के अच्छे स्वस्थ्य के लिए एक अत्यावश्यक सूक्षम तत्व है. एक चन्द्र मास की अवधि भी लगभग उनतीस दिन ही होती है. यदि संख्या उनतीस को विभक्त कर दिया जाये तो तो अंक दो द्विविधता का पर्याय है जब की अंक नौ अग्नि का प्रतीक माना गया है जो पुन: बिश्नोइज्म में हवन के रूप में आराध्य मानी गयी है. "श्री जाम्भाणी चिन्ह" में संख्या उनतीस के नीचे अंकित "माने सो बिश्नोई” नारा बिश्नोइज्म की उदार, निमंत्रित करने वाली, लोकतान्त्रिक तथा अत्याधुनिक छवि विश्व के सामने प्रस्तुत करने में सफल रहेगा. जो उनतीस नियमों को मानता है वही बिश्नोई है, इस घोष का शाब्दिक, सरलतम एंव एकमात्र अर्थ है.
"श्री जाम्भाणी चिन्ह" एक वर्णी स्कीम में भगवे रंग में बनाया जा सकेगा. यह चिन्ह बिश्नोई ध्वज, जो की भगवे रंग का आयताकार कपडा होता है, के मध्य में श्वेत रंग में अंकित किया जा सकेगा. भगवा रंग भगवान् श्री गुरु जम्भेश्वर, ब्रहमज्ञान एंव मोक्ष का प्रतीक है. श्वेत रंग परम सत्य का द्योतक है जो की स्वयं भगवन श्री गुरु जम्भेश्वर जी हैं. "श्री जाम्भाणी चिन्ह" प्रत्येक प्रकार से पवित्रतम, शुभ, स्वत: व आराध्य मानने योग्य है. आईये हम सब इस आदिकालीन तथा मौलिक बिश्नोई धार्मिक-चिन्ह को अपनाकर इसे बिश्नोइज्म के सामूहिक उत्साह का संवाहक बनायें.
अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा " श्री जाम्भाणी चिन्ह" को स्वयं के नाम में पंजीकृत करवा कर इस चिन्ह को बिश्नोइज्म के शाश्वत प्रतीक चिन्ह के रूप में प्रतिष्ठित कर सकती है. इंडियन ट्रेडमार्क एक्ट 1999 चिन्हों को संस्थाओं के नाम से पंजीकृत करने की सुविधा प्रदान करता है. इस कार्य के लिए ट्रेडमार्क पंजीकरण में दक्ष विभिन्न विशेषज्ञ ला फर्म्स से परामर्श लिया जा सकता है.
संतोष पुनिया, रांची, झारखण्ड