एक समं जाम्भेजी क हाथ कुटालौ लीयौ। जाम्भाजी थे कर था जको म्हे करस्या। जाम्भोजी कह गंगा की सीर छुटी थी। कलोथल हुव हार जीत। रह हारय थे वुरा कियौ। जाम्भोजी श्री वायक कह-
शब्द-100
ओ3म् जिंहि के खिंण ही ताऊं, खिण ही सीऊं।
खिणही पवणा खिणही पाणी, खिणही मेघ मंडाणो।
कृष्ण करंता वार न होई, थल सिर नीर निवाणो।
भूला प्राणी विष्णु जंपो रे, ज्यूं मौत टलै जिरवाणों।
भीगा है पण भैद्या नाहीं, पांणी मांहि पखाणों।
जीवत मरो रे जीवत मरों, जिन जीवन की बिध जांणी।
जे कोई आवै हो हो कर, आ प जै हुइये पांणी।
जाकै बहुती नवणी बहुती खवणी, बहुती क्रिया समाणी।
जांकी तो निज निर्मल काया, जोय जोय देखो ले चढिय़ो अस्मानी।
यह मढ़ देवल मूल न जोयबा, निज कर जपो पिराणी।
अनन्त रूप जोवो अभ्यागत, जिहिं का खोज लहो सुरबाणी।
सेतम सेतूं जेरज जेरूं, इंडस इंडू, अइयालो उरध जे खैणी।
एक समय श्री जाम्भोजी ने सभी के सामने कुदाला हाथ में लिया, उसी समय उपस्थित साथरियों ने जाम्भोजी का हाथ पकड़ लिया और कहने लगे- हे देव! आप यह क्या कर रहे है, हम लोग आपके पास इतने लोग बैठे हुए है जो कार्य आप करना चाहते है, वह कार्य हम कर लेंगे, आप स्वयं न करके हमें आज्ञा प्रदान कीजिए, हमें क्या सेवा करनी है।
जाम्भोजी ने बतलाया कि गंगा की एक धारा धरती के नीचे बहती हुई ईधर से जा रही थी। उस को मोड़ कर सम्भराथल पर लाने के लिए प्रयत्नशील हुआ था किन्तु आप लोगों ने रोक कर अच्छा नहीं किया है। आप लोगों ने इस थल पर हार जीत का सवाल उठा लिया है। आप लोग समझते हो कि हमारी हार हो रही है या रोकने से जीत हो रही है, इस हार जीत से ही तो अक्सर आया हुआ चला गया है। इस प्रकार से तो हार तुम्हारी ही होगी। न जाने कब तक हारते रहोंगे। कभी तो सचेत भी हो जाया करो,ऐसा कहते हुए श्री देवजी ने शब्द सुनाया-
प्रकृति में परिवर्तन प्रति क्षण होता रहता है किन्तु प्रकृति का नियंता स्वामी यथावत अपरिवर्तनशील रहता है। अति शीघ्र ही बदलने वाली प्रकृति स्वतंत्र नहीं है किन्तु पुरूष परमात्मा के अधीन है। एक क्षण में ही गर्मी आ जाती है, दूसरे क्षण में सर्दी का प्रकोप बढ जाता है, एक क्षण में वायु का वेग रूक जाता है, दूसरे ही क्षण वायु प्रकुपित हो जाती है। एक क्षण में ही जल सूख जाता है तो दूसरे ही क्षण में अपार जल आजाता है।
जो सम्पूर्ण भूमि को जल से भर देता है इसीलिए हे सज्जनो! एक क्षण के लिए ही इस सम्भराथल की भूमि पर गंगा जल की धारा आयी थी, किन्तु अब वो चली गयी है। उस क्षण का सदुपयोग नहीं हो सका है। यदि भगवान श्रीकृष्ण चाहे तो समय नहीं लगता, फिर भी इस धरती पर गंगा आ सकती है तथा पुन: जा भी सकती है, भगवान की इच्छा से तो इस सम्भराथल पर नीचे खोदने से जल प्रवाह मिल सकता है या बालुका पर तलाब खोदने से भी जल ठहर सकता है।
हे भूले हुए लोगो! विष्णु का जप करो, जिससे तुम्हारी अकाल मृत्यु एवं बुढापा टल जायेगा। आप लोग उपर से तो देखने में भक्त ही दिखते हो किन्तु उस जल में पड़े हुए पत्थर के जैसे हो जो जल में भीग तो गया है किन्तु जल अंदर प्रवेश नहीं कर सका है। यदि आप लोग जीवन जीने की विधि जानना चाहते है यानि जीवन जीना सीखना चाहते है तो जीवत मरो, तुम्हारे अंदर बैठे हुए दुश्मन काम, क्रोध, लोभ, मोह इन को मारो, इससे तुम्हारा अहंकार गिर जायेगा। तुम शुद्ध पवित्रात्मा रूप से जीवन जी सकोगे। ये पराये आये हुए मेहमान जो तुम्हारा भला नहीं चाहते, उनको तुम बाहर निकालो।
यदि आपके पास कोई अन्य व्यक्ति हो हो करता हुआ आता है कि इसको मारो मारो ऐसा कहता हुआ, वह व्यक्ति अग्नि का रूप है। इस आती हुई अग्नि के गोले को, क्रोधित व्यक्ति को जल से, मधुर वचनों से ठण्डा किया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति में बहुत ही नम्रता है, बहुत ही क्षमा भाव है, वह व्यक्ति क्रियावान है, उसमें सद्गुणों का समावेश है, उसकी यह पंचभौतिक काया अति निर्मल हो चुकी है। वह व्यक्ति प्रति क्षण सचेत है, सभी कुछ देखता हुआ दृष्टा साक्षी है, वही व्यक्ति स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त होता है। इन सदगुणों से रहित जन चाहे वह मठ में बैठा हुआ है, चाहे वह मूर्ति के आगे शिर झुकाता है किन्तु उसे जीवन जीने की विधि, जीवन के मूल का कुछ भी पता नहीं है।
हे प्राणी विष्णु का जप करो, किन्तु इतने प्रेम भाव से करो उसमें तल्लीन होकर ताकि दुराव मिट जाये, जीव ईश्वर की एकता हो जाये। प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान जो विष्णु अनन्त रूप में है, उसकी खोज करो। उसे खोजने के लिए वेद शास्त्र गीता आदि देववाणी में गं्रंथ विद्यमान है।
चार प्रकार की जीव योनियां है कुछ तो स्वेदज जो पसीने से पैदा होती है। अन्य जेरज जो जैर से पैदा होती है जो पशु मानव आदि। कुछ अण्डे से पैदा होती है जो पक्षी कहे जाते है। अन्य वृक्षादि उद्भिज जीव योनियां है। इन्हीं सभी में मानव जीवन अमूल्य है इसे व्यर्थ के वाद विवाद में तथा अनैतिक कार्य में डाल कर व्यर्थ न करे।
साथरियां कहै देवजी थांरी थेई जाणो। जाम्भोजी श्री वायक कहै-
शब्द-101
ओ3म् साच सही म्हे कूड़ न कहिबा, नेड़ा था पण दूर न रहीबा।
सता सन्तोषी सत उपकरणां, म्हे तजीया मान अभिमानूं।
बसकर पवणा बसकर पाणी, बसकर हाट पटण दरवाजों।
दशे दवारे ताला जड़ीया, जो ऐसा उस ताजों।
दशे दवारे ताला कूंची, भीतर पोल बणाई।
जो आराध्यो राय युद्धिष्ठर, सो आराधो रे भाई।
जिंहि गुरु के झुरैन झुरबा, खिरै न खिरणा, बंक तृबंके।
नाल पैनालै, नैणे नीर न झुरबा, बिन पुल बंध्या बांणो।
तज्या अलिंगण तोड़ी माया, तन लोचन गुण बांणो।
हालीलो भल पालीलो सिध पालीलो, खेड़त सूना राणो।
साथरियां सज्जन कहने लगे हे देवजी! आपकी लीला तो आप ही जाने, हम अज्ञानी जीव क्या जाने। श्री देवजी ने शब्द सुनाया- हे सज्जनो! मैं आप से जो भी कहता हूं वह सत्य ही कहता हूं। मैंने जो सत्य का अनुभव किया है वही बतलाता हूं। मैं आप से सुनी सुनाई बात नहीं कह रहा हूं । मैं आपके पास में ही हूं, दूर नहीं हूं। आपके अति निकट हृदय में ही मेरा निवास है। इसीलिए मैं आपकी एक एक भावना को जानता हूं।
श्री देवजी कहते है कि मैं सदा संतोषी हूं। मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिये, जो कुछ भी चाहिये वह तो मेरे पास बहुत है। मैं सदा ही परोपकारी हूं मैं इसीलिए परोपकारी हूं क्योंकि मान अपमान,अहंकार को छोड़ दिया है। अहंकारी व्यक्ति स्वार्थी होता है। मैं ही हूं अन्य मेरे बराबर न होवे यही तो क्षुद्रता को प्राप्त करवाती है। मैं स्वयं अपने आप में संतुष्ट आनंदित हूं क्योंकि मैंने बाह्य भोग पदार्थो का सेवन करना छोड़ दिया है।
दस दरवाजे शरीर के है, उनमें पांच दरवाजों से भोग्य पदार्थो का सेवन किया जाता है तो उनकी बाह्य वृति हो जाती है मैंने ये आंखे, कान, नाक, त्वचा, रसना आदि से विषयों का सेवन करना छोड़ दिया है,ये दरवाजे बंद कर लिये है, विषय प्रवेश द्वार बंद होगा तो प्रवेश कहां से करेंगे। मन की चंचलता भी प्राणायाम द्वारा मिटा दी है। इन्हीं दशो दरवाजों पर ताला लगा दिया है। अन्तर आत्मा की अनुभूति से मैं तुम्हारे सामने विद्यमान हूं। ऐसा कोई कुशल साधक होगा तो परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकेगा।
जब दशों दरवाजे बंद हो गये तो भीतर पोल शून्य बन जायेगा। बाह्य सांसारिक विचार वासनाओं से शून्य होकर एकाग्रचित प्रसन्नचित होगा। जिस प्रकार से राव युधिष्ठिर ने आराधना की थी उसी प्रकार से हे भाई! आराधना करो जिससे सफलता मिल सकेगी जो आप को बतलायी गयी है यही युधिष्ठिर की उपासना एवं धर्म का पालन है।
जिस गुरू परमात्मा के समीपस्थ हो जायेंगे अर्थात् वृति की एकाग्रता हो जायेगी तो फिर संसार के कितने ही कष्ट हानि आदि जायेगी तो फिर नहीं रोयेगा। जो विलाप करने के समय में भी विलाप नहीं करेगा। दुनियां विनाश शील है, यदि कुछ भी विनाश होगा तो भी तुम्हारा कुछ भी नष्ट नहीं होगा। तुम स्वयं अपने आप में स्थिर हो,
दुनियां राग द्वेष से परिपूर्ण है जब तुम आत्मस्थ योगस्थ हो जाओंगे तो दुनियां आपकी दुश्मन हो जायेगी, आप से टेढी चलेगी किन्तु उससे तुम्हारा कुछ भी टेढापन नहीं हो जायेगा। ऐसी ध्यानावस्था में योगी परमात्मा के अति निकट से भी अति निकट आ जाता है। जीव ईश्वर दोनों एक हो जाते है बीच की उपाधी तिरोहित हो जाती है। हर प्रकार की परिस्थिति में प्रसन्न चित रहेगा। छोटे मोटे दुखो से रोना छूट जायेगा। आंखो में दुख के आंसु नहीं बहायेगा।
संसार में लोग तो पुल या मार्ग से पार होते है किन्तु समाधिस्थ जन के लिये तो विना किसी सहारे के ही संसार सागर से पार हो जाना सुलभ है। ज्ञान समाधि में अवस्थित जन पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार करते है। अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है, तभी सांसारिक मोह माया टूट जाती है। साधना भक्ति भाव एकाग्रवृति से की जाती है, यह शरीर ही लोचन यानि देखने का अर्थात् साधना करने में सहायक है। इस शरीर से ही परमात्मा को प्रत्यक्ष कर सकते है अन्य शरीरों द्वारा असंभव है किन्तु धनुष की डोरी पर बाण चढता है तभी वह आगे लक्ष्य को बेध पाता है उसी प्रकार से यह शरीर भी अपने सहायक मन बुद्धि द्वारा ही लक्ष्य तक, परमात्मा तक पहुंच पायेगा क्योंकि इसी शरीर में ही तो सत्चित आनंद स्वरूप परमात्मा विराजमान है।
हे हाली! खेती करने वाले किसान! साधना करने वाले साधक! यदि तुम्हें खेती एवं साधना करनी है तो ऐसी युक्ति से करो जो सिद्धि की प्राप्ति हो जाये। खेती करने वाला कृषक शून्य एकान्त में जाकर खेती करें तो उसकी खेती सफल होती है।
उसी प्रकार से साधक भी एकान्त में बैठ कर सभी धारणाएं वासनाएं छोड़ कर मन की एकाग्रता का अभ्यास करे तो उसकी भी साधना सफल होगी। इस प्रकार से श्री देवजी ने साधना भजन भक्ति का मार्ग बतलाया जो सभी के लिए उपयोगी एवं तत्व प्राप्ति कराने वाला है।