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रावल जैतसी जैसलमेर उजवणो कियो। च्यार वरा गुरुमुखी दीन्हा। जाम्भोजी श्रीवायक कहे-
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शब्द-88
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ओ3म् गोरख लो गोपाल लो, लाल गवाल लो,
लाल लीलंग देवो, नब खंड पृथिवी प्रगटियो,
कोई बिरला जाणत म्हारी आद मूल का भेवों।
जाम्भोजी के समय में अनेक राजा हुए। उनमें मुख्य रूप से जैसलमेर के राजा जैत्सी का नाम अग्रगण्य है। जैसलमेर की राज परम्परा में जेतसी उस समय राजगद्दी पर विराजमान थे। राजा पूर्णतया धार्मिक विचारों से ओतप्रोत था। दया,दान,जरणा,युक्ति,शौच,शील,स्नान आदि नियमों का दृढ़ता से पालन करता था। पापकर्म करने से डरता था। धर्म की तरफ राजा का रूझान स्वाभाविक ही था।रावल जेतसी ने जेतसमंद बांध का निर्माण करवाया था। जिसमें जल ठहरे और वन तथा वन्य जीव जन्तु जल पी सके, सभी का भला होवे। जैतसमंद का कार्य पूर्ण होने पर उसका उद्घाटन प्रतिष्ठा के लिए उन्होनें जाम्भोजी को बुलाने की योजना बनायी थीं हमारे यज्ञ में श्री देवजी पधारे तो हमारा कार्य पूर्ण हो जाये। मैं उनके चरणों की रज ले सकूं, अपने को कृतार्थ करूं। हमारे यज्ञ में चार चांद लग जाये।वे मुझे जैसा आदेश देगे वैसा मैं करूंगा। यज्ञ में होने वाले अदृष्टों से मैं बच जाऊँगा। ऐसा शुभ विचार जैतसी ने किया और अपना एक विश्वासपात्र सेवक जाम्भोजी के पास भेजा।सतगुरु सम्भराथल पर विराजमान थे। सतगुरु के पास जेतसी का भेजा हुआ दूत आया। बड़े ही आशा एवं विश्वास के साथ देवजी का दर्शन अश्रूपूर्ण नेत्रों से किया, चरणों में वंदना करके श्रीदेवजी के पास बैठा। दूत ने हाथ जोड़कर जैसा जेतसी ने निवेदन किया था, वैसा कहने लगा-
हे देव! रावलजी ने कहा है कि मैं आपका सेवक हूं। आप जेतसमंद की प्रतिष्ठा में जैसलमेर पधारों। आपके बारे में श्रद्धाभरे वचनों से कहा है कि धन्य है कलयुग के लोग जो आपका दर्शन कर रहे हैं। हे देव! आपने सतयुग का धर्म कलयुग में प्रकट किया है। कुमार्ग पर चलते हुए लोगों को आपने सुमार्ग पर चलाया है। अज्ञानी जनों को ज्ञानी बनाया है। आपको जिसने भी पहचान लिया है उसके हृदय का ताला खुल गया है। आपने जिस पर भी कृपा की है, उन्हें रिद्धि सिद्धि सभी कुछ प्रदान की है। अब कृपा करके हमारे देश जैसलमेर भी पधारो। हम आपकी आशा में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अब हमारी आशापूर्ण होने का समय आ गया है। यदि आप यज्ञ में आ जाओ तो हमारी सभी कामना पूर्ण हो जायेगी।देवजी नेकहा- हे दूत! आप वापिस जाओ, और रावल से पूछो कि मैं आउंगा तो वहां पर मेरी ही बात चलेगी। किसी अन्य की नीति, वार्ता किसी भी प्रकार का जोर नहीं चलेगा। तुम्हारे वहां पर ठाकुर, राजा, प्रधान, योगी, सन्यासी, तपस्वी, तीर्थवासी, पण्डित, ज्योतिषी इत्यादि वहां पर एकत्रित होंगे। वे सभी अपनी अपनी बात चलायेंगे। यदि उनका कहना मानना है तेा मेरे का मत बुलाओ। मुझे बुलाना है तो मै। जैसा कहू वैसा ही करना होगा। जैसलमेर से जो दूत आया था उसको तो देवजी ने अपने पास ही बिठा लिया और अपना दूसरा आदमी जैसलमेर के लिए रवानाा किया। जो देवजी ने राजा को संदेश भेजा था वही ठीक प्रकार से कहने वाला विश्वासपात्र व्यक्ति था। वह जाम्भोजी द्वारा भेजा गया दूत जैसमेर के राजदरबार में जैतसी को समाचार यथावत सुनाया। रावल ने कहा- हम राजा लोग पढ़े लिखे पण्डितों की सेवा अवश्य ही करते हैं उनके कथनानुसार चलते हैं किन्तु अब जाम्भोजी को बुला रहे हैं तो जैसा वो आदेश देंगे वैसा ही हम करेंगे। रावलजी ने विनती करते हुए कहा- हमारे तो गुरु चरणों की ही आरत-इच्छा है। देवजी आयेंगे तो सर्वप्रथम पूजा उनकी ही करूंगा। मैं स्वयं जैसलमेर की सीमा तक सामने आउंगा और उनकी आगवानी करके स्वागत करके अपनी नगर में प्रवेश करवाउंगा। हमारे सतगुरु देव पधारेंगे तो हमारे सभी पाप नष्ट हो जायेंगे। रावल की वार्ता उस सेवक ने सुनी, श्रद्धा का भाव देखा और समझा कि रावल वास्तव में प्रेमी आदमी है। इसके यहां तो जाम्भोजी का आना आवश्यक है। रावल से सीख मांगी और वापिस सम्भराथल की तरफ रवाना हुआ। कुछ ही दिनों में देवजी के पास वापिस सम्भराथल पर आ गया और रावल की भक्तिप्रेम की वार्ता विस्तार से बतलाई और कहा- हे देव! आपको उनकी इच्छा अवश्य ही पूर्ण करनी चाहिए, अन्यथा राजा आपसे, ज्ञान,ध्यान,श्रद्धा से दूर हट जायेगा,उसका दिल टूट जायेगा। अवश्य ही आपकी आज्ञा के अनुसार ही कार्य होंगे। उन्होनें आपकी आज्ञा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की है। रावल ने विशेष रूप से कहा है कि हे देव! आप ही हमारी इच्छा को पूर्ण करने वाले हैं, दु:खों को मिटाने वाले हैं। तुम्हारे आने से ही हमारी लज्जा रहेगी।
जाम्भोजी ने रावल के दूत को वापिस भेजा और कहा कि मैं जैतसी के समंद प्रतिष्ठा में अपनी मण्डली सहित अवश्य ही आउंगा। किन्त्ु तुम रावल से कहना है कि मेरे स्वागत हेतु कोई बहुत बड़ी सेना या ठाकुरो के साथ लाने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जिस जिस गांव से सेना आएगी तो वहां के लोगों को कष्ट होगा। राजा स्वागत हेतु आयेगा तो आम जनता को परेशानी उठानी पड़ेगी। अधिक घोड़ा ऊंट आयेगे तो वे बेचारे मूक प्राणी बेवजह दु:ख पायेगे।
मैं जीवो को सताना नहीं चाहता। घोड़ो के खुरताल तथा ऊंटो के पैरो के नीचे दब कर न जाने कितने जीव मारे जायेगे। मैं तो राजा के पाप - दोष हरण करने हेतु जा रहा हूं, कहीं ऐसा न हो कि पाप - दोष अधिक न हो जाये। हमारा मिलन पूर्णतया निरभिमान होकर होगा। किसी प्रकार कर दिखावा या कष्ट साध्य नहीं होगा।जम्भेश्वरजी ने जैसलमेर चलने की तैयारी की। उसी समय साथ में रहने वाले संत भक्त भी कहने लगे हम भी चलेगे हम भी चलेगे। सभी चलने को तैयार थे ऐसे अवसर को कोई हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे। उनमें सभी भगवान के भक्त ही थे किसको पीछे छोड़े किसको साथ में ले। इसलिये श्री देवजी ने सभी को ही चलने की आज्ञा प्रदान कर दी। भक्तो के सिर पर टोपी, हाथ में जप माला, उज्जवल वागा - कुर्ता पहने हुऐ, अन्तर - बाह्य शुद्ध पवित्र थे। सवारी हेतु मजबूत स्वस्थ तेज चलने वाले ऊंट साथ में लिये हुये, ऐसी मण्डली श्री देवजी के साथ चली। जैसे संत पवित्रात्मा थे वैसे ही अपनी सवारियो को भी सजाया था। देवजी अपनी मण्डली के साथ शोभायमान होकर जैसलमेर के लिये प्रस्थान किया। इस प्रकार से जैसलमेर जाते समय देवजी के साथ तीन सौ पचीस ऊंट थे। सबसे आगे देवजी का ऊंट चल रहा था। चलते हुऐ ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो आकाश में विमान ही उड़ते जा रहे हो। मानो स्वंय विष्णु ही देवताओ के साथ विमानो पर बैठ कर स्वर्ग लोक से आ रहे हो। मार्ग में जांगलू, खीदासर, जात्भोलाव आदि स्थानों को पवित्र करते हुऐ वहां के लोगो को प्रसन्न करते हुऐ जैसलमेर की सीमा में वासणपी गांव पहूंचे।
रावल जी के चाकर ने जाकर खबर सुनाई कि जाम्भोजी वासणपी आ चुके है। उनके साथ बहुत से सेवक दल भी आया है। किन्तु उन्होने अपने आने की बात किसी को भी नहीं बताई है। इस वार्ता को सुनकर राजा सचेत हुआ। कहने लगा - देवजी वासपणी आ गये है, रावल ने शीघ्र ही सामने चलने की तैयारी की। रावल जी ने कहा- चलो देवजी के सामने स्वागत हेतु चलेगे। हालांकि देचजी ने मना किया है किन्तु हमारा कर्तव्य बनता है। रावल ने जाम्भोजी के लिये भेंट हेतु चावल, मूंग, घृत, मीठाई आटा आदि लेकर सजाया और अपने योग्य उमराओ को साथ लेकर वासणपी के लिये प्रस्थान किया। सामान आदि तो सवारियो पर रखा किन्तु रावल जी देवजी की आज्ञा को स्वीकार करते हुऐ जैसलमेर से पैदल ही चले। पांच कोश वासणपी गांव देवजी के पास अति शीघ्र ही पहुंच गये। रावल जी ने देवजी के चरणो में प्रणाम किया। देवजी रावल जी प्रेमभाव रखते थं। देवजी ने कहा - क्या बात है रावल ! दुखी क्यों हां रहे हो? तुम यहां तक सामनं क्यो आये? इतने जीवो को दुखित क्यों किया? प्रतिज्ञा एवं वचन मेटे नहीं जाते पूर्ण किये जाते है। इस प्रकार से हाथ जोड़े खड़े हुएं रावल को एक मिट्टी का कलश प्रदान किया। यह वही कलश था जो सोनवी नगरी से लाये थे। जेतसी ने प्रार्थना करते हुऐ कहा - हे देव! आप तीनों लोको के मालिक, एक मुझ जैसे सामान्य मनुष्य के द्वारा निमन्त्रण देने पर आ गये। इससे बढ कर और मेरा क्या सौभाग्य होगा। अन्य गुरू तो संसार में बहुत है किन्तु वे तो कुगुरु, झूठा,पाखण्डी है। उनकी मैं क्या शरण लू। आप आ गये इससे बढकर और मेरा क्या सौभाग्य हो सकता है यदि मैं पांच कोश आपके सामने नहीं आऊ तो मानव कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। रावल ने वीनती की हे देव! मैं तुच्छ भेंट ले आया हूं इसको आप स्वीकार करे। आपके साथ आये हुऐ सं संतोषी जीमेगे तो मैं निहाल हो जाऊगा। मेरा यज्ञ यही पूर्ण हो जायेगा। इसलिये आप भोजन बनाने का आदेश दे। सभी लोग प्रथम भोजन करे फिर आगे जैसलमेर चले। देवजी के आदेशानुसार वही सभी ने भोजन बनाकर प्रसाद रूप में ग्रहण किया। देवजी ने कहा - हे रावल! आप इन लोगो को भोजन करवावो मेरा भोजन तो सभी जीवों की तृप्ति हो जाना ही है मैं तो स्वंय संतोषी हूं तथा दूसरों का पालण पोषण कर्ता हूं। हे राजन लेना देना परोपकार करना यही जीव की भलाई का मार्ग है। वही तुम्हे करते रहना चाहिये।
रावल जेतसी के साथ एक ग्वाल चारण भी था, उन्होने बिश्नोइयो की जमात देख कर कहा - हे देवजी ! आप तथा आपकी बात तो समझ में आती है। किन्तु ये आपके साथ में कौन लोग है? किस कुल, जाति,परिवार, समाज के लोग है।
उस समय जाम्भोजी की आज्ञा से साथ में रहने वाले तेजोजी चारण जबाब देते हुऐ कहने लगे - प्रथम तो ये लोग जाट कुल में पैदा हुऐ थे। अब इन्हें सतगुुरु जाम्भोजी मिल गये है तो ये लोग सुगुरु सुज्ञानी बिश्नोई हो गये है। ये लोग ज्ञान तथा पाहल से पवित्र हो गये है पूर्व कुल पलट गया है। क्योंकि उतम की संगति करने से पार उतर गये है, जिस प्रकार से लोहा लकड़ी की संगति करने से जल से पार उतर जाता है। ये लोग सतपन्थ के पथिक बन गये है। अब इस पन्थ को छोड़ कर कहीं नहीं जायेगे। अपवित्र से पवित्र हो चुके है। पुन: अपवित्रता में प्रवेश नहीं करेगे। पहले तो ये लोग ''जीÓÓ कीना ही नहीं जानते थे। गधे कूकर की तरह ही जो चाहे वही बोलते थे। इन्हें कोई नाम लेकर पुकारता था तो ये लोग '' होÓÓ कहकर ही बोलते थे। किन्तु अब'' जी जी ÓÓ कहते है। पहले तो ये काच की तरह नकली थे किन्तु अब कंचन बन गये है। काच तो सस्ता बिकता है किन्तु सोना महंगा बिकता है। ये लोग जाट ही थे जाटो की तरह ही रहते थे बिना गाली के बोलते भी नहीं थे किन्तु अब तो देवजी ने इनको बुद्धि प्रदान की है उसी बुद्धि से ही बोल प्रगट होता है इसलिये सुवचन बोल रहे है। ग्वाल चारण ने पूछा - इन लोगो ने सिर क्यों मुंडाया है? इनके कोई मर तो नहीं गया है? मरने पर तीजे दिन लोग सिर मुडाते है, मुझे इस बात का पता नहीं है इसलिये पूछता हूं? तेजो जी चारण ने कहा - माथो - सिर तो तीन अुगल ही है, जिसे मस्तिष्क कहते है, जहां पर कुदरती बाल लहीं ऊगते । जिसका जितना ललाट चौड़ा होगा उतना ही वह बुद्धिमान होगा। जहां बाल नहीं ऊगते वही तो सिर ही तो ज्ञान विद्या, ज्योति का केन्द्र है। बाकी सिर में बाल उगते है वहां ऐसा कुछ भी नहीं है जो विशेष हो सके। '' जड़ जटा धारी, लंघे न पारीÓÓ जटाऐ बढा लेना तो जड़ता मूर्खता अज्ञानता का परिचायक है। ललाट की तरह ही सिर रखना बुद्धि ज्ञान का विकास करना है। इसलिये ये लोग गुरु मुखी हुऐ है। सिर मुंडाया है।
इन्होने अपने प्रियजन मार दिये है जो सभी को मारते है जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या आदि ये तो संसार में सभी के पीछे लगे है संसार इनके पीछे लगा है किन्तु इन भक्तो ने इन सेनाओ को मार कर सिर मुडांया है। हे ग्वाल! ऐसी व्यर्थ की बात मत बोल। सुन्दर शब्दो का उच्चारण करो।
आगे पुन: तेजोजी ने बतलाया - मोडा साधु को देखकर लोग आदेश करते है। हाथ में माला होती है तो राम राम कहा जाता है, मुसलमान को सलाम कहा जाता है सभी का अपना अपना अलग मार्ग है अपनी अपनी पहचान है। सभी अपने अपने मार्ग पर चलकर तो अवश्य ही पहुंच जायेगे। बाह्यवेश भूषा से व्यक्ति की पहचान होती है जाम्भोजी ने इनकी अलग पहचान हेतु भी इनका सिर मुडांया है, इन्हें साधु बनाया है। क्योकि ये लोग मोडा है। इन्होने मोह को ढाह लिया है। सिर से नीचे गिरा दिया है। कौन नुगरा, कौन सुगरा, कौन साधु,कौन असाधु, कौन भक्त की पहचान वेश भूषा से होती है इसी को देखकर वन्दना की जाती है मूंडत सिर भक्त का बाना है इसलिये भक्त को प्रणाम ज्ञानी लोग करते है। मूंड मुंडाये हुएं भक्त संतो की,भूत प्रेत उपासक लोग निन्दा करते है। वे लोग पाप पुण्य को नहीं जानते। निनाणवे करोड़ राजा हुऐ है जो गुरु की शरण में जाकर सन्यास धारण किया है मूंड मूंडाये है। तो सिर मुडाना कोई बुरी बात नहीं है।
कितने लोग इस समय गुरु की बात को सुन कर के अपने जीवन को धन्य बनाया है। अपनी कुल परंपरा को छोड़ कर के सतपन्थ के अनुगामी बने है। हे ग्वाल! आप मुझे ही देखिये मैं भी तुम्हारा ही भाई चारण हूं, मैं भी अन्य लोगो की भांति पाप कर्म में डूबा हुआ था। मैं देवजी की शरण में आया,अपने कुल को पलट दिया, सतपन्थ का अनुगामी हुआ। पापो को छोड़ कर असली चारण मैं अब हुआ हूं। पहले चारण नहीं था मारण था, किन्तु अब मारण से चारण बना हूं। अब मैं किसी को मारता नहीं चारता हूं यही ज्ञान मुझे यहां प्राप्त हुआ है, यह सतगुरु का ही उपकार है।
उसी समय रावल जेतसी ने कहा - चंदन अपनी संगति से अन्य वृक्षो का भी सुगन्धित कर लेता है। नींब भी अपनी संगति से अपने जैसा कड़वा अन्य को बना देता है। किन्तु यदि बांस चंदन के साथ उग जाये तो उसे चंदन भी अपने जैसा सुवासित नहीं कर सकता, क्योंकि बांस के गांठे होती है, सुगन्धी को वे गांठे प्रवेश नहीं होने देती। यही सतगुरु की पहचान है।
यदि कोई व्यक्ति बांस की तरह होगा तो सतगुरु की संगति चंदन की भांति कुछ नहीं कर पायेगी। पारस तांबै के साथ रखी जावै तो वह पारस तांबै को सोना बना देती है, मीठा कड़वे के साथ रखा जावे तो मीठा कड़वे को भी मीठा बना देता है। गुरु मिलने का यही उपकार है, सभी कुछ पलट देते है।
ये सतगुरु तो जल का दूध,नींबो के नारियल करते है। लोहे को पलट कर कंचन करते है,मैं तो जैसलमेर का राजा कहा जाता हू। झूठ, कपट, पाखण्ड में विश्वास नहीं करता। मैंने जाम्भोजी में सच्चाई देखी है तब मैं विश्वास को प्राप्त हुआ हूं।
ग्वाल चारण जेतसी से विनती करने लगा - मैं चारण कविता करता हूं किन्तु जाम्भोजी के बारे में झूठा अक्षर नहीं जोड़ पाता। मैंने कई बार प्रयत्न करके देखा भी है किन्तु खाली ही रहा हूं, न जाने मुझे जाम्भोजी का कोई शाप है अब मुझ पर कृपा करेगे। मैं अपनी भूल की क्षमा चाहता हू।
बहुत बात हो गयी अब चढो चढो कहते हुऐ जाम्भोजी के आदेशानुसार सेवक गण एवं रावल जी जैसलमेर के लिये रवाना हुऐ। रावल मन में खिन्न था कि मैंने मालिक को बहुत कष्ट पहुचाया है परन्तु अब मैं साक्षात दर्शन कर रहा हूं। इस प्रकार से सहज भाव से जैसलमेर में प्रवेश किया। जैसलमेर के राज दरबार में न जाकर जैत संमद पर ही जांभोजी ने आसन लगाया। सम्पूर्ण शहर में जय जय होने लगी। प्रजागण, स्त्री पुरूष गुरु जी के चरणो में नमन करते हुऐ दर्शन लाभ करते हुऐ कृतार्थ हो रहे थे। गुरूदेव की सभा देव लोक की सभा की भांति शोभायमान हो रही थी। जिसने भी देखा उन्हीं के पाप एवं संशय का विनाश हुआ। जिस प्राणी के अन्दर कभी झूठ कपट की वासना नहीं उभरती सदा ही प्रिय हित कर बोलता है, जप तप सद क्रिया में लीन है ऐसे सुगुरू जन की भाट लोग बिड़दावली गाते है।
रावल कहने लगा - हे देव! अब मुझे आगे क्या करना है वह आप ही आज्ञा प्रदान करे। जैसा आप कहेगे वैसा ही मैं करूंगा, मैं आपका सेवक हूं, जब तक आप आज्ञा प्रदान नहीं करेगे तब तक मेरा मन शांत नहीं होगा।
देवजी ने कहा - प्रथम आज्ञा तो मेरी यह है कि तुम्हारे ठाकुर, मित्र, सम्बन्धी राजा प्रजा लोग तुम्हारे से मिलने के लिये आये है तुम्हारी भेंट हेतु बकरे लाये है, जो तम्बूओ में बन्धु खड़े है, ये सभी कटेगे। ये जीव निरपराध है इन्हें छोडऩा होगा। इन जीवो को अमर करदो। यह पुण्य का कार्य करो यह प्रथम वरदान है।
दूसरी बात यह मान्य होगी कि तुम्हारे राज्य में जहां पर भी भेड़,बकरिया बकरे को जन्म देती है उसे ये तुम्हारे लोग मार कर खा जाते है। उन जीवो को बचाना होगा। इसके लिये'' अमर रखावै ठाटÓÓ जीवो को मरने न दे उनका पालण पोषण करे, यह तुम्हारे लिये दूसरा नियम होगा।
तीसरी आज्ञा यह है कि जहां तक तुम्हारे राज्य की सीमा है और तुम्हारी शक्ति चलती है वहां तक वन्य जीव मारने वाले शिकारी से जीव जन्तुओ की रक्षा करो। जितने जीवो की रक्षा होगी उतनी ही तुम्हारे राज्य में सम्पन्नता आयेगी। सदा खुशहाली बनी रहेगी। जीव को मारकर अपना पेट भरोगे तो वे जीव आपको सुख नहीं दे सकते। उन्हीं जीवो की तरह तड़प तड़प कर मरोगे। यही तीसरा वरदान आज्ञा है इसे पालन करो।
चौथी आज्ञा यह है कि तुम्हारे राज्य में चोर बहुत है। दूसरे राज्य की सीमा से पशु चोरी कर के लक आते है और तुम्हारे राज्य की सीमा में प्रवेश करते ही चोर साहुकार हो जाता है। पीछे उनका मालिक ढुंढने आता है किन्तु उसे कुछ भी नहीं मिलता है, यह अन्याय हो रहा है। इस अन्याय को रोकना होगा तुम्हे जिसका पशु है उसका वापिस दिलाना होगा, तभी न्याय होगा। प्रजा के साथ न्याय करोगे तभी तुम सच्चे अर्थो में राजा कहलाने के अधिकारी होगे। यही चौथी आज्ञा है।
पांचवी आज्ञा यह है कि जो लोग बिश्नोई बन गये है वे लोग आप के पास न्याय हेतु आये तो उन्हें न्याय देना। बिश्नोइयो से जगात - कर नहीं लेना उन्हें माफ कर देना क्योंकि ये लोग पूर्णतया धार्मिक है ये लोग हरे वृक्ष नहीं काटते, जीवो को नहीं मारते और नहीं मारने देते। खेती करते है,यज्ञ करते है,इससे राज्य में खुशहाली बनी रहती है राज्य दिन चौगुना अभी वृद्धि को प्राप्त होता है। यह पांचवी आज्ञा है इसका पालन करो।
इन पांच नियमो पर चलने का जेतसी से संकल्प करवाया देवजी ने कहा - हे राजन! यदि तू इन नियमो का पालन करते हूऐ राज शासन चलायेगा तो तुम्हारा इह लोक एवं परलोक दोनो ही बन जायेगे। हे वील्हा! उस प्रकार से जैसलमेर गढ के अधिपति के ऊपर धर्म न्याय एवं मर्यादा की छत्र छाया की। देवजी द्वारा जीवो की रक्षा का दिया हुआ वचन पालन किया। न जाने कितनो जीवो रक्षा जेतसी के यज्ञ में हुई तथा आगे के लिये भी जीव रक्षा का बिड़ा उठाया। धन्य धन्य है जीवा धणी। जो पापो पर प्रहार करते है। जेतसी ने देवजी की आज्ञानुसार सभी जगह ढिंढोरा पिटवा दिया, आज से आगे अब कोई राज्य में जीव हत्या नहीं करेगा, कोई बावरी शिकारी आदि जीव नहीं मारेगे। यह घोषणा सभी ने सुनी और राजा व प्रजा दोनो ने ही बहुत बहुत धन्यवाद किया। मरते हुऐ जीवो को बचाया यह कार्य तो सतगुरु के आने से ही संभव हो सका।
वील्हा उवाच - हे गुरुदेव ! सुना है कि उस समय एक कन्या का विवाह भी किया था। एक बारात का स्वागत राजा ने किस प्रकार से किया था। क्योकि अनावश्यक प्राचीन पंरपरा के तो जाम्भोजी विरोधी थे। उन्हें तोडऩे की सलाह देते थे। जाम्भोजी का सिद्धान्त तो प्रगतिशील था। जेतसी के यहां नयी परंपरा कौन सी प्रारम्भ की, वह कैसी पंरपरा थी मुझे बतलाने का कष्ट करे।
नाथोजी उवाच - हे शिष्य! जब मांसाहार का पूर्णतया त्याग करवा दिया तब जेतसी ने बारात का स्वागत शाकाहारी भोजन से किया। अनेको प्रकार की मिठाइया शाक पात यही मानवाचित एवं प्रिय भोजन है यही करना उचित था वही जेतसी ने किया। भोजन का समय होने पर मेहमानो को आमन्त्रित करके बुलाया उन्हे पंक्ति लगा कर के बिठाया गया। अलग अलग थालिया रखी गयी। भोजन वितरण करने वाले सेवको ने झूठन से बचा बर भगवान के लगा हुआ भोग प्रसाद के रूप में प्रदान किया।
भगवान का प्रसाद मान कर भोजन करने से उन आये हुऐ आगन्तुको का मन शुद्ध पवित्र हुआ। जिस यज्ञ को श्री देवजी ने स्वंय जैत संमद की प्रतिष्ठा हेतु किया था उनके प्रसाद का तो फिर कहना ही क्या था। जो भी भोजन करते गये शुद्ध पवित्र होते गये। यही तो उनके चमत्कार की महिमा थी।
भोजन के पश्चात् विवाह का कार्यक्रम हुआ मुहूर्त के अनुसार चंवरी मांडी गयी। चारो तरफ खूंटी रोप कर सूत फिराया गया।घड़ा जल का भर कर वेदी पर रखा गया। वेद मन्त्रो द्वारा कलश की स्थापना हुई। वासुदेव की वन्दना द्वारा विवाह का कार्य प्रारम्भ हुआ। अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये गोत्राचार पढा गया। हवन प्रंचड होने पर वैदिक ब्राह्मणों ने वेद मन्त्र पढ कर यज्ञ में गो घृत की आहुति दी गयी। जैसा श्री देवजी ने बतलाया उसमें फर्क नहीं आने दिया। प्रथम ओउम शब्द का उच्चारण किया। विप्रो ने वेद मन्त्रो का सस्वर उच्चारण किया। सुनने मे कर्ण प्रिय लगते थे। महिलाऐ सोलह श्रृंगार करके मंगल गीत गाने लगी। कन्या एवं दूल्हे का हथलेवा करे शाखोचार पढकर के कन्या का विवाह राजा ने विधि पूर्वक किया। अन्त में अग्नि की परिक्रमा कर के फेरा कार्य पूर्ण किया।
अपनी शक्ति के अनुसार रावल ने कन्यादान किया। जो वहां उपस्थित दान देने के अधिकारी थे उन्हें यथा योग्य दान देकर संतुष्ट किया। सभी याचको ने सन्तुष्ट होकर जेतसी को धन्यवाद दिया।जिस प्रकार से पाण्डवो ने यज्ञ किया।पाण्डवो के यज्ञ में भगवान कृष्ण उपस्थित थे उन्हे आशीर्वाद दे रहे थे। जेत संमद की प्रतिष्ठा हुई, राव जेतसी ने अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न किया, सभी कार्य देवजी की कृपा से पूर्ण हुऐ। रावलजी ने विनती करते हुऐ - आपकी अति कृपा से में कृतार्थ हुआ। किन्तु मेरी एक इच्छा है कि आप अपने शिष्य बिश्नोई को मेरे राज्य में बसाओ।उनकी प्रेरणा से हमाररी प्रजा भी सुखी क्रियावान हो सकेगी। हे देव ! आप तो सम्भराथल चले जायेगे किन्तु मैं आपके शिष्य का दर्शन करके कृतार्थ हो जाऊंगा। सतगुरु देव ने जमात में खबर पहुचाई कि आप में से यहां जैसलमेर बसने के लिये कौन तैयार है? जमात में से लक्ष्मण एवं पाण्डू गोदारा ने सतगुरु की बात को सहर्ष स्वीकार किया। और लक्ष्मण पाण्डू को खरीगे गांव में बसाया। धन्य है ऐसे भक्त जन जो गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके अपने जन्म को सफल कर लिया।अपनी जन्म भूमि छोड़ कर लक्ष्मण पाण्डू खरीगें गांव में सदा सदा के लिये बस गये। देवजी ने कहा - हे जेतसी ! तुम्हारे राज्य में ये दो भक्त बसेगे। जिस राज्य में भक्त निवास करते है, जहां पर क्रिया कर्म संयम आदि नियमो का पालन होता है, विष्णु का जप, यज्ञ होता है उस राज्य में किसी प्रकार की विपति नहीं आयेगी। सदा खुशहाली बनी रहेगी। ऐसा धर्म का प्रभाव है। इस धर्म की नींव तुम्हारे राज्य में पड़ चुकी है।
जेतसी ने हाथ जोड़ कर देवजी के आशीर्वाद को शिरोधार्य किया। कृष्ण चरित्र के प्रभाव को अपनी आंखो से देखा। स्वीकार किया कि यह जैसलमेर गढ मर्यादा में बंधा रहेगा तो कभी पलटेगा नहीं। पुन: रावल ने हाथ जोड़ कर विनती करते हुऐ कहा -हे देवजी ! आपकी कृपा से मेरा यज्ञ सफल हुआ। मुझे किसी प्रकार का कलंक नहीं लगा। मैने आपकी कृपा से अन्न धन बहुत ही खर्च किया किन्तु किसी बात की कमी नहीं आई। आपकी कृपा से दिन दूनी रात चौगुनी बढती ही गयी। हे देव ! जैसा आपने कहा वैसा ही मैंने किया। आपके दर्शनसे मेरे पाप प्रलय हो गये। क्यों न होगा हमारा यज्ञ पूर्ण करने आदि गुरु साक्षात विष्णु हमारे यज्ञ में पधारे है। मेरा भाग्य बलवान है जो मैं आपका सेवक बना।
रावल ने एक विनती करते हुऐ कहा - हे देव ! इस कलयुग में जीवो का उद्धार कैसे होगा। सुना है कि कलयुग में जीवो की मुक्ति नहीं होती। यह मेरी श्ंाका थी उसका समाधान मुझे मिल गया। एक बार जाम्भा सरोवर का जल चलू भर पीलू तो मेरे सम्पूर्ण झंझट कट जायेगे। जन्मो जन्मो तक मुनि लोग यत्न करते है, धोती आसमान में अधर सुखाते है, कुण्डलिनीआदि जागृत करके योग करते है, कठिन तपस्या करते है, उनको भी युक्ति मुक्ति संभव नहीं है किन्तु मेरा धन्य भाग है जो मुझे मुक्ति का वरदान मिला। आवागवण मिटाकर के श्री देवजी ने स्वर्ग - मुक्ति का वरदान किया। रावल कहने लगा - केवल मैं ही अकेला नहीं हूं, देवजी के कृपा पात्र दिल्ली का सिकन्दर लोदी, महमंद खां नागौरी, मेड़ते रा दूदा राव,जोधपुर नरेश सांतल, चितौड़ का सांगा राणा, बीकानेर का लूणकरण, जेतसी एवं अजमेर का महलूखान आदि अनेक राजा लोग कृपा पात्र बने। हे वील्हा ! रावल जेतसी धन्यवाद का पात्र है जिन्होने जाम्भोजी की आज्ञा का पालन किया, और परोपकार का कार्य जाम्भोलाव तालाब खुदवा कर दिया। विष्णु का जप करते हुऐ मुक्ति के पथ के पथिक बने। अपने राज्य में जीव हत्या बंद करवायी। जैसमेर में यज्ञ करवाया, अपने राज्य में धर्म की नींव रखी। रावल जी के प्रति देवजी ने शब्द सुनाया - हे रावल ! गोरख को प्राप्त करो, वह भी साक्षात विष्णु है। गोपाल को प्राप्त करो वह भी गोपालक विष्णु ही है। इस धरती पर बड़े बड़े उथल पुथल हुऐ है किन्तु हम तो ज्यो के त्यों ही है।हमारे आदि मूल भेद को कौन जानते है। रावलजी को शब्द सुना कर श्री देवजी साथरियो सहित विदा हुऐ। रावल जी ने अश्रुपूर्ण नेत्रो से एक पलक निहारते हुऐ विदाई दी। पुन: दर्शन होगे इसी आशा से रावलजी अपने को संमयित कर के अपना कर्तव्य कर्म निभाया। श्री देवजी वापिस सम्भराथल पहुचें साथरिया प्रसन्न चित हुऐ, सभी ने प्रणाम किया।
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