वील्हो उवाच:- हे गुरुदेव! आपने मुझे अब तक जाम्भोजी के जीवन के बारे में अनेकानेक चरित्रों से अवगत करवाया। उन्नतीस नियमों का ही आपने अनेक तरीको से समझाया है। जाम्भोजी के मुख्य निवास स्थल सम्भराथल धाम की चर्चा मैनें श्रवण की है, जहां पर अनेक लोग आये थे। उन्होनें श्रीदेवजी का दर्शन करके जीवन को सफल बनाया था। जाम्भोजी द्वारा धरेहा के रूप में रखी हुई सफेद पोशाक चोला, चादर, माला अपने मुझे दी है और मुझे आपने शिष्य बनाया है मैं तो आपकी महान कृपा से कृत्य कृत्य हो गया हूँ।
मैनें देखा है कि जाम्भोजी के शरीर का चोला चिंपी और टोपी जांगलू गांव में मेहोजी थापन के घर पर रखी है। ये तीनों वस्तुएं जांगलू कैसे चली गयी? तथा जाम्भोजी की चिपी-भिक्षापात्र यह खण्डित देख रहा हूँ। यह पात्र खण्डित किसने और क्यों किया, यदि इसमें कोई रहस्मय बात हो तो बताने की कृपा करें। वैसे तो भगवान का जीवन चरित्र रहस्य से परिपूर्ण है। जितना मैं सुनता जाता हूँ, उतना ही आनन्द विभोर होता जाता हूँ क्योंकि भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है।
हे गुरुदेव! जो मैनें जााने की इच्छा की है और जो नहीं भी पूछ पाया हूँ मेरे लिए कथन करने योग्य है तो अवश्य ही कथन कीजिये, मैं आपकी शरण में हूँ। इस प्रकार से जिज्ञासा प्रगट करने पर श्री नाथोजी कहने लगे- हे वील्ह! अभी थोड़े ही समय पूर्व की बात है। रणधीरजी बाबल जाम्भोजी के परम शिज्ञष्य समाधि मन्दिर बना रहे थे। अभी मन्दिर पूर्ण भी नहीं हुआ कि रणधीरजी की किसी दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। सेखोजी थापन का मंझला बेटा मेहोजी ये तीन वस्तुएं लेकर जांगलू चले गये। एक टोपी तो अपने बड़े भाई चोखा के कहने पर वापिस दे दी किन्तु दो वस्तुएं चिंपी चोला जांगलू में ही रखे हुए हैं जो दर्शनीय है। इन बातों की विस्तार से चर्चा समय आने पर करूंगा। जो चिम्पी खण्डित रखी हुई है यह तो सेंसोजी कस्वां नाथूसर निवासी के घर पर खण्डित हो गयी थी। वहां पर जाम्भोजी भिक्षा हेतु गये थे।
वील्होजी उवाच:- हे गुरुदेव! आपने पूर्व में कहा था कि जाम्भोजी तो भिक्षा भोजन नहीं करत थे, तब वो सैंसं के घर पर भिक्षा लेने के लिए क्यों गये थे? तथा चिम्पी खण्डन होने की कथा विस्तार से बतलाने की कृपा करें।
नाथोजी उवाच:- हे शिष्य! यह बात तो तुमने सत्य कही कि जाम्भोजी भोजन नहीं जीमते थे किन्तु अहंकारी भक्त सैंसे का गर्व खण्डित करने के लिए जाम्भोजी का जाना हुआ था। इस वार्ता को विस्तार से मैं बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो- नाथोजी कहने लगे कि मैं इस घटना का प्रत्यक्षदृष्टा हूँ-
एक समय सम्भराथल पर विराजमान सतगुरु देव ने नाथूसर गांव एवं पांचू बीच में झींझाला धोरा पर जाने की इच्छा की। उसी समय ही साथरियोंं भक्तों ने भी साथ ही चलने की प्रार्थना की। श्रीदेवजी ने सभी को साथ में चलने की आज्ञा प्रदान की। उसी समय ही सभी ने ही अपने ऊँट और घोड़ा आदि जोते और नाथूसर की तरफ चल पड़े। सभी संत-भक्तजन कीर्तन करते हुए देवजी के साथ ही रवाना हुए और उनकी शोभा अतिसुन्दर थी। स्वयं विष्णु ही देवताओं के साथ कहीं मृत्युलोक में किसी को निहाल करने ही जा रहे थे। सफेद रंग के बैल हंसों के समान अपनी उज्जवलता को प्रदर्शित कर रहे थे। रंग-बिरंगे ऊँट घोड़ा एकत्रित चलता हुआ मेघ वर्ण, एवं गर्जन करते हुए वर्षा की शोभा को भी शोभित कर रहे थे। राग ध्वनि, साखी, शब्दों की, इन्द्र राज्य में गन्ध्र्वों के गान को भी मन्द कर रहे थे। बीच के गांवों को सुशोभित करते हुए आज स्वयं हरिजी न जाने क्यों झींझाले धोरे पर जंगल में मंगल करने जा रहे थे। इस बात का तो कुछ पता नहीं था। जयजयकार की ध्वनि सुनाई पड़ती थी। आज क्या हो रहा है, शांत सुरम्य वातावरण में आज सुगन्धी क्यों आ रही है। नासिका अपने विषय को ग्रहण कर रही थी। आंखे रूप देखने को तरस रही थी। यही कारण था कि गांवों के लोग एकत्रित होकर अपनी आंखों से रूप को देखकर अपने जीवन को सफल कर रहे थे।
जब श्रीदेवजी अपनी भक्तमण्डली सहित झींझाले धोरे पर आ गये थे। चारों तरफ गांवों के लोगों ने सुना तो दर्शनार्थी आसपास के गांवों के लोग एकत्रित होकर आने लगे। जांति-पांति के भेद, भाव को छोड़कर पूर्व श्रद्धा भाव से एवं विश्वास से आ रहे थे। पास में आते चरणों को प्रणाम करते, कुछ लोग अत्यधिक भावुक हो जाते। अपने सुख दु:ख की बात त्रिकम जी से करते। ओ३म् विष्णु की ध्वनि से वह धोरा की धरती गुंजायमान हो रही थी।
इसी प्रकार से नाथूसर गांव वासी भी अपने सिरदार सैंसोजी भक्त के साथ नृत्य करते हुए हर्ष खुशी के साथ झींझाले धोरे पर पंहुचे। अपनी अपनी अभिलाषा लेकर देवजी के पास अपार जन समूह आ रहा था। सैंसे ने सर्वप्रथम देवजी के पास आकर पूछा- हे देव! यदि आप आज्ञा प्रदान करें तो हम लोग जमात के सहित आपके चरणों में प्रणाम करे तो हम लोग आपके प्रताप से पार पंहुच जाये।
देवजी ने कहा- हे सैंसा! अवश्य ही आप लोग तिरने की योग्यता रखते हैं। किन्तु अब तक तैरना जानते नहीं है। मैं तुम्हें तैरना सीखाने के लिए हो तो आया हूँ। नर नारी अपनी भेंट श्रीदेवजी के चरणों में रख रहे थे। कहां कहां किस किस वन में प्रहलादपंथी जीव बिखरे हुए हैं उन्हें सचेत करना होगा। इसलिए उस रात्रि में निवास श्रीदेवजी ने झींझाले पर ही किया।
गावों की आगन्तुक जमात ने वापिस अपने घरें में जाने की आज्ञा मानी। नाथूसर के सैंसे ने भी आगे बढ़कर हाथ जोड़े और कहने लगा- आपने बड़ी कृपा की जो हमारे जंगल में पधारे हैं। हे गुरुदेव! आप अपनी मण्डल्ी सहित अन्नपान करे और हम लोग वापिस अपने घर को जायें। आपके पास पूरे दिन सत्संग में युक्ति-मुक्ति का मार्ग सीखा। अब रात्रि होने वाली है, हमें घर जाने की आज्ञ दीजिये।
हे गुरुदेव! आपने सम्पूर्ण जमात को कुछ न कुछ सीख अवश्य ही दी है, मेरे लिए कुछ भी नहीं कहा। मैं क्या इस योग्य नहीं हूँ जो आपके वचनों का पालन न कर सकूं। श्रीदेवजी ने सैंसे भक्त का भाव देखकर कहा- हे सैंसा!
भाव भल सूं दीजौ भीख, साम्य कह संसा आ सीख।
भाव भक्ति से भूखे को भोजन देना यही तुम्हारे लिया शिक्षा है। सैंसे के मन में यह सीख जंची नहीं। सैंसा कुछ सोचने लग गया। न तो कुछ हां कह सका और न हीं कुछ ना ही कह सका। साथरियों ने कहा- हे सैंसा! जैसा सतगगुरु कहते वह ठीक ही कहते हैं। उनकी बात को स्वीकार करके पालन करे।
श्रीदेवजी ने साथरियों से कहा- सैंसे ने मेरी बात सुनी तो अवश्य ही है किन्त्ु यह इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है। यह भक्त तो अच्छा है किन्त्ु अहंकारी भक्त है। सैंसो कहने लगा- हे देव! मैनें तो दान देते हुए सम्पूर्ण पापों का नाश कर डाला है। मैं तो भाई बन्धु, न्यात-जमात को एकत्रित करके इन्हें भोजन करवाता हूँ। अब इन्हें और भी जिमाऊंगा।
हे देव! मैँ तो घर पर आये हुए अतिथि सधु संतों को अच्छी प्रकार से प्रे से भिक्षा देता हूँ। घर पर आये हुए अतिथि को ना तो मैं कभी कहता हूँ नहीं हूँ। आप भी मेरे घर को देखे मेरे घर को सारा संसार जानता है। केवल आप ही शायद नहीं जानते, इसलिए तो अपने ऐसी बात कही है।
श्रीदेवजी ने सैंसे भक्त तथा उनकी मण्डली को जाने की आज्ञा प्रदान की और सैंसे के चले जाने पर साथरियों से कहा- हे भक्तों! सैंसे का भण्डारा, अतिथि सेवा अवश्य ही देखूंगा। सैंसा कहता था कि आपने अब तक देखा नहीं है।
संसार के लोगों ने तो देखा है। स्वयंकत्र्ता अलख पुरुष ने अन्य ही रूप धारण कर लिया। दूसरा ही रूप, दूसरी ही बोली, दूसरी ही वेशभूषा। सरसा सीस बधारया केशा। सिर के बाल लम्बे बढ़ा लिये, भगवान की भक्ति बिना कौन पहचान सकता है।
हरि ने पतरी-चिपी अपने हाथ में ले ली। अन्य किसी भक्त संत को साथ में नहीं लिया। अकेले ही सैंसे के घर जाकर अलख जगाई। सम्पूर्ण संसार जिनके आगे भिक्षुक बनकरके कुछ न कुछ माँगता है। वह जगजीवन-मालिक आज सैंसे के घर भिक्षा के लिए पंहुच गये। भगवान की अहैतु की कृपा होती है तभी भगवान उसके अज्ञान जनित गर्व का भंजन करते हैं।
सैंसा तो घर पंहुचा ही था, संध्या वेला थी। गुरु के नियम का पालन करते हुए संध्या करने को बैठा ही था। जगत स्वामी ने सैंसे के घर पर अलख जगाते हुए कहा- सत विष्णु की बाड़ी। हे देवी विष्णु के नाम से भिक्षा दो। आपकी बाड़ी हरी-भरी रहेगी। सैंसा भक्त संध्या कर रहा था। अन्दर से आवाज सुनी और कहने लगा-
इस संध्या बेला में मैं यह क्या सुन रहा हूँ। होगा कोई कंगाल पुरुष, फलसा-किवाड़ बंद कर दो। सैंसे भक्त ने बात तो बड़ी विचार के कही थी, क्योंकि यह बेला संध्या की थी। इस बेला में तो भगवान के दर्शन ही होना चाहिये थे किन्तु सैन्से ने तो अकस्मात कुपात्र के दर्शन कर लिये। सैंसे की आज्ञा को शिरोधार्य करके सैंसे की धर्मपत्नी दौड़कर सामने आयी कि यह कहीं अतिथ आंगन में न आ जाये, पहले ही इसे रोका जाये।
सैंसे की नारी कहने लगी- मैनें तुझे देख लिया है तूं हमारे घर में प्रवेश करने के योग्य नहीं है। बाहर चलो। श्रीदेवजी ने सैंसे की धर्मपत्नी की इच्छा समझली कि यह कुछ भी नहीं देगी किन्तु इससे बिना कुछ प्राप्त किये वापिस जाना भी तो नहीं है, इसलिए खिड़की को पकड़ लिया। खिड़की छूट गयी तो फिर यहां कुछ भी नहीं मिलेगा यहां आना व्यर्थ ही हो जायेगा।
गृहलक्ष्मी कहने लगी- हे योगी! खिड़की पकड़े हुए क्यों खड़ा है? जिस प्रकार कर्जा लेने वाला खड़ा रहता है उसी प्रकार से खड़ा हुआ क्या देख रहा है। हमने तुम्हारे से कर्जा तो नहीं लिया है। मालिक ने तो खेल रच दिया था। खिड़की को और मजबूती से पकड़ लिया थ। श्री देवजी कहने लगे- हे लक्ष्मी! तूं तो साक्षात गृहलक्ष्मी है, विष्णु तुम्हारे पर प्रसन्न है, मुझे खाली मत भेज। कुछ तो अवश्य ही दे, पहले भी आपने बड़े-बड़े दान दिये हैं, अभी-अभी देवजी के पास दान देकर लौटै हैं, मैनें जब गांव में प्रवेश किया था, दानियों का घर पूछा था तो उन्होनेंं भी आपका ही घर बताया था। इसलिए मैं भी आशा विश्वास के साथ तुम्हारे घर आया हूँ।
सैंसे की नारी कहने लगी- बाहर चलो! अपना काम करो, ये कैसी बातें करनी प्रारम्भ की है। इन बातों से मैं रीझने वाली नहीं हूँ। पीछे हट जाओ। मैं अपनी खिड़की ढ़क लेती हूँ। ऐसे खड़ा है जैेसे कोई अतिथि मेहमान आया है। उस बिना बुलाये अतिथि ने तो खिड़की मजबूती से पकड़ ली थी कि कहीं हाथ से छूट न जाये। वह देवी तो ढ़कना चाहती है किन्त्ु देवाधिदेव तो उघाडऩा चाहते हैं।
कैसा घर का भाग्य है। घरवाली तो घर को ढ़कना चाहती है किन्तु देवजी उघाडऩा चाहते हैं। यही ढ़कना उघाडऩा संसार में चलता रहता है। वह तो धका देती है, देवजी सहन कर लेते हैं। भृगु की लात भी तो सहन कर ली थी। स्वयं विष्णु आज तो सैंसे के घर पर आये थे। घर में लक्ष्मी को प्रवेश करवाने के लिए किन्तु संसार के व्यक्ति क्या जाने। अब तो खींचातानी होने लगी। आखिर जीव रूपी देवी तो थ्ज्ञक ही गयी थी। उसे तो थकना ही था।
दूसरी नारी कहने लगी- यह योगी हठीला है, हठ नहीं छोड़ेगा, इसे कुछ न कुछ देना ही पड़ेगा। अपने घर का बड़प्पन तो देखो। इस बड़प्पन में तो खाक है जो एक साधु को एक रोटी भी नहीं दे सकते। दोनों महाराणी विचार करने लगी इसे क्या देना चाहिेये। जिससे यह अपना पीछा छोड़े। एक नारी घर में गयी और खिचड़ी की खुरचण (हंडिया के लगा हुआ वासी भोजन ) हंडिया के लगा हुआ अधजला भोजन कुड़सी में भरकर ले आयी और कहने लगी- हे हठीले योगी! तुम्हारा पत्र-चिपी इधर करो मैं तुझे भिक्षा देती हूँ। दूसरी महाराणी कच्चा दूध ले आयी और दोनों ने भिक्षा प्रदान की। श्रीदेवजी ने भिक्षापात्र आगे किया तब कुड़सी में खुरचण लेकर खड़ी हुई और जोर से क्रोध में भरकर पत्री पर दे मारा, जिससे एक किनारा खण्डित हो गया किन्तु भिक्षा लेने में सफल तो हो ही गये। उस खण्डित बर्तन को दूसरी स्त्री ने दूध से भर दिया।
देवजी भिक्षा लेकर वापिस चले। किन्तु कुछ ही दूर जाकर वापिस लौट आये और दूसरी मांग पेश कर दी कि इस समय सर्दी पड़ रही है तो एक सी ओढ़ण तो दीजिये। सेंसे की नारी ने कहा- यह कैसा साधु है जो समय का भी ज्ञान नहीं है, इसके गुरु ने यह भी सिखाया नहीं कि गृहस्थ के घर पर भिक्षा मांगने कब जाना चाहिये तथा बिना समय भिक्षा मिलने पर भी अब तक संतोष नहीं हुआ जो अब वस्त्र भी मांग रहा है।
श्रीदेवजी ने कहा- हे देवी! भिक्षा का कोई समय नहीं होता जब भूख लग जाये तभी भिक्षा याद आती है परंतु इस भूख का केाई पता नहीं कि कब लग जाये। तथा वस्त्र तो जब सर्दी लगे तभी याद आता है। ऐसी वार्ता सुनकर स्वयं सैंसे ने ही अबकी बार एक गूदड़ा-पुराना मोटा वस्त्र प्रदान किया और कहा अब तो चले जाओ।
सैँसे की नारी बोली- अभी अभी तो इसको बाहर निकाला था किन्तु यह तो वापिस आ गया। भिखारी तो बहुत देखे किन्तु इतना हठीला मैनें कभी नहीं देखा। सेंसे ने अपनी नारी की वार्ता सुनी तो कहने लगे- क्यों कलह मचायी है यदि और कुछ देना है तो दे दो, नहीं देना है ता ना कह दो। गांव के लोग सुनेगे तो क्या कहेंगे। घर की लज्जा तो रखो। सैंसे की नारी ने सैंसे की वार्ता को अनसुना कर दिया किन्तु सैंसे ने एक आथर (वस्त्र विशेष) दिया और वहां से रवाना किया।
इस प्रकार से सैंसे के घर से मिला अन्न एवं वस्त्र लेकर वापिस झींझाले आ गये। परब्रह्म से साथरियों भक्तों ने पूछा- हे देवजी! सैंसे की वार्ता बतलाओ। वहां क्या और कैसी भिक्षा दी। भक्तों के भाव को देखकर देवजी ने टूटी हुई पतरी में सैंसे के घर का अन्न एवं वस्त्र दिखलाया। और कहा यह मुझे मिला है। सैँसे ने मुझे यह सोड़ उढाई है।
रात्रि व्यतीत हुई दूसरे दिन प्रात:काल ही गांवें से मतवाले भक्तजन आने लगे। साखी, शब्द हरिजस गाते हुए, झींझा बजाते हुए प्रात: काल ही जमात एकत्रित हुई। सभी लोग देवजी के दर्शन करने आ रहे थे। विशेष रूप से वे ही लोग आ रहे थे जिनका भाग्य सौभाग्य में बदल चुका था। महिलाएं पुरुष बच्चे अनेकानेनक यथा रूप श्रृंगार करके आ रहे थे। आकर स्वामी परमात्मा को शीश झुकाते हैं और यथास्थान बैठ जाते हैं। वन में ही नगरी बस गयी है। ऐसा खेल मालिक ने रचा था। भेदभाव से रहित चाकर ठाकर एक से ही प्रतीत हो रहे थ्े।
जो भी श्री देवजी के दर्शन करता वह अपने सन्मुख ही देख रहा था। मुख मण्डली की कांति सूर्य सदृश शोभायमान हो रही थ्ज्ञी। किसी को भी श्रीदेवजी की पीठ नहीं दिखाई दे रही थी। क्योंकि स्वयं देवाधिदेव विष्णु ने ही सम्भराथल पर अवतार लिया था। मनुष्य ही नहीं पशु पंखेरू भी सन्मुख आकर पवित्र हो गय थे। उतम जीवों को ही बिश्रोई पंथ में सम्मिलित किया गया था।
नाथूसर निवासी भी सैंसे के साथ उसी प्रकार से आये थे। श्रीदेवजी को शीश झुकाते हैं और बैठ जाते हैं। दिनभर सत्संग का कार्य चलता रहा, पुन: सांयकाल हुआ, सूर्यास्त होने जा रहा था। पहले की भांति सैन्से ने फिर कहा- हे देव! दिन व्यतीत हो चुका है, रात्रि का आगमन होने जा रहा है। हमें क्या शिक्षा है, जमात हाथ जोड़े खड़ी है।
श्री देव ने पुन: कहा-सतगुरु नाम इम द्यो भीख। साम्य कहे सैसा आ सीख।
हे सैंसा! सतगुरु परमात्मा के नाम से भिक्षा देना, तेरे लिए यही शिक्षा है।
सैंसा कहने लगा- हे सतगुरु! आप बिना सोचे विचारे एक ही बात मुझे बार बार क्यों कहते होद्व ेसे क्या मैं समझता नहीं हूँ। में आपके नाम से आपको ही समर्पण करके भिक्षा देता हूँ, प्रेमभाव से भोजन करवाता हूँ जो मेरे पास मेरे घर में आ जाता है, उसको मैं खाली हाथ उतर नहीं देता हूँ। हे देव! मेरा क्या है सभी कुछ आपका ही है और आपके नाम से खर्च भी करता हूँ। सैंसे ने इस बात को जोर देकर कहा।
तब सतगुरु बोले- हे दुवागर-द्वारपाल! तुम सैंसे के घर से लायी हुई भिक्षा तथा गूदड़ा लाकर दिखाओ। जब दुवागर के हाथ में टूटी हुई पतरी एवं आथर-वस्त्र देखा तो तुरंत पहचान गया। सतगुरु ने कहा- हे सैंसा!
ए सहनाण पिछाण, मूंधे मुंह सैंसो पडय़ो, सांभल सके न कोय।
सैंसे ने अपने ही घर की वस्तु पहचान कर मुंह नीचे करे धरती ऊपर गिर पड़ा। सामने देख भी नहीं सका। विलाप करने लगा- मेरे घर स्वयं सिरजणहार आये और मैं उनकी सेवा नहीं कर सका, उल्टा उन्हें अपमानित किया। हे धरती माता! तूं फट जाओ और मैं तुम्हारे में समा जाऊं। अब मुंह दिखोन लायक भी नहीं रहा।
यदि संसार छूट जाये तो हरिजी संभाल जाते हैं और यदि हरिजी ने ही छोड़ दिया तो अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं होगा। यदि कोई कुएं में गिरने वाला हो और पीछे से कोई धक्का दे देवे तो अच्छी प्रकार से गिरा जा सकता है। सैंसा विलाप करते हुए अचेत हो गया। साथ में रहने वाले सज्जनों ने प्रार्थना की कि हे नाथ! यदि आप हाथ छोड़ देंगे तो यह जड़ मूल से ही चला जायेगा। अब यह तो आपके सामने नहीं देख सकेगा। आप से प्रार्थना नहीं कर सकेगा, किन्तु हमारी अर्ज अवश्य ही सनुो। उठ सैंसा सतगुरु कहे गर्व न करो लिंगार। सतगुरु कहने लगे- हे सैंसा! अहंकार न करो और खड़े हो जाओ। सतगुरु के आशीर्वचन सुनकर सैंसा खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर विनती करने लगा- हे देवाधिदेव! आपने मुझे बचा लिया है अन्यथा मैँ तो अहंकार के पक में डूब जाता। मुझे तो इस अज्ञानता का पता ही नहीं था। आपने मेरी आंखे खोल दी है। अब मैँ गर्व को छोड़कर आपके ही अधीन हूँ। आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। आपने कृपा करके मेरी आंखे खोल दी है। सैंसा पुन: स्वस्थ हुआ। सतगुरु ने क्षमा कर दिया। उपस्थित जन समूह ने जय जयकार की। सैंसे के भाग्य की सराहना की और देवजी के दयालुता की प्रशंसा की।
सैंसो कसवों कहे- देवजी! म्हें तो सुरगा जोगो सांमो धणो ही कियो- जाम्भोजी श्रीवायक कहे-
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शब्द-57
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ओ3म् अति बल दानों, सब स्नानो, गऊ कोट जे तीरथ दानो
बहुत करे आचारूं। ते पण जोय जोय पार न पायो, भाग परापति सारूं।
घट ऊंधै बरसत बहु मेहा, नींर थयो पण ठालूं।
को होयसी राजा दुर्योधन सो, विष्णु सभा महलाणो।
तिणही तो जोय जोय पार न पायो, अध विच रहीयो ठालूं।
जपिया तपिया पोह बिन खपिया, खप खप गया इंवाणी।
तेऊं पार पंहुता नाहीं, ताकी धोती रही अस्माणी।।
सैंसा कस्वां स्वस्थ हुआ फिर कहने लगा- हे देव! मैनें तो स्वर्ग जाने के बहुत से उपाय किये थे किन्तु अब तक मुझे मेरे गर्व का पता ही नहीं था। यह अंहंकार मुझे ले डूबेगा। इस बात से मुझे आपने अवगत करवाया है। मैं धन्यभागी हूँ जो आपके दर्शन एवं स्पर्श का लाभ मुझे मिला।
श्रीदेवजी ने शब्द सुनाया- हे सैंसा! अति दिान, अपनी औकात से भ्ीा ज्यादा दिया हुआ दान भी लाभदायक नहीं है। अड़सठ तीर्थों में बिना श्रद्धा एवं योग्यता के किया हुआ लाभदायक एवं संतोषजनक भी नहीं है। करोड़ों गऊवों का तीर्थों में जाकर दान देना भी मुक्ति का कारण नहीं बन सकता। अन्य भी बहुत से किये हुए आचार-विचार भी अति आनन्ददायक नहीं है। अपने से बड़ों को देखोगे तो पार नहीं जा पा सकोगे। सभी से ऊंचा नहीं बन पाओगे।
अभी तो तुम्हारे से बहुत से लोग आगे हैं। वे लोग ऊँचाईयां छू रहे हैं। तुम तो तुम ही हो, दूसरा तो दूसरा ही होगा। अपने अपने भाग्य से ही प्राप्त होता है। घड़े को उल्टा कर दिया जावे उपर चाहे कितना ही जल बरसे तो भी उसमें जल नहीं भरेगा। प्रथम घड़े को सीधा करो तब जल अन्छर गिरेगा। प्रथम अधिकारी बनो तब ज्ञानरूपी जल अन्दर भरेगा।
दुर्योधन जैसा अहंकारी राजा अब तक नहीं हुआ। जिस दुर्योधन की सभा में स्वयं विष्णु-कृष्ण आ गये किन्तु नहीं समझ सका। और कृष्ण को बांधने लगा। अब तक कोई कृष्ण -विष्णु को बांध सका है क्या? अहंकारी जीव दुर्योधन यही नादानी करता है। जब कृष्ण ने दुर्योधन की सभा में अपने रूप को विराट बनाया तो देखते हुए भी दुर्योधन पार नहीं पा सका। गर्व से संयुक्त दुर्योधन अधबिच में ही रह गया। न तो पार पंहुच सका और न ही मृत्युलोक का राजा ही रह सका। न तो इस मृत्युलोक में रहकर यश ही प्राप्त कर सका और न ही परलोक सुधार सका।
कई जपी तपी बिना मार्ग जाने साधना का बहाना करते हुए समाप्त हो गये। इसी प्रकार कितने ही लोग शरीर धन के मद में अपने को अनाधिकारी बना डाला। वे लोग भी ज्ञान बिना व्यर्थ की सिद्धि प्राप्त करने पर भी पार तो नहीं पंहुच सके, जिनकी धोती आकाश में सूखा करती थी।
जमाती कहे देवजी! कोई चार जुगा में पारि पंहुतो। जाम्भाजी कहे- राव मालदेव, झाली राणी दीठा। देही कि दाह गयी। तिह समय श्री वायक कहे-
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शब्द-58
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ओ3म् तउवा माण दुर्योधन माण्या, अवर भी माणत मांणो।तउवा दान जू कृष्णी माया, अवर भी फूलत दानो।तउवा जाण जू सहस्त्र झूझ्या, अवर भी झूझत जाणों। तउवा बाण जू सीता कारण लक्ष्मण खैंच्या, अवर भी खेंचत बाणों। जती तपी तकपीर ऋषेश्वर, तोल रह्या शैतानों। तिण किण खेंच न सके, शिंभु तणी कमाणूं। तेऊ पार पहूंता नांही, ते कीयो आपो भांणों। तेऊ पार पहूंता नांही, ताकी धोती रही अस्माणों। बारां काजै हरकत आइ्र, अध बिच मांड्यो थांणो। नारसिंह नर नराज नरवो, सुराज सुरवो नरां नरपति सुरां सुरपति। ज्ञान न रिंदो बहुगुण चिन्दो, पहलू प्रहलादा आप पतलीयो। दूजा काजै काम बिटलीयो, खेत मुक्त ले पंच करोड़ी। सो प्रहलादा गुरु की वाचा बहियो, ताका शिखर अपारूं। ताको तो बैकुंठे बासो, रतन काया दे सोप्यां छलत भंडारू। तेऊ तो उरवारे थाणे, अई अमाणो,तत समाणो। बहु परमाणो पार पंहुचन हारा। लंका के नर शूर संग्रामे घणा बिरामे, काले काने भला तिकंट। पहले जूझ्या बाबर झंट, पड़े ताल समंदा पारी, तेऊ रहीया लंक दवारी। खेत मुक्तले सात करोड़ी,परशुराम के हुकम जे मूवा। सेतो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुण्ठे बासो। रतन काया दे सौंप्या छलत भण्डारूं, तेऊ तो उरवारे थाणे। अई अमाणो पार पंहुचन हारा। काफर खानो बुद्धि भराड़ो, खेत मुक्त ले नव करोड़ी। राव युधिष्ठिर से तो कृष्ण पियारा, ताको तो बैकुण्ठे बासो। रतन काया दे सौंप्या छलत भण्डारूं, ते तो उरबारे थाणे। अई अमाणो बहु परमाणो, पार पंहुचन हारा।बारा काजै हरकत आई, तातै बहुत भई कसबारूं।
सैंसे भक्त के साथ उपस्थित जमाती के लोगों ने पूछा- हे गुरुदेव! इन चार युगों में कोई संसार सागर से पार पुंचा या नहीं। जाम्भोजी ने उतर देते हुए कहा- जोधपुर नरेश राव मालदेव तथा चितौड़ नरेश की मां झालीराणी ये दोनों ही सुजीव है, पार पंहुच जायेंगे। इन दोनों की कथा विस्तार से आगे बतलायेंगे।
इस समय श्रीदेवजी ने लोगों को सम्बोधित करते हुए शब्द कहा- अहंकारी व्यक्ति कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। यह तो पका निश्चय ही है। जितना अहंकार निवृत्त होता जायेगा, उतना ही मुक्त होता जायेगा। बंधन ढ़ीला पड़ता जायेगा। जैसा अहंकार दुर्योधन ने किया उतना अहंकार तो अब तक किसी ने भी नहीं किया। राजा मालदेव एवं झालीराणी सर्वथा निरहंकारी है।
फूलते फलते तो बहुत हैं किन्तु कृष्णी माया जितनी फूलती फलती है उतना कोई नहीं। युद्ध के मैदान में जाकर युद्ध तो शूरवीर संसार में बहुत करते हैं किन्तु जितना सहसा्रबाहू ने किया उतना कोई नहीं कर सका। जिसने परशुरामजी का सामना किया।
बाण चलाने में भी बहुत लोग कुशल है किन्तु जितने बाण सीता को लंका से लाने के लिए लक्ष्मण ने चलाए उतने बाण अब तक कोई नहीं चला सका। इस संसार में जप करने वाले जपी, तप, करने वाले तपी कई तकियों के पीर, मठाधीश, ऋषि शिरोमणि इत्यादि अपने अपने बल को तोल रहे हैं। ये लोग केवल अपनी शैतानी को ही तोल रहे हैं, इनके पास ज्ञान नहीं है।
शिम्भू के धनुष को उठाने के लिए सभी ने प्रयत्न किये किन्तु अहंकार से मूर्छित लोग धनुष को हिला भी नहीं सके। परमात्मा की असीम शक्ति का कौन पार पा सकता है। जो निरहंकारी है वे भले ही पार पा जाये। वे भी पार नहीं पंहुच सके जिनकी धोती आसमान में सूखा करती थी।
गुरुदेव कहते हैं कि प्रहलाद के बिछड़े हुए इक्कीस करोड़ तो पार ंपहुच गये हैं। अब बारह करोड़ इसी भूमि पर विद्यमान है। उन्हें ले जाने के लिए मेरा आगमन हुआ है। ये सभी बारह करोड़ पार पंहुचेगे। मैनें इस मृत्युलोक में आसन जमाया है क्योंकि यह मृत्युलोक पाताल लोक एवं स्वर्ग के बीच में विद्यमान है। मानव जीवन भी देव तथा दानव के मध्य अवस्थित है। सतयुग में जब नृसिंह अवतार हुआ था, वह नर रूप में नरों में भी शिरोमणि, देवताओं में भी देव शिरोमणि, नरों के भी राजा एवं देवताओं के देवराजा ज्ञान से युक्त बहुगुणों से सम्पन्न थे। सर्वप्रथम तो उन्होनें हिरण्यकश्यिपू को मारा था। दूसरा उन्होनें भक्त प्रहलाद को विश्वास में लिया था। प्रहलाद को दिलाया दिलाई थी।
दूसरों की भलाई के लिए स्वयं भगवान विष्णु अवतार लेकर आये थे । उस समय सतयुग में नृसिंह ने प्रहलाद क ो वचन दिया था इस वजह से पांच करोड़ का उद्धार प्रहलाद के साथ हुआ। क्योंकि वो लोग प्रहलाद के वचनों पर चले थे । उनकी गति अति उत्तम थी वे लोग मुक्ति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच चुके है उनका निवास तो बैकुण्ठ में ही है जन्म मरण का चक्कर छूट गया है ।
एह भौतिक शरीर तो यहीं पर छूट गया है किन्तु उनको दिव्य रतन सदृश अलौकिक काया मिली हैँ। उन्हें सम्पूर्ण आनंद का भण्डार सौंप दिया है। वे लोग भी यहीं उसी मृत्यु लोक के ही थे। आप लोगों के ही साथी थे।
इस संसार में ही तत्व रूप से विष्णु समाया हुआ है उसमें बहुत ही प्रमाण है जो पार पहुंचने योग्य होंगे वे तो अवश्य ही पहुंचेगे। इस समय भी आप पार पहुंचने की योग्यता धारण करें। निरहंकारी बने, समर्पण भाव करे।
सतयुग के बाद त्रेता युग में भी राम अवतार हुआ। राम ने लंका में जाकर रावण को मारा था। लंका में बड़े बड़े सूरवीर योद्धा थे जो अत्यधिक संख्या में थे। काले कुरूप, काणे बड़े बड़े योद्धा युद्ध भूमि में राम की सेना से लड़ रहे थे। राम की सेना भी तो कुछ कम नहीं थी। वहां पर भी बबर, झंट, हनुमान आदि अनेकानेक योद्धा थे। जब उनका युद्ध होता था तो समुन्द्र पार भी ताल की ध्वनि सुनाई देती थी। वे सभी लंका के दरवाजे पर ही थे।
ये सभी जीव मोक्ष के अधिकारी ही थे। राम के हाथ से मृत्यु को प्राप्त करके ये मुक्ति को प्राप्त हुए । कुछ रामजी सेवा करके मुक्ति को प्राप्त हुए थे। वे लोग भी यहीं इसी मृत्यु लोक के ही जीव थे।
त्रेता युग में ही परशुरामजी ने क्षत्रियों का संहार किया था। उनके संपर्क में आने वाले पापी जन भी उनकी दृष्टि से ही पवित्र होकर मुक्ति को प्राप्त हुए थे। जिन्हें भी विष्णु प्यारा था वे चाहे वैर भाव से स्मरण करे या प्रेम भाव से वे सभी लोग पार पहुंचे है। इस प्रकार से त्रेता युग में सात करोड़ का उद्धार हुआ। वे सभी लोग यहीं के निवासी थे। पार पहुंचने के योग्य थे वे पहुंच गए। वे सदा सदा के लिये पंथ निर्मित कर गये।
द्वापर में कृष्ण अवतार हुआ। युधिष्ठिर सम्राट हुए, उस समय भी नव करोड़ का उद्धार हुआ। वे लोग भी ज्यादा भले भी नहीं थे किन्तु कृष्ण के संपर्क में आने से पार पहुंचने के योग्य थे वो पहुंचे गये। वहां उन्हें सुख दु:ख से रहित आनंद का भंडार सौंप दिया गया। वे भी यहीं के ही लोग थे।
गुरू देव कहते है- कि इस समय कलयुग में बारह करोड़ का उद्धार करने हेतु मुझे आना पड़ा। प्रहलाद के वचनों को पूरा करना है। इन्हें भी मैं पार पहुंचा कर ही जाउंगा। हे लोगो! आप लोग भी उन्हीं बारह करोड़ के अंतर्गत ही हो। तुम भी पार पहुंच जाओगे। किन्तु अहंकार के रहते तो असंभव ही है।
सैंसो कह जमाती न। सीख दीजै। जाम्भोजी कह गुरू ननांय मांग जीन भीख द्यौ। विसन जंपो क्रीया मां सावधान चालौं सैंसे ने वले कह्यो। जाम्भोजी श्री वायक कहै-
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शब्द-59
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ओ3म् पढ़ कागल वेदूं शास्त्र शब्दूं भूला भूले झंख्या आलूं। अह निश आव घटंती जावै, तेरा सास सबी कसबारूं। कइया चन्दा कइया सूरुं, कइया काल बजावत तूरूं। उद्र्धक चन्दा निरधक सूरुं, सुन घट काल बजावत तूरूं। ताछै बहुत भई कसवारूं। रक्तस बिन्दु परहस निन्दू, आप सहै तेपण बुझे नही गवारूं।
सैसा भक्त कहने लगा- हे गुरूदेव! मेरे साथ में आये हुए सत्संगी लोग वापिस घर जाने की आज्ञा मांग रहे है। इन्हें तथा मुझे भी घर जाने की आज्ञा प्रदान कीजिए।
जाम्भोजी ने कहा- गुरू के नाम की आंगतुक सुपात्र को भोजन दीजिए। विष्णु का जप करो। क्रिया कर्म में सावधान रहो। यह बात कहते हुए सैंसे को कहते हुए शब्द सुनाया-हे लोगों! वेद, शास्त्र, शब्द अवश्य ही पढे। व्यर्थ का समय व्यतीत न करे। विष्णु का जप, स्मरण, स्वाध्याय करे। व्यर्थ का बकवास न करे। दिन रात करते हुए तुम्हारी आयु बीतती जा रही है तुम्हारा प्रत्येक श्वांस बड़ा ही अमूल्य है। इसका सदुपयोग करो। आयु तो सभी की ही निश्चित है चाहे सूर्य, चन्द्र, तारे ही क्यों न हो,इनकी भी आयु घटती जा रही है। काल ने तुरही बजादी है, अपने आने से पूर्व ही सचेत कर दिया है। चन्द्र की आयु एवं उंचाई कम है। सूर्य की ऊंचाई,तेज एवं आयु चन्द्रमा से ज्यादा है तो भी क्या हुआ एक दिन काल का ग्रास तो अवश्य ही बनेगे।आप लोग किस के सहारे से अभिमान कर रहे हो। जब सभी कुछ छोड़,कर जाना निश्चित ही है तो समय का सदुपयोग करो और स्वाध्याय करो,दान पुण्य करो। सुपात्र का स्वागत करो। यही शिक्षा है,अब आप लोग खुशी से जा सकते हो। सैंसा भक्त अपने घर पहुंचा और गृह लक्ष्मी से जो घटना घटी थी वही बताई। सैंसे की नारी ने आश्चर्य किया और पछतावा करने लगी सैसे के घर में चालीस दुधारू गायें दूध देती थी किन्तु एक अजब गजब के मेहमान का स्वागत नहीं कर सके थे। फिर भी सैंसे को मुक्ति का वरदान श्री देवजी ने दिया था।
सैंसा पचीस दुधारू गाये और भी ले आया। अब तो घर में पैंसठ गाये दूध देने वाली थी। सैंसे की नारी बिलौवना करती। मक्खन,दूध,दही,घी आदि की नदियां बहने लगी। आये हुये सुपात्र का सैंसा सम्मान करता। न जाने कब किस रूप में हरि ही आजाय। गांव के बच्चे सैंसे के घर आ जाते वेला कुवेला में उनके साथ कोई अतिथि भी आ जाता, भोजन तैयार नहीं होता तो सैंसा घर में तिल और शक्कर रखता उन्हें सभी को खाने के लिये देता है
कभी कभी बच्चे रात्रि में आकर झंझट खड़ी कर देते तो भी सैंसा देने से मुख नहीं मोड़ता था। कई बच्चे सैंसे से शिकायत करते, आज हमें कुछ भी नहीं मिला था । सैंसा भक्त उन्हें प्रेम से भोजन देता, या तिल शक्कर देता।
एक दिन सैंसा गुरु महाराज के पास सम्भराथल पर पहुचां और कहने लगा- हे देव! मैं आपकी प्रतीक्षा करता था किन्तु आप आये नहीं आप भी बड़े विचित्र है देव!
बिना बुलाये तो आ जाते हो किन्तु बुलाने पर नहीं आते। आप चाहे न भी आये किन्तु आने वाले प्रत्येक आगन्तुक मे मैं आपको ही देखता था क्योंकि पूर्व मे मैं धोखा खा चुका था।
देवजी ने पूछा-हे सैंसा!कहो तुम्हारी सेवा की बात? सैंसा कहने लगा- क्या कहूं ! आपके कथानुसार ही नियम निभा रहा हूं किन्तु एक आपति बिना बुलाये ही आ गयी है। हमारे घर पर अतिथि आते है,मैं उनकी तन मन धन से सेवा करता हूं। सर्दियो मे मै उनको ओढने के लिये सोड, देता हूं किन्तु उनमे कई ऐसे चोर भी आ जाते है जो सी ओढण भी ले जाते है मैं परेशान हूं क्या करूं।
श्री देवजी ने कहा- हे सैंसा! तुम एक बहुत बड़ी भारी लंबी चौड़ी सोड़ बनालो जिसे कोई उठा कर न ले जा सके,रात्रि में सो जायेगे। सैंसे ने वही किया एक बहुत बड़ी सोड़ बनाई जिसे सैसा सोड, के नाम से जानी जाती थी।
सैसे ने भक्ति दान मान करके अपना जीवन व्यतीत किया। एक समय सम्भराथल पर विराजमान श्री देवजी से पूछा कि हे गुरुदेव ! सैंसे की बात कहो,हमने सुना है कि सैंसा मृत्यु को प्राप्त हो गया है?श्री देवजी ने कहा-सैंसा भक्त था। उसकी कभी दुर्गति नहीं हो सकती, सैंसा भी प्रहलाद बाड़ै का जीव था। निश्चित ही प्रहलाद के पास ही पहुंच गया है, मुक्त हो गया है ऐसा भक्त सदा ही सराहनीय है।
हे वील्ह ! जो तुमने जांगलू में जाम्भोजी की चिपी देखी है वह सैंसे के घर पर टूटी है। सैंसे के घर तो भिक्षा नही मिल पाई थी किन्तु अब भक्त लोग श्री देवजी को भिक्षा दे रहे है। अपनी मनोकामना पूर्ण कर रहे हैं।प्रेम से भक्ति भाव से दी हुई भिक्षा को श्री देवजी सहर्ष स्वीकार करते है श्री देवजी को क्या चाहिये ? उन्हें देवस्वरूप को भोजन हेतु घी चाहिये। वही भिक्षा दे रहे है तथा गुरुदेव सहर्ष स्वीकार कर रहे है तथा भक्तो का भला कर रहे है
सैसां तो शिरोमणी भक्त हुआ उनका तो स्वर्ग में वास हुआ। सतगुरु ने झीझाले को धाम बना दिया।नाथुसर तथा आस पास के लोगो को निहाल कर दिया। यही कथा है सैंसे की तथा और महिमा है सतगुरु जाम्भोजी की जो मैने तुझे सुनायी है अब आगे क्या जिज्ञासा है। अवश्य ही पूर्ण करूंगा। क्योंकि मुझे ज्ञान कथा कहने में आनन्द आता है कथा कहना और सुनना तो साक्षात परमात्मा से ही वार्ता करनी है। हे शिष्य ! इस कथा कहने मे मेरा स्वार्थ एवं परमार्थ दोनो ही निहीत है।