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मांगलोद गंगा पार का जमाती आय उतरया, ऊदो नैण देवी को भोपा कहै- जमातियां इह महमाई नै पूजी र पाछा जावौ देव करै थौ देवी करसी। विश्नोई कहै देवी सुरग देसी। देवी ऊदै के घट आय बोली सुरगां मां क्यौइ नहीं सुरग मटा मटि थै पणि मेरे सारै सुरग कोई नहीं। ऊदो जमातियां के साथ देवजी के हजूरी आयो। विसनोई हुवौ। ऊदो कहै देवजी कहो तो महमाई का गीत गाऊ। जाम्भोजी श्री वायक कहै-
शब्द-99
ओ3म् विष्णु विष्णु तूं भणरे प्राणी, जो मन मानै रे भाई।
दिन का भूला रात न चेता, कांय पड़ा सूता आस किसी मन थाई।
तेरी कुड़ काची लगवाड़ घणो छै, कुशल किसी मन भाई।
हिरदै नाम विष्णु को जंपो, हाथे करो टवाई।
हर परहरि की आंण न मानी, भूला भूल जपी महमाई।
पाहन प्रीत फिटाकर प्राणी, गुरु बिन मुक्त न जाई।
पंच क्रोड़ी ले प्रहलाद उतरियो, जिन खरतर करी कमाई।
सात क्रोड़ी ले राजा हरिचंद उतरियों, तारादे रोहिताश हरिचन्द
हाटो हाट बिकाई।
नव क्रोड़ी राव युद्धिष्ठिर ले उतरियो, धन धन कुन्ती माई।
बारा क्रोड़ समाहन आयो, प्रहलादा सूं वाचा कवल जु थाई।
किसकी नारी बस्त पियारी, किसका बहिन रु भाई।
भूली दुनियां मर मर जावै, ना चीन्हों सुर राई।
पाहण नाऊं लोहा सक्ता,नुगरा चीन्हत कांई।
नाथोजी महाराज अपने शिष्य वील्हो के प्रति आगे की कथा सुनाते हुए कहने लगे- एक समय गंगा पार से विश्नोईयों की जमात सम्भराथल पर आ रही थी इससे पूर्व भी कई बार आ चुकी थी उनका पैदल आना कई लोगों को सचेत करना था पूर्व की जमात ने तो हास्म कास्म को सचेत किया था और दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी को सचेत किया था दूसरी बार भीयों पंडित को अपने साथ लेकर आये थे और उन्हें विश्नोई बनाया था।
इस बार विश्नोइयों की जमात गंगा पार से चल कर गंगा यमुना को पार कर के नागौर से पूर्व दिशा में गोठ मांगलोद में आकर तालाब के किनारे आसन लगाया था। तालाब के निकट ही गांव के बाहर महमाई का मंदिर था तालाब में स्वच्छ जल प्राप्त था। बिश्नोई लोग देवी के मंदिर में तो नहीं गये किन्तु तालाब के किनारे ही बैठे थे।
उस समय स्नान, संध्या, हवन कर रहे थे ज्योति का दर्शन एवं शब्दों की ध्वनि, घृत सामग्री की सुगन्धी, चारों तरफ फैल रही थी। मंदिर के पुजारी ऊदोजी नैण थे। ऊदोजी मंदिर में आरती नित्य प्रति करते थे किन्तु दीपक तेल का ही करते थे, वह भी छोटी चिराग तेल की उसमें वह दिव्य सुगंध कहां थी? ऊदो आरती गाता था किन्तु महमाई की ही गाता था आज पहली बार शब्दों की ध्वनि सुन रहा था? घृत आदि दिव्य पदार्थो की सुगंध ले रहा था।
ऊदा जल लाने के बहाने से तालाब पर गया था। ऊदै ने देखा कि यहां तो दिव्य देव सदृश शुभ्र वेश में भक्त विराजमान है। ये ही लोग हवन कर रहे है। हो सकता है कि हमारी देवी दर्शनार्थ आये होंगे, ये तो धनवान भी है, यदि आ जायेंगे चढावा करेंगे तो बहुत धन प्राप्त होगा मैं अभी शीघ्र चलता हूं, इनके आने की प्रतिक्षा एवं पूर्व तैयारी करता हूं, अपनी देवी को भोग लगाता हूं, खुश करता हूं, तो इन्हें अवश्य ही वरदान देगी, मेरी कंगाली अवश्य ही आज मिट जायेगी।
ऊदा वापिस मंदिर में पहुंचा और देवी को प्रसन्न किया। स्वयं भोपा बना, अंग में तेल लगाया, लाल तिलक किया, सिर की लंबी लंबी जटायें खोल दी, हाथ में जंजीर एवं लोहे का सरिया लेकर उछल कूद करने लगा, देवी ने भोपे के शरीर में प्रवेश किया, वह तो देवी नहीं थी कोई प्रेत ही था किन्तु लोग उसे देवी देवता कहते थे, पूजा होती थी।
ऊदा ऐसी विकराल अवस्था में अपने ही शरीर पर चोट मारता हुआ विश्नोईयों की जमात के पास पहुंच गया। बिश्नोईयों ने देखा और कहा- हे भाई! क्यों जुुल्म करता है? इस अपने ही शरीर को क्यों पिटता है? यह तो अन्याय है, ऐसा मत करो जो तुम्हें लेना है तो हम तो वैसे ही दान दे देंगे, इस पाखण्ड को करने की हमारे सामने आवश्यकता नहीं है।
ऊदो कहने लगा- आप हमारी देवी के मंदिर में चलो, वहां जो आपको चाहिये वही सभी कुछ मिलेगा, एक बार मस्तक झुकादो तुम्हारी सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाऐगी। बहुत देर से मैं आपकी प्रतिक्षा कर रहा था, आप लोग आये क्यों नहीं, आप लोग कहां से आये है? और कहां को जा रहे है, किस कार्य के लिये जा रहे है।
जमात के लोगों ने कहा- हम लोग गंगा पार पूर्व देश से चल कर आये है। सम्भराथल पर विष्णु जाम्भोजी के पास जा रहे है, वहां पर हमें जीया ने युक्ति मूवां ने मुक्ति मिलेगी अर्थात् युक्ति मुक्ति लेने जा रहे है। ऊदो कहने लगा- यदि युक्ति और मुक्ति यही पर देवीजी प्रदान कर दे तो आप लोग आगे नहीं जाओगे। जमात ने कहा- यदि ऐसी बात है तो आप अपनी देवी से पूछ ले, क्या वह स्वर्ग, युक्ति मुक्ति दे सकती है? यदि दे सकती है तो हम लोग देवी के मंदिर पर स्वर्ण कलश चढा देंगे।
ऊदे ने देवी को अंदर प्रवेश करवाया और कहने लगा- स्वर्ग मुक्ति आदि तो मेरे पास कुछ भी नहीं है स्वर्ग मटामट है अर्थात् केवल कहने सुनने की बात है मुक्ति नाम की भी कुछ वस्तु नहीं है जो नहीं है वह मैं कैसे दे सकती हूं, यह संसार ही सभी कुछ है आगे कुछ भी नहीं है और नहीं मैं कुछ जानती हूं यदि तुम्हें कुछ संसार की वस्तु चाहिये तो मैं कुछ उल्टा सीधा कर सकती हूं जैसे- किसी को लंगड़ा, बहरा, रूग्ण आदि करने में मेरा कुछ सहयोग हो सकता है।
विश्नोई कहने लगे हम जिनके पास जाते है वे तो पूर्ण परमेश्वर है हमें युक्ति मुक्ति प्रदान करेंगे- हे उद्धव! यदि तुम्हें भी चाहिये तो हमारे साथ चल, ऐसा कहते हुए ऊदे से देवी की पूजा छुड़वाकर साथ में ही सम्भराथल लेकर चले आये।
ऊदा भक्त मार्ग में चलते हुए विचार करने लगा न जाने क्या होगा, क्या मुझे वो सतगुरूदेव अपनायेंगे? मैं तो कुछ भी नहीं जानता, जिस देवी की पूजा करता था, उसका भय भी मुझे बना हुआ है। ये सभी लोग तो पूर्व परिचित है, सभी धनवान है, सभी ने अपनी अपनी भेंटे ली है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है विना भेंट मैं उनके पास सभी से अलग ही दिखने वाला पहुंचूगा तो क्या वो मुझे अपनायेंगे? मेरे पास भले ही कुछ भी नहीं है किन्तु मेरा प्रेम भाव तो है क्या मेरे प्रेम को ठुकराएंगे?
वे तो पूर्ण ब्रह्म अन्तर्यामी है, हृदय की भावना को जानते है, फिर भी अवश्य ही कुछ तो भेंट ले लेनी चाहिये, खाली हाथ जाऊंगा तो खाली हाथ लौट आऊंगा, ऐसा विचार करते हुए सम्भराथल मार्ग में नागौर से एक टके की खलीद ले ली, ज्यादा तो कुछ जेब में था भी नहीं, वापिस मंदिर में जाने का अवसर ही नहीं मिला था।
सम्भराथल सभी के साथ ऊदोजी भी पहुंचे वहां पर श्री देवजी की मुख शोभा देखी, ज्योति सदृश मुख मंडल चारों तरफ ही दिखाई दे रहा था। सभी ने अपनी अपनी अमूल्य भेंटे रखी, उदों संकुचाने लगे। मैं कैसे रखूं, इनके पास तो बड़ी कीमती वस्तुऐं है, मेरे पास तो पशुओं को चराने वाली खलि तो ही है। यह भेंट करने से तो ना करना ही ठीक है। ऐसा विचार करते हुए उदा सभी के पीछे ही बैठ गया।
जाम्भेश्वर जी ने ऊदे का नाम लेकर पुकारा- हे उदा! पीछे क्यों बैठा है आगे आजा, जो कुछ भी भेंट लाया है वह तो प्रेम रस से भरी है मुझे दे दे, ऊदा संकोच वश डरता डरता सामने आया कपड़े में बंधी अमूल्य भेंट ऊदे ने सामने रखी श्री देवजी ने कहा- उद्धव! तूं तो बहुत ही अच्छी भेंट लाया सभी को दिखाते हुए श्री देवजी ने कहा देखो उधव नारियल की गिरी लाया है, यह तो अमूल्य है हवन करने के काम आयेगी, उद्धव द्वारा प्रेम से भेंट की हुई खली भी नारियल बन गई।
ऊदो हाथ जोड़े हुए पास में खड़ा हुआ था, जाम्बोजी ने कहा- हे ऊदा तूं तो कवि है कुछ गा कर के सुनाओं, ऊदो कहने लगा- हे महाराज! यदि आप माताजी के भजनों के लिए कहो तो मैं सुना दूं, अन्य कुछ जानता ही नहीं हूं। पास में बैठे हुए लोग उपहास करने लगे कि देखो ऊदो कुछ भी नहीं जानता, यह तो निपट मूर्ख ही है न जाने यहां क्यों आ गया। श्री देवजी ने कहा- माता का तो तूं जानता है किन्तु कुछ पिताजी वाले भी तो सुनादे, ऊदा कुछ भी नहीं बोला, श्री देवजी ने ऊदे के सिर पर हाथ रखा, ऊदे के मन में हुलास- आनंद हुआ और आनंद में विभोर हो कर गाने लगा-
ओ गुरू आयों जाम्भराज देव, निज हक साच पिछाणियों।
जो साधां ने देवेलो पार, मुखि बोले अमृत बाणियां।
इमरत बाणी गुरूमुख बोलैं, सुरध सुध लीला पति।
देवां को गुरू विसन जाम्भौ, जतियां गुरू पुरो जति।
पार गिराय जीव वासो, जे हक साच पिछाणियो।
मानुष रूपी विष्णु आयो, मुखि बोले इमरत बाणियो।
इस प्रकार से श्री देवजी की स्तुति में ऊदे इस साखी का गायन किया, पास में बैठे हुए सज्जनों को आश्चर्य चकित कर दिया। कवि हृदय तो ऊदा था ही देवजी ने सिर पर हाथ रखा तो कविता सरिता की भांति बह पड़ी। ऊधो ने श्री देवजी की स्तुति करते हुऐ कहा- मैं आपकी शरण में तो आ गया हूं किन्तु मेरा भय अब तक नहीं मिटा है जिस प्रेत की मैं माता मान करके पूजा करता था उसने मुझे बहुत कष्ट दिया आज मुझे पता चला है कि वह तो मेरे साथ धोखा ही था मैंने अपनी जिंदगी वैसे ही बरबाद कर डाली है। हे देव! मेरा भय दूर कीजिये, श्री देवजी ने ऊदे का भय मिटाने हेतु यह विष्णु विष्णु भण शब्द सुनाया। जिसका भाव इस प्रकार से है-
हे ऊधा! तथा अन्य सभी लोगों! यदि आपको भय लगता है तो विष्णु विष्णु इस नाम का जप करो, रे भाई! यदि तुम्हें श्रद्धा विश्वास है, तुम्हारा मन नाम जप करने को राजी है तो अवश्य ही तुम्हारे भय को मिटा देगा। दिन का भूला भटका रात्रि को घर लौट आये तो वह भूला हुआ नहीं माना जाता, यदि रात्रि में भी घर नहीं आये तो चिंता होती है, इसी प्रकार से बाल एवं जवानी अवस्था में यदि ईश्वर को भूल गया तो कोई बात नहीं अब बुढापे में भी सचेत हो जाये तो वह संभल सकता है, बुढापे ने यहां से जाने की सूचना दे दी है, अब भी यदि सोया रहा सचेत नहीं हो सका तो किस आसा पर जी रहा है, तुम्हें कौन सहारा देगा, तेरी मृत्यु बिगड़ जायेगी तो दुर्गति होगी।
इस संसार में तो सच्चा झूठा संबंध गहरा है किन्तु कच्चे धागे की तरह इस लगाव को भी तोड़ा जा सकता है। इतनी गहरी मोह माया में फंसा होने से कुशलता कैसे हो सकती है। हृदय में विष्णु का जप करते हुए हाथों से शुभ कार्य करो। हे ऊदा हरि की मर्यादा तो छोड़ दी, भूला हुआ तुमने महमाई की पूजा सेवा की है महमाई तो केवल पत्थर की मूर्ति ही तो है इस प्रकार से पत्थरों की प्रीति छोड़ो।
गुरू की शरण हुए विना तो मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकते। गुरू की शरण ग्रहण करके और हरि की मर्यादा में रह कर के पांच करोड़ का उद्धार प्रहलाद ने सतयुग में किया था स्वयं प्रहलाद ने शुद्ध कमाई की थी तथा अपने अनुयायियों को भी प्रेरित किया था। त्रेता युग में हरिश्चन्द्र एवं उनकी धर्म पत्नि तारादे एवं कुंवर रोहिताश्व ने सात करोड़ का उद्धार किया था, स्वयं धर्म की रक्षार्थ हाट में जाकर बिक गये थे, किन्तु धर्म को नहीं छोड़ा था।
नौ करोड़ का उद्धार द्वापर युग में धर्मराज युधिष्ठिर ने किया था, उस माता कुन्ती को भी धन्य है जिन्होनें ऐसे पुत्र पैदा किये, उन्हें ऐसे दिव्य संस्कार प्रदान किये। श्री जाम्भोजी कहते है कि बारह करोड़ों का उद्धार करने हेतु मैं स्वयं आया हूं क्योंकि मैंने ही नृसिंह रूप में अवतार लिया था, उस समय प्रहलाद को वचन दिया था कि तुम्हारे तेतीस करोड़ों का उद्धार होगा अब तक पांच व सात व नौ करोडों का तो उदधार हो चुका है, बारह करोड़ अवशेष है उनका उद्धार करने हेतु मैें आया हूं।
कौन किसका है? कोई भी किसी का नहीं है, जिन्हें कहते है कि यह मेरी नारी है मैं इसका नर हूं, यह मेरी प्यारी वस्तु है, मेरी बहन, मेरा भाई, यह मेरा कुछ भी नहीं है। किन्तु दुनियां इसी भूल में भटक रही है। अनेकानेक जन्म मरण को प्राप्त हो रही है, मोह माया ग्रसित प्राणी उस विष्णु परमात्मा को अपना नहीं बनाते जो कि वास्तव में अपना ही है। जो अपना नहीं है उसे तो अपना मान रखा है।
हे ऊदा! तूं जिस पत्थर की मूर्ति की सेवा पूजा करता है उससे तो लोहा ही मजबूत है, लोहे की पूजा क्यों नहीं करता? सदा ही शक्तिशाली की ही पूजा करनी चाहिए, जिसका जैसा संग करोंगे तो उसकी संगति का फल भी अवश्य ही मिलेगा।
नाथोजी उवाच- हे वील्हा! इस प्रकार से यह शब्द ऊदेजी के प्रति श्री देवजी ने सुनाया और उससे कहा- कि तुम भक्त अधिकारी होने से पाहल लेकर विश्नोई पंथ में सम्मिलित हो जाओ, डरो मत, अब तुम बिश्नोई पंथ के पथिक हो गये इसीलिए अब तुम्हें किसी प्रकार के भूत प्रेत महमाई आदि से भय नहीं होगा।
यदि तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है तो तूं वापस अपने महमाई के मंदिर में जाओ और जाते समय यह पाहल का लोटा ले जाओ, जब तुम्हें भूत-प्रेत भय उत्पन्न करायेंगे तो तुम जल की कार दिला कर के बीच में खड़े हो जाना, फिर तुम स्वयं आश्चर्य देखना।
ऊदो भक्त जाम्भोजी की आज्ञा शिरोधार्य करके सम्भराथल से रवाना हुआ, ज्योंहि अपने गांव की सीमा में प्रवेश किया त्योंहि वह महमाई जो एक प्रेत के रूप में थी ऊदो के सामने बवंडर बन कर के आयी और डराने लगी, ऊदो जाम्भोजी के वचनानुसार जल की कार देकर बीच में खड़ा होकर विष्णु विष्णु जप करने लगा, वह बवंडर भैंतूलिया दूर दूर ही भयंकर ध्वनि करता हुआ वेग से दूसरी तरफ चला गया,
जाम्भोजी एवं जाम्भोजी की पाहल का चमत्कार एवं प्रताप ऊदे ने देखा तथा आश्चर्य चकित हुआ। वह महमाई हतास अवस्था में ऊदे को भयभीत करने के लिए कभी बैठूरा बनती, तथा कभी अग्नि के रूप में दिखाई देती, कभी सिंह बन कर गर्जना करती, किन्तु ऊदे ने तो श्री देव परमात्मा विष्णु की शरण ले रखी थी, भय निवृत हो चुका था। आखिर महमाई ही घबराकर ऊदे से कहने लगी-
हे ऊदा! तुमने तो सतगुरू को प्राप्त कर लिया है किन्तु मैं तो एक अवगति प्राप्त जीव हूं, मेरा इस प्रेत योनी में प्राप्त जीव का उद्धार कब होगा तुम्ही कोई उपाय करो, मेरे दुख का कोई पार नहीं है, मेरा वायु प्रधान यह अधम शरीर है, एक क्षण भी स्थिर नहीं हो पाता, मैं स्वयं इस शरीर से भोजन प्राप्त करने में असमर्थ हूं, तुम्हारे जैसे पुजारियों के शरीर में प्रवेश करके ही मैं भोजन प्राप्त करता हूं, अपनी स्वतंत्र सता नहीं है, मैं स्वयं पराधीन हूं, कभी कभी मेरे को मारा पिटा भी जाता है वह भी मैं किसी शरीर में रह कर ही सहन करता हूं, यह सभी कुछ मेरे कर्मो का ही फल है।
अब तूं ऊदा वही जा और मेरा भी किस प्रकार से उद्धार होगा यह विनती जाम्भोजी से करना। मेरी पूजा तो कोई दूसरा ही करेगा, मैं अपनी पूजा तो स्वयं किसी दूसरे से करवाऊंगा, अब तुम हमारे लायक नहीं हो क्योंकि तुमने पाहल ग्रहण करके देवताओं के नियम धारण कर लिया है, तुम्हारे पर हमारा वश नहीं चलता।
इस प्रकार से ऊदो अपने घर गया, लोगों ने बड़ा ही आश्चर्य किया कि महमाई का पुजारी-भोपाजी लौट आये है, न जाने एकाएक कहां छुप गये, अब हमारी विपदा दूर करेंगे। ऊदो ने कहा- अब आप लोग ऐसी आसा न करें, मैं अब भूत प्रेतों की पूजा नहीं करता, मुझे तो सतगुरू मिल गये है।
यदि आप लोग भी युक्ति मुक्ति चाहते है तो मेरे साथ चलो। अपने बुटुम्ब को लेकर ऊदो सम्भराथल आया और अपने परिवार को बिश्नोई पंथ में सम्मिलित किया। जाम्बोजी ने ऊदे को ऋद्धि सिद्धि प्रदान की और नैण गोत्र का विश्नोई बनाया।
जब संत महापुरूषों की संगति हो जाती है तो दुराचारी भी साधु बन जाता है जिस प्रकार से पारसमणि की संगति करने से लोहा पलट कर सोना बन जाता है और दही भी पलट कर घृत बन जाता है।
ऊदो मूलत कवि हृदय मानव थे, जाम्भोजी की स्तुति में ऊदे ने आरती, साखी, छन्द, कवित आदि की रचना की थी।ऊदो जी द्वारा रचित काव्य अति उच्च कोटि का है, उन्होंने जैसा प्रत्यक्ष देखा था वही यथार्थ कहा था। यथार्थ वक्ता एवं हजूरी कवियों में ऊदोजी का नाम अग्रगण्य है।

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