शब्द-1
प्रसंग :- जम्भदेव जी सात वर्ष तक मौन अवस्था में रहे । उनको बुलवाने के प्रयास में माता पिता ने जब उपचार के लिए एक प्रसिद्ध पुरोहित से उपाय करवाया तो पुरोहित द्वारा रखे गये 108 दीपक में से जब एक भी जल नहीं पाया तो जम्भदेव जी ने उठ कर एक कच्चे सूती धागे को कच्चे घड़े से बांध कर पास ही में एक कुंए से जल निकाला व् वही जल सब दीपों में डाल कर चुटकी से दीपक जला दिए । यह चमत्कार देखकर पुरोहित नतमस्तक होकर सन्मार्ग सम्बंधी बात पूछने लगा । तब यह गुरु महिमा युक्त प्रथम शब्द श्री जम्भदेव जी ने उच्चरित किया । ॐ गुरु चीन्हों गुरु चीन्हो पुरोहित ।गुरु मुख धर्म बखाणीं ।।जो गुरु होयबे सह्जे शीले शब्दे नादे वेदे।तिहिं गुरु का अलिंकार पिछाणी ॥छव दर्शन जिहीं के रुपण थापण ।संसार बरतण निज कर थरपया ।।सो गुरु प्रत्य्क्ष जाणी॥जिहीं कै खर तर गौठ निरोतर बाचा। रहिया रुद्र समाणी॥ गुरु आप संतौषी अवराँ पौषी तत्व महारस बाणी।के के अलिया बासण हौत हुतासण तामे क्षीर दुहीजूँ ॥रसुवन गौरस घीयन लीयूं तहां दूधन पाणी गुरु ध्याईयरे ज्ञानी।तोडत मौहा अतिषुरसाँणी छीजत लौहा पाणी।छल तेरी खाल पखाला।सत गुरु तोड़े मन का साला॥सत गुरु है तो सह्ज पिछाणी कृष्णचरित बिन काचै करवै रह्यो न रहसी पाणी॥1॥ॐ शब्द -2 प्रसंग :- भगवान जम्भेश्वर समराथल धोरे पर विराजमान थे । जोधपुर राज्य के राजा जोधा जी के भाई कान्हा जी के पुत्र उधरण ऊधा जी वहां आये । वो यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि जाम्भा जी को जिधर से भी देखो वे सामने ही बैठे दिखाई देते हैं , पीठ किए हुए दिखाई नहीं देते । ऊधा जी ने इसका रहस्य गुरु महाराज से जानना चाहा तो उन्होंने उसके प्रति यह शब्द कहा :- ॐ मोरे छाया न माया लोही न माँसू । रक्तु न धातुं मौरे माई न बापूं आपण आपूं । रोही न रापूं ॥ कोपूं न कलापूं ।दु:ख न सरापूं ॥ लोई अलोई ।त्यूह हतृ लोई ॥ ऐसा न कोई जंपो भी सोई ॥ जिहिं जपे आवागवण न होई । मोरी आद न जाणत ॥ महियल धूंवां बखाणत् । उर्ध ढाकले तृसूलूं ॥ आद अनाद तो हम रचीलो। हमे सिरजीलौ सै कौण। म्हे जोगी के भोगी के अल्प अहारी। ज्ञानी कै ध्यानी कै निज कर्म धारी॥ सौसी कै पोषी।कै जल बिंबधारी,दया धर्म थापले निज बाला ब्रहाचारी॥ॐ शब्द :-3 प्रसंग- एक बार जोधा जी का पुत्र बीदा भी गुरु महाराज के पास आया और उनसे अपनी शंकाओं के समाधान हेतु कई प्रश्न किए । उसने प्रश्न किया कि हे भगवान आपके शरीर से बहुत ही मधुर सुगंध आ रही हैं , ऐसी सुगंध किसी में नहीं आती । आपने कौनसा इत्र ,तेल या सुगन्धित पदार्थ लगा रखा है ,कृपया हमें भी बतलायें । तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ मोरे अंग न अलसी तेल न मलियो । ना परमल पीसायों। जीमत पीवत भौगत बिलसत् ॥ दीसा नाहीं महापण को आधारुं। अठ सठ तीर्थ हिरदा भीतर बाहर लोका चारूं ॥ नान्हीं मोटी जीया जूणीं। एती सास फ़ुरन्ते सारुं ॥ बासन्दर क्यों एक भणीजै । जिहिं के पवन पिराणों ॥ आला सूका मेल्हे नांही । जिंहि दिश करे मुहाणो ॥ पापै गुन्है बीहै नांही। रीस करै रीसाणों ॥ बहुली दौरे लावण हारुं। भावै जाण मैं जाँणू न तूं सूर नर न तूं शंकर । न तूं रावण राणों ॥ काचै पिंडे अकाज चलावै । म्हा अधूरत दाणों ॥ मोर छुरी न धारुं। लोहे न सारूं ॥ न हथियारूं। सूरज का रिपु बिहडा नांही ॥ तातै कहा उठावत भारूं जिहिं हाकण ड़ी बलद जूं हांके ना लोहे की आरूं ॥ॐ शब्द:- 4 प्रसंग : - कान्हा जी के पुत्र उधरण ने जब जाम्भा जी के श्रीमुख से अत्यंत गहन ज्ञानपूर्ण बातें सुनी तो कहने लगा कि हे देव आप बातें तो बहुत उच्च कोटि के विद्वान जैसी कर रहे हो ! युगों की बड़ी बड़ी बातें कर रहे हों परन्तु आपकी आयु तो बहुत छोटी लगती हैं कृपया हमें बतायें कि आपकी वास्तविक आयु क्या हैं ? तब जाम्भो जी ने यह शब्द कहा :- ओ३म् जद पवन न होता पाणी न होता।न होता धर गैणारूं॥ चंद न होता सुर न होता। न होता गिंग दर तारुं॥गऊ न गोरू माया जाल न होता न हेत पियारूं॥माय न बाप न बहण न भाई साखन सैंण न होता।न होता पख परवारू॥लख चौरासी जीया जूणी न होती। न होती बणीं अठारा भारूं॥सप्त पताल फुँणीद न होता। न होता सागर खारुं। अजिया सजिया जीया जूणी न होती। न होती बणीं अठारा भायं॥सप्त पताल फुँणीद न होता।न होता सागर खारूं॥ अजिया सजिया जीया जूणी न होती। न होती कुड़ी भरतारूं॥ अर्थ न गर्थ न गर्व न होता। न होता तेजीतुरंग तुखारूं॥ हाट पटण बाजार न होता। न होता। न होता सागर खारूं॥ अजिया सजिया जीया जूणी न होती। न होती कुड़ी भरतारूं॥ अर्थ न गर्थ न गर्व न होता। न होता तेजीतुरंग तुखारूं॥ हाट पटण बाजार न होता। न होता राज दवारूं॥ चाव न चहन न कोह का बांण न होता। तद होता एक निरंजण शिंभू, कै होता धंधू कारूं॥ पूछै लोई। जुग छत्तीस बिचारूं॥ताह परैरे अवर छत्तीसूं। पहला अंत न पारूं॥ म्हे तदपण होता अब पण आछै, बल २ होयसां कह कद कद का करूं विचारूं ॥४॥ॐ शब्द :-5 प्रसंग :- फिर एक प्रश्न द्वारा उधरण उधा जी ने पूछा कि हे देव ! आप हमें यह बताये कि आप किसका जाप करते हैं तथा साथ ही हमें भी बतायें कि हम किसका जाप करें । तब गुरु जी ने यह शब्द सुनाया : ओ३म् अइया लो अपरंपर बांणी। म्हे जपां न जाया जीऊं॥ नवअवतार नमोनारायण। तेपण रूप हमारा थीयूं॥ जती तपी तक पीर ऋषेश्वर। कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं॥ खेचर भूचर खेत्रपाला परगट गुप्ता। कांय जपीजे तेपण जाया जीऊं॥ वासग शेष गुणिंदा फुणिंदा। कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं॥ चौषट जोगनि बावन बीरूं। कांय जपीजै तेपण जाया जीऊं। जपां तो एक निरालंभ शिंभु। जिहिं कै माई न पीऊं॥ न तन रक्तूँ न तन धातूँ। न तन ताव न सीऊं॥सर्व सिरजत मरत बिवरजत। तासन मूलज लेणा कीयों॥ अइयालों अपरंपर बाणी। म्हे जपां न जाया जीऊं॥५॥ॐ शब्द :-6 प्रसंग :-एक अन्य प्रश्न के द्वारा राजपुत्र उधरण ने पूछा कि हे देव ! आप हमें बतलायें कि जीवात्मा परमात्मा से भिन्न हैं या परमात्मा का ही अंश हैं । तब गुरु जी ने यह शब्द सुनाया :- ओ३म् भवन भवन म्हे एकाजोती। चुन-चुन लीया रतना मोती॥ म्हे खोजी थापण होजी नाहीं। खोज लहां धुर खोजूँ॥ अल्लाह अलेख अडाल अजोनि स्वयंभू। जिहिं का किसा बिनाणी॥ म्हे सरैन बैठा सीख न पूछी। निरत सुरत सब जाणी॥ उतपति हिंदू जरणा जोगी। किरिया ब्राह्मया दिल दरबेसां उन मुन मुल्ला अकल मिसलमानी॥६॥ॐ शब्द :- 7 प्रसंग :- गुरु जम्भेश्वर भगवान की ज्ञान वार्ता दूर दूर के जिज्ञासुओं ने सुनी । वहां के राजा महाराजाओं में भी जाम्भो जी के बारे में चर्चा होने लगी । एक बार बीकानेर के महाराज लूणकरण व नागौर के सूबेदार मुहम्मदखां आपस में मिले तो जाम्भो जी के बारे में भी चर्चा होने लगी । राव लूणकरण का विचार कि जम्भेश्वर जी हिन्दुओं के देव हैं तथा मुहम्मदखां का कहना था कि वे मुसलमानों के पीर हैं दोनों ने तर्क वितर्क भी दिये । अंत में फैसला किया कि इस सम्बन्ध में स्वयं जाम्भा जी से ही पूछा जाये । राव लूणकरण ने अपना प्रतिनिधि एक पुरोहित को व मुहम्मदखां ने अपना प्रतिनिधि एक काजी को गुरु महाराज के पास इस विवाद के हल के लिए भेजा । तब गुरु महाराज ने कहा कि वे किसी विशेष जाति या धर्म के गुरु , देव ,अथवा पीर नहीं हैं बल्कि समस्त मानव जाति के गुरु हैं तथा जो हर मानव के ह्रदय में निवास करते हैं तथा उनके उपदेश हर मानवमात्र के लिए हैं चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय से सम्बन्ध रखता हो । ऐसी बात कहते हुए उनहोंने पहले पुरोहित के प्रति यह शब्द कहा: ओ३म् हिंदू होय कै हरि क्यूँ ना जंप्यो। कांय दहदिश दिल पसरायों॥सोम अमावस आदितवारी। कांय काटी बन रायों॥ गहण गहंतै। बहण बहंतै॥ निर्जल ग्यारस मूल बहंतै कांयरे मुरखा तैं पागल सेज निहाल बिछाई॥ जादिन तेरे होम न जाप न तप न किरिया। जाण कै भागी कपिला गाई॥ कूड़तणों जे करतब कीयो। नातैं लाव न सायों॥ भूला प्राणी आल बखाणी। न जंप्यो सुर रायों॥ छंइ कहां तो बहुता भावै। खरतर को पतियायों।हिव की बेलां हिय न जाग्यो। शंक रह्यो कदरायों॥ ठाढी बेला ठार न जाग्यो। ताती बेलां तायों॥ बिम्बै बेलां विष्णु न जंप्यों ताछै का चीन्हों कछु कमायों॥ अति आलस भोला वै भूला, न चीन्हों सुररायों॥ पारब्रह्म की सुध न जाणीं। तो नागे जोग न पायों॥ परशुराम कै अर्थ न मूवा। ताकी निश्चै सरी न कायों॥७॥ ॐ शब्द :-8 प्रसंग:- फिर गुरु महाराज ने नागौर के सूबेदार मुहम्मदखां द्वारा भेजे गए काजी को यह शब्द सुनाया : ओ३म् सुणरे काजी सुणरे मुल्लां। सुणरे बकर कसाई॥ किणरी थरपी छाली रोसो। किणरी गाडर गाई॥ सूल चुभीजै करक दुहेली। तो है है जायो जीव न घाई॥ थे तुरकी छुरकी भिस्ती दावो। खायबा खाज अखाजूँ॥ चर फिर आवै सहज दुहावै। तिसका खीर हलाली॥ जिसके गले करद क्यूंसारो। थे पढ़ सुण रहिया खाली॥८ॐ शब्द :-9 प्रसंग :-तब काजी ने कहा कि वे लोग रोजाना इस्लाम धर्म की नमाज पढ़ते हैं , उन्हें जीव हत्या जैसे कर्मो का पाप नहीं लगता , तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ओ३म् दिल साबत हजकाबो नेडै। क्या उलबंग पुकारो॥ भाई नाऊं बलद पियारो। ताकै गलै करद क्यूं सारो। बिन चीन्हैं खुदाय बिबरजत। केहा मुसलमानो॥ काफर मुकर होयकर राह गुमायो। जोय जोय गाफल करै धिगाणों॥ ज्यू थे पच्छिम दिशा उलबंग पुकारो। भलजे यों चीन्हों रहमाणों॥ तो रूह चलंतै पिण्ड पड़तै॥ आवै भिस्त बिमाणों। चढ़चढ़ भींते मड़ी मसीते। क्या उलबंग पुकारो॥कांहे काजै गऊ बिणासो। तो करीम गऊ क्यूं चारी॥ काहीं लीयो दूधूं दहियूं। काहीं लीयो घीयूँ महियूं॥ काहीं लीयूं हाडूं मासूं। काही लीयूं रक्तूं रूहियूं॥ सुणरे काजी सुणरे मुल्लां। यामै कौण भया मुरदारूं॥ जीवां ऊपर जोर करीजै। अंतकाल होयसी भारूं॥९॥ॐ शब्द:-10 प्रसंग :- फिर काजी जीवों को मारने का औचित्य जताया व कहा कि हम तो बिसमिल्ला का नाम लेकर जीवों को मारते हैं, हमें पाप नहीं लगता । तब गुरु जी ने यह शब्द उसे पुन: सुनाया ओ३म् बिसमिल्ला रहमान रहीम। जिहिंकै सदकै भीना भीन॥ तो भेटीलो रहमान रहीम। करीम काया दिल करणी॥ कलमा करतब कौल कुराणों। दिल खोजो दरबेश भईलो॥ तइया मुसलमाणों। पीरां पूरषां जमी मुसल्लां॥ कर्तब लेक सलामों। हम दिल लिल्ला तुम दिल लिल्ला। रहम करै रहमाणों॥ इतने मिसले चालो मीयां। तो पावो भिस्त इमाणों॥१०॥ॐ शब्द :-11 प्रसंग:- फिर काजी ने कहा कि हम लोग काबे की हज करके आते हैं , इसलिए हमारे सारे पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं चाहे हम जीव हत्या करते रहें । तब गुरु जम्भेश्वर भगवान ने यह शब्द सुनाया : ओ३म् दिल साबत हज काबो नेडै। क्या उलबंग पुकारो॥सीने सरवर करो बंदगी। हक्क निवाज गुजारो॥ इंहि हेडै हरदिन की रोजी। तो इसही रोजी सारो॥ आप खुदायबंद लेखों मांगै॥ रे बिनही गुन्है जीव क्यूं मारो॥ थेतक जाणों तकपीड़ न जाणों। बिन परचै। बाद निवाज गुजारो॥ चर फिर आवै सहज दुहावै। जिसका खीर हलाली॥ जिसके गले करद क्यूं सारो। थे पढ़ सुण रहिया खाली॥ थे चढ़ चढ़ भीते मड़ी मसीते। क्या उलबंग पुकारो॥कारण खोटा करतब हींणा। थारी खाली पड़ी निवाजूं॥ किहिं ओजू तुम धोवो आप। किहिं ओजू तुम खंड़ो पाप॥ किहिं ओजू तुम धरो धियान। किहिं ओजू चीन्हों रहमान॥ रे मुल्लां मन माहि मसीत निवाज गुजारियो। सुणता ना क्या खरै पुकारिये॥ अलख न लखियों खलक पिछाणयो। चांम कटै क्या हुइयों॥ हक्क हलाल पिछाणयों नाहीं। तो निश्चै गाफल दोरै दीयों॥११॥ॐ शब्द :-12 प्रसंग :- फिर काजी कहने लगा कि जीव हत्या करना तो मुहम्मद साहब ने हमें बताया हैं । तब गुरु महाराज ने कहा कि ऐसा नहीं हैं और यह शब्द सुनाया : ओ३म् महमद महमद न कर काजी। महमद का तो विषम बिचारूं॥महमद हाथ करद जो होती। लोहै घड़ी न सारूं॥ महमद साथ पयंबर सीधा। एक लख असी हजारूं॥ महमद मरद हलाली होता। तुम ही भए मुरदारूं॥१२॥ॐ शब्द:-13 प्रसंग :- एक बार शोभाराम नामक एक जाट जम्भेश्वर जी के पास आया ।गुरु महाराज की ज्ञानवार्ता सुनकर वह कहने लगा कि हम तो दान पुण्य की बात पहले ही जानते हैं और घर पर आये हुए भोपों, सिद्वों को दान भी देते हैं , देवी देवताओं की पूजा भी करते हैं तो फिर उस परमेश्वर जिसको हम जानते भी नहीं उसका जाप करने का क्या लाभ हैं ? तब गुरु महाराज ने उसे यह शब्द सुनाया : ओ३म् कांयरे मुरखा तैं जन्म गुमायों॥ भुंय भारी ले भारूं॥ जादिन तेरै होमन जापन तपन किरिया। गुरू न चीन्हों पंथ न पायों अहल गई जमवारूं॥ तांती बेला ताव न जाग्यों। ठाढ़ी बेला ठारूं॥ बिंबै बैला विंष्णु न जंप्यो। तातै बहुत भई कसवारूं॥ खरी न खाटी देह बिणाठी। थीर न पबना पारूं॥ अहनिश आव घटंती जावै। तेरे श्वास सबी कसवारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो। ते नर कुबरण का॥ जा जन मंत्र विष्णु न जप्यो। ते नगरे कीर कहारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो। कांध सहै दुख भारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंन्यो। ते घण तण करै अहारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो। ताको लोही मांस बिकारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो। गावैं गाडर सहरे सूवर जन्म - जन्म अबतारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यों। ओडां कै घर पोहण होयसी पीठ सहै दुख भारू॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो। राने बासो मोनी बैसे, ढूके सूर सबारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु नं जंप्यो। ते अचल उठातव भारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु नं जंप्यो। ते न उतरिबा पारूं॥ जा जन मंत्र विष्णु न जंप्यो। ते नर दोरै घुप अंधारूं॥ तातैं तंत न मंत न जड़ी न बूंटी। ऊंडी पड़ी पहारूं॥ विष्णु न दोष किसो रे प्राणी। तेरी करणी का उपकारूं॥१३॥ॐ शब्द :-14 प्रसंग:- उपर्युक्त शब्द सुनकर उस शोभाराम जाट ने कहा कि हे देव ! वेदों की बहुत महिमा सुनी हैं । कृपया आप हमें वेदों का रहस्य व ज्ञान हमें बतायें । तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ओ३म् मोरा उपख्यान वेदूं कण तत भेदूं। शास्त्रे पुस्तके लिखणा न जाई॥ मेरा शब्द खोजो। ज्यूं शब्दे शब्द समाई॥ हिरणा दोह क्यूं हिरण हतीलूँ। कृष्ण चरित बिन क्यूँ बांघ बिडारत गाई॥ सुनहीं सुनहा का जाया। मुरदा बघेरी बघेरा न होयबा॥ कृष्ण चरित बिन। सीचाण कबहीं न सुजीऊं॥ खर का शब्द न मधुरी बाणी॥ कृष्ण चरित बिना, श्वान न कबही गहीरूं॥ मुंडी का जाया मुंडा न होयबा। कृष्ण चरित बिन, रीछां कबही न सुचीलूं॥ बिल्ली की इन्द्री संतोष न होयबा। कृष्ण चरित बिन, काफरा न होयबा लीलूं॥ मुरगी का जाया मोरा न होयबा। कृष्ण चरित बिन, भाकला न होयबा चीरूं॥ दंत बिवाई जन्म न आई॥ कृष्ण चरित बिन, लोहै पड़ै न काठ की सूलूं। नीबड़िये नारेल न होयबा। कृष्ण चरित बिन, छिलरे न होयबा हीरूं॥ तूबण नागर बेल न होयबा। कृष्ण चरित बिन, बांवली न केली केलूं। गऊ का जाया खगा न होयबा। कृष्ण चरित बिन, दया न पालत भीलूँ॥ सुरी का जाया हसती न होयबा। कृष्ण चरित बिन, ओछा कबहो न पुरूं॥ कागण का जाया कोकला न होयवा कृष्ण चरित बिन, बुगली न जनिबा हंसू॥ ज्ञानी के हृदय प्रमोद आवत। अज्ञानी लागत डांसू॥।१४॥ॐ शब्द:-15 प्रसंग :- शोभाराम जाट गुरु महाराज की वाणी सुन कर काफी प्रभावित हुआ । वह कहने लगा कि आपकी बातें तो सत्य हैं परन्तु यह मन वश में नहीं आता व छल कपट करने व झूठ बोलने की आदत जीव से नहीं छूटती । हे देव ! कोई ऐसा सरल उपाय बतायें ताकि यह जीव सांसारिक लालसाओं से मुक्त हो जाये । तब गुरु महाराज ने उसे यह शब्द सुनाया : ओ३म् सुरमां लेणा झीणा शब्दूँ म्हे भूल न भाख्या थूलूं॥ सो पति बिरखा सींच प्राणी। जिहिंका मीठा मुल समुलूँ॥ पाते भूला मूल न खोजै। सीचो कांय कुमूलूँ॥ विष्णु विष्णु भण अजर जरीजै। यह जीवन का मूलूँ॥ खोज प्राणी ऐसा बिनाणी। केवल ज्ञानी ज्ञान गहीरू। जिहिंके गुणै न लाभत छेहूँ॥ गुरु गेंवर गरवा शीतल नीरूं। मेवा ही अति मेऊं॥हिरदै मुत्का कमल संतोषी। टेवा ही अति टेऊं॥ चड़कर बोहिता भव जल पार लघांवै। सौ गुरू खेवट खेवा खेहूं। ॥१५॥ॐ शब्द:-16 प्रसंग :-गुरु महाराज द्वारा कहे गये कई शब्दों का श्रवण करके जाट पुन: बोला कि हे देव ! मैं देख रहा हूँ कि आपके पास आकर आपकी वाणी सुनने वाले लोग थोड़े दिन पहले तक तो सभी कुकर्मो व दुराचार में लिप्त थे लेकिन इतने जल्दी ही कैसे बदल गये व पवित्र हो गये ? तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ओ३म् लोहै हूतां कंचन घड़ियों। घड़ियों ठाम सुठाऊं॥ जाटां हूतां पात करीलूं। यह कृष्ण चरिंत परिवाणो॥ बेड़ी काठ संजोगे मिलिया। खेवट खेवा खेहूं॥ लोहा नीर किसी बिध तरिबा। उत्तम संग सनेहुं॥ विन किरिया रथ बैसैंला। ज्यूं काठ संगीणी लोहा नीर तरीलूं॥ नागड़ भागड़ भूला महियल। जीव हतै मड़ खाईलो॥१६॥ॐ शब्द :17 प्रसंग :-एक बार गुरु जम्भेश्वर भगवान के अनुयायी भक्तों व एक मूढ़ व्यक्ति जो कि वाद - विवाद में ग्रस्त रहता था , के बीच विवाद हो गया । वह मूढ़ ,अज्ञानी , जम्भेश्वर जी के भक्तों को कहने लगा कि जम्भा जी कोई देव नहीं हैं बल्कि वह तो साधारण व्यक्ति हैं व उनकी एक स्त्री भी हैं । जम्भेश्वर जी के भक्तों का कहना था कि वो निराहारी ,माया रहित ,ईश्वरीय रूप व बाल ब्रह्मचारी हैं । यह विवाद लेकर जब दोनों पक्ष गुरु महाराज के पास पहुंचे तो गुरु जी ने उन्हें यह शब्द सुनाया : ओ३म् मोरै सहजै सुन्दर लोतर बाणी। ऐसा भयो मन ज्ञानी॥तइया सासूं। तइया मासूं। रक्तूं रहीयूं॥ खीरू नीरू। ज्यूं कर देखूं। ज्ञान अदेसूं। भूला प्राणी कहै सो करणे॥ अइ अमाणो। तत समाणो। अइया लो महे पुरूषन लेणा नारी। सो दत सागर सो सुभ्यागत। भवन भवन भिखियारी॥ भीखीं लो भिखियारी लो। जे आदि परमतंत लाधे॥ जाकै बाद बिराम बिरासो सांसो। तानै कौन कहसी साल्हिया साधु॥१७॥ ॐ शब्द :-18 प्रसंग :-बहुत से जाट लोग जाम्भो जी की शरण में आये व गुरु महाराज की ज्ञान वार्ता व उपदेश सुनकर बिश्नोई पंथ के नियमों पर चलने लगे व बिश्नोई बन गये । एक समय उन्हीं लोगों के व अन्य भक्तों के समक्ष गुरु महाराज ने अपनी ज्ञान वार्ता का अगला शब्द सुनाया : ओ३म् जांकुछ जांकुछ जां कछू न जांणी। नाकुछ नाकुछ तां कुछ जांणी॥ नाकुछ नाकुछ अकथ कहाणी। नाकुछ नाकुछ अमृत बाणी। ज्ञानी सोतो ज्ञानी रोवत। पढ़िया रोवत गाहे॥ केल करन्ता मोरी मोरा रोवत। जोय जोय पगां दिखाही। उरध खैणी मन उनमन रोवत। मुरखा रोवत धाहीं॥मरणत माघ संघारत खेती। के के अवतारी रोवत राही॥ जड़िया बूंटी जे जग जीवै। तो वैदा क्यूं मर जाही॥ खोज पिरांणी ऐसा बिनाणी। नुगरा खोजत नाहीं॥ जां कुछ होता ना कुछ होयसी। बल कुछ होयसी ताहीं॥१८॥ॐ शब्द :-19 प्रसंग :-एक समय एक भक्त ने जिज्ञासावश यह प्रश्न किया कि हे देव ! आप इस संसार में किस किस रूप में रहते हैं । आप अपने रूप का रहस्य हमें बतायें । तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ रुप अरुप रमूं, पिण्डे ब्रह्मणडे ।घट घट अघट रहायों ।।अन्नत जुगां मैं अमर भणी जूं । ना मेरे पिता न मायों ।ना मेरे माया ना छाया ॥रुप न रेखा । बाहर भीतर अगम अलेखा ।। लेखा एक निरंजन लेसी । जहां चीन्हो तहां पायों ॥अड़सट तीर्थ हिरदा भीतर । कोई कोई गुरुमुख बिरला न्हायों ॥ ॐ शब्द :-20 प्रसंग :-एक बार भक्तजनों ने गुरु महाराज से पूछा कि शुभकर्महीन व मर्यादाहीन मनुष्यों की क्या दशा होती हैं व दया पालन करने का क्या महत्त्व हैं । तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ जां जां दया न मया ।तां तां बिकरम कया ॥जां जां आव न वैसूं ।तां तां स्वर्ग न जैसूं ॥ जां जां जीव न जोती ।तां तां मोक्ष न मुक्ति ॥ जां जां दया न धर्मूं ।जां जां पाले न शीलूं ।तां तां कर्म कुचीलूं ॥जां जां खोज्या न मूलूं । तां तां प्रत्यक्ष थूलूं ॥जां जां भेधा न भेदूं ।तो स्वर्गे किसी उमेदूं ॥जां जां घमणड़े स घमंडू । ताके ताव न छायों ।सूतै सास नसायौ ॥ॐ शब्द :-21 प्रसंग :- एक बार गुरु जम्भेश्वर जी के पास एक चारण जाति की स्त्री आई और उनमें अपनी श्रद्वा व्यक्त करते हुए कहने लगी कि महाराज ! मैं कई राजाओं के महलों में जाती रहती हूँ अत:आप मुझे एक ऊँट दान में दे दीजिये ,जिस पर घूम घूम कर ढोल व बाजा बजाते हुए आपके नाम व गुणों का खूब प्रचार करुँगी । तब गुरु महाराज ने उसके प्रति यह शब्द सुनाया : ॐ जिंहिं के सार असारुं । पार अपारूं ।थाघ अथागूं । उमग्या सामाघू ॥ते सरवर कित नीरुं । बाजालो भलबाजालो ।बाजा दोय गहीरूं ॥एकण बाजे नीर बरसै ।दुजे मही बिरोलत खीरु॥ जिंहिं के सार असारूं ।पार अपारुं ॥थाघ अथाघूं ॥उमग्या समाघूं ॥गहर गम्भीरूं । गगन प्याले ॥बाजत नादूं ।माणक पायो ॥फैर लुकायो ।नहीं लखायो ॥दुनियां राती बाद बिबादे । बाद बिबादे दाणूं खीणा ॥ ज्यूं पहूपे खीणा भवरी भवरा ।भावैं जाण मजाण प्राणी ॥ जौले कारिप जंवरा ।भेर बाजा तो एक जोजनो ॥अथवा तो दोय जोजनो ।मेघ बाजातो पंच जोजनो॥ अथवा तो दश जोजनो ।सोई उतम ले रे प्राणी ॥जुगां जुगान्णी सत करि जान्णी ।गुरु का शब्द ज्यूँ बोले झींणी बाणी॥जिंहिं का दूरां हुंते दूर सूणीजै ।सौ शब्द गुणा कारूं ॥ गुणा सारूं बले अपारुं ॥21॥ शब्द:-22 प्रसंग:- एक बार जांगलू निवासी वरसिंह नामक व्यक्ति अपनी धर्मपत्नी के साथ गुरु जी के और अपने पुत्र के बारे में जानना चाहा । वह कहने लगे कि हमारा पुत्र जो अभी छोटा हैं , वह मिट्टी के हिरण बनाकर उन्हें बाण से मारने का खेल खेलता रहता हैं जिससे लगता है कि यह कोई दुष्ट जीव हैं । आप हमें बतायें कि यह जीव कौन हैं व पिछले जन्म में क्या था । हम तो बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हैं । क्या इसमें हमारा भी कोई दोष हैं ? तब गुरु महाराज ने जीव के कर्मों के संस्कार के अनुसार जन्म लेने व इसके विज्ञानं के बारे में यह शब्द सुनाया : ॐ लो लो रे राजैन्द्र रायों ।बाजे बाव सुवायों ॥आभै अमीं झुरायौ ।कालर करषण कियो ॥ नेपै कछु न कींयो ।अइया उतम खेती ॥को को अमृत रायों ।को को दाख दिखायो ॥ को को ईख उपायों ।को को नीन्ब नींबोली ॥ को को ढाक ढकोली ।को को तूषण तूंबण बेली ॥ को को आक अकायों ।को को कछु कमायों ॥ताका मूल कूमूलू ।ताका पात कूपातूं । ताका फल बीज कूबीजूं ॥तो नीरे दोष किसायो ।क्यूं क्यूं भये भागे ऊंणा ॥क्यूं क्यूं कर्म बिहूंणा । को को चिड़ी चमेड़ी ॥को को उल्लू आयों ।ताके ज्ञान न जोती ॥मोक्ष न मुक्ती याके कर्म इसायों ॥ तो नीरे दोष किसायो ॥ शब्द :-23 प्रसंग :- कुछ तेली जाति के लोग गुणावती गाँव में रहते थे । वे गुरु जम्भेश्वर जी के शिष्य थे व गुरु जी ने उन्हें पाहल देकर बिश्नोई बनाया हुआ था । एक बार बादशाह के सिपाहियों ने वन में शिकार करके मांस पकाने हेतु उनसे तेल मांगा । उन तेली बिश्नोइजनो ने यह कहकर तेल देने से इनकार कर दिया कि वे बिश्नोई हैं व उनके गुरु श्री जम्भेश्वर जी हैं जिन्होंने जीवों पर दया करने व उनकी हत्या न करने का नियम उन्हें दिया हैं । अत:वे गुरु आज्ञा के विपरीत कोई काम नहीं करेंगे । यदि हम तेल देंगें तो आप द्वारा मारे गये जीव हत्या के भागीदार हो जायेंगे । इस बात पर उन बिश्नोइयो व बादशाह के सिपाहियों के बीच काफी विवाद हो गया व मारा -मारी हुई । सिपाहियों के साथ झगडते हुए उन बिश्नोइयो को काफी गहरी चोटें भी आई लेकिन वे पीछे नहीं हटे व सिपाहियों को तेल नहीं दिया । अंतत:वे सिपाही उनकी दृढ़ता व साहस देखकर पीछे हट गये । इस घटना को समराथल धोरे पर विराजमान गुरु महाराज ने अपनी दिव्यदृष्टि से देखा तो अत्यंत प्रसन्न हुए । गुरु महाराज के नजदीक बैठे संतजनों व भक्तों ने जब गुरु महाराज से इस विशेष प्रसन्नता का कारण पूछा तो गुरु महाराज ने उन्हें यह शब्द सुनाया : ॐ साल्हिया हुआ मरण भय भागा ।गाफल मरणें घणा डरे ॥सत गुरु मिलियो सतपथ बतायो । भ्रांत चुकाई ।मरणे बहु उपकार करे ॥रतन काया सोभंति लाभै ।पार गिराये जीव तिरै । पार गिराये सनेही करनी ।जंपौ विष्णु न दोय दिल करणी ॥जंपौ विष्णु न निन्दा करणी । मांडो कांध विष्णु के शरणे ॥तो पार गिरन्य गुरु की बाचा ॥रवणा ठ्वणा चवरा भवणा । ताहि परे रै रतन काया छै ॥लाभै किसे बिचारी ।जे नवी थे नवणी ॥खवीये खवणी, जरिये जरणी । करिये करणी ॥तो सीख हुआ घर जाइये ।रतन काया साँचे की ढ़ोली ॥ गुरु परसादे केवल ज्ञाने। धर्म अचारे । शीलै संजमे ।सत गुरु तूठे पाइये ॥23॥ शब्द -: 24 प्रसंग :- एक समय अपने भक्तों की जमात सहित गुरु महाराज समराथल धोरे पर विराजमान थे तो एक बिश्नोई स्त्री ने गुरु महाराज से कहा कि ढोसी नामक पहाड़ी पर एक योगी बैठा हैं जो कई प्रकार की सिद्वियां दिखाता हैं व कभी कभी तो लगता हैं कि वह पहाड़ को भी हिला रहा हैं यह सब देख कर हमें आश्चर्य हो रहा हैं कृपया हमें बतायें कि उसमें ऐसी कौनसी सिद्वि हैं या सब पाखण्ड ही हैं । तब गुरु जी ने उस स्त्री के प्रति यह शब्द सुनाया :- ॐ आसन बैसण कूड़ कपटण । कोई कोई चीन्हत बौजू बाटे ॥बौजू बाटे जे नर भया । काची काया छोड़ कैलाशै गया ॥ शब्द :- 25 प्रसंग :- नागौर के सूबेदार मुहम्मदखां ने जम्भेश्वर जी के बारे में काफी सुन रखा था । गुरु महाराज की महिमा को प्रत्यक्ष देखने के लिए वह समराथल धोरे आया व अपने साथ कई हाथी , घोड़े व सैनिक भी लाया । उसने राजकीय अभिमान से साथ गुरु महाराज से प्रश्न किया कि मेरे कर्मों के बारे में व करनी के बारे में बतलायें तथा यह भी बतायें कि मनुष्य का परलोक कैसे सुधरता हैं ? तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ राज न भूलीलो ।राजैन्द्र दुनी न बंधै मैरूं ॥पवणा झोलै बीखर जैला ।धुंवर तणा जै लोरूं ॥ बोलस आभै तणा लहलोरूं ।आडा डंबर कैती बार बिलंबण यो संसार अनेहुं ॥भूला प्राणी विष्णु न जंप्यो ।मरण बिसारो केहूं ॥महां देखंता देव दाणूं सुर नर खीणा ।जंबू मंझे राचि न रहिबा थेहूं ॥नदिये नीर न छीलर पाणी ।घूंवर तणा जे मेहूं ॥हंस उडाणो पंथ विलम्बयो ।आशा श्वाश निराश भईलौ ॥ताछै होयसी रंड निरंडी देहूं ।पवणा झौले बीखर जैलां गैण बिलंबी खेहूं ॥25॥ शब्द :- 26 प्रसंग :- एक बार श्री जम्भेश्वर जी अपने श्रद्वालुओं सहित समराथल धोरे पर विराजमान थे तो धोरे के नीचे एक साधुओं की मंडली जा रही थी जिसका महन्त शरीर से काफी मोटा व भारी था । कुछ भोले लोगों ने उसके शरीर के मोटापे की प्रशंसा की तो गुरु महाराज ने उनका भ्रम मिटाने व अज्ञानता को दूर करने हेतु यह शब्द सुनाया :- ॐ घण तण जीमें को गुण नांही ।मल भरिया भंडारूं ॥आगे पीछे माटी झुलै ।भूला बहैज भारुं ॥ घणा दिना का बड़ा न कहिबा । बड़ा न लंघिबा पारूं ॥उतम कुली का उतम न होयबा ।कारण क्रिया सारूं ॥गोरख दीठा सिद्ध न होयबा ।पोह उतरिबा पारूं ॥कलजुग बरतै चैतो लाई । चैतौ चैतण हारुं ॥सतगुरु मिलियो सतपंथ बतायो ।भ्रांति चुकाई बिदगाराते उदगा गारूं ॥26॥ शब्द :- 27 प्रसंग :- गुरु महाराज के उपदेश सुनकर जब मुहम्मदखां नागौरी काफी प्रभावित हुआ और उसने गुरु महाराज की बातें शेख मनोहर को भी बतायी । शेख मनोहर को यह बातें रास नहीं आई और वह स्वयं समराथल धोरे पर आया व जाम्भा जी से प्रश्न किया कि यदि आप सूक्ष्म जीव के बारे में जानते हैं तो यह बताइये कि गर्भ धारण होने पर उस गर्भ में जीवात्मा किस द्वार से प्रवेश करती हैं । गुरु महाराज ने शेख से कहा कि आपके हिसाब से गर्भ में जीवात्मा किस द्वार से प्रवेश करती हैं । तब शेख ने कहा कि हमारे अनुसार तो नासिका द्वार से जीवात्मा प्रवेश करती हैं । इस पर गुरु महाराज ने कहा कि फिर यह बताइये कि अण्डे के तो नासिका नहीं होती उसमें जीव किस द्वार से प्रवेश करता हैं ? इसका उत्तर शेख मनोहर को नहीं आया तो गुरु महाराज ने उसे यह शब्द सुनाया :- ॐ पढ कागल वेदूं शास्त्र शब्दूं । पढ सुन रहिया कछु न लहिया ॥नुगरा उमग्या काठ पषाणों कागल पोथा ना कुछ थोथा ।ना कुछ गाया गिउं ।किण दिस आवे किण दिस जावै ।माय लखै ना पीऊं ।ईंडे मध्ये पिंड उपना ॥पिंडे मध्ये बिंब उपना ।किण दिश पैठा जींऊं ॥ईँडे मध्य जीव उपना ।सुणरे काजी सुणरे मुल्ला ।पीर ॠषीश्वर रेमस बासी तीर्थ वासी किण घट पैठा जीऊं ॥ कंसा शब्दे कंस लुकाई ।बाहर गई न रीऊं ॥क्षिण आवै क्षिण बाहर जावे ।रुत कर बरसत सीउं ॥ सोवन लंक मंदोदर काजै ।जोय जोय भेद विभीषण दियो ॥तेल लियो खल चौपे जोगी ।तिंहिंका मोल थोड़ेरो कीयो ॥ज्ञाने ध्याने नादे वेदे जे नर लेणा ।तत भी तांही लियो ।करण दधीच सिंबर बल राजा ।हूई का फल लियों ॥तारादे रोहितास हरिचँद ।काया दसबन्ध दीयों ॥विष्णु अजंप्या जन्म अकारथ ।आंके डोडा खींपे फलीयों ॥काफर बिबरजत रहियूं ।सेतू भाँतू बहू रंग लेणा ॥ सब रंग लेणा रहियूं ।नाना रे बहु रंग न राचै काली ऊन कुजीऊं ॥पाहे लाख मजीठी राता । मूल न जिंहिं का रहियूं ॥कब ही वह गृह ऊथरी आवै ।शैतानी साथै लीयौं ॥ठोठ गुरु वृष लि पति नारी ।जद बँकै जद बीरूं ॥अमृत का फल ऐक मन रहिबा ।मेवा मिष्ट सुभायों ॥अशुद्ध पुरुष वृष ली पति नारी ।बिन परचै पार गिराय न जाई ॥देखत अन्धा सुणता बहरा ।तासौ कछु न बसाई ॥ शब्द :-28 प्रसंग :- शेख मनोहर ने उपर्युक्त शब्द सुनकर गुरु जम्भेश्वर भगवान् से पूछा कि आप हमें यह बतायें कि आत्मा का रूप कैसा होता हैं ? तब जाम्भोजी ने यह शब्द सुनाया :- ॐ मच्छी मच्छ फिरैं जल भीतर ।तिंहि का माघ न जोयबा ॥परम तत्व है ऐसा । आछैं उरबार न ताछैं पारूं ॥ओवड़ छेवड़ कोई न थीयों ।तिंही का अन्त लहीबा कैसा ॥ऐसा लो भल ऐसा लो ।भल कहो न कहा गहीरूं ॥परम तत्व के रूप न रेखा ।लीक न लेहूं खोज न खेंहू ॥बरण बिबरजत । भावैं खोजो बावन बीरूं ॥मीन का पंथ मीन ही जाणे ।नीर सुरगम रहियूं ॥सिध का पंथ कोई साधु जाणत ।बीजा बरतन बहियों ॥ शब्द – 29 (इलोल सागर) प्रसंग:- एक बार जम्भेश्वर भगवान् ने समराथल धोरे पर बैठे हुए अपने आप ही कन्नौज , कालपी आदि शहरों के बारे में जिक्र किया तथा कुछ और जगहों का भी जिक्र किया । तब भक्तजन कहने लगे कि हे गुरुदेव ! आप तो हमेशा हमारे सामने समराथल धोरे पर ही विराजमान रहते हो । आप यह बतायें कि इन भिन्न भिन्न जगहों पर ,जिनका आपने जिक्र किया हैं आप कब गये थे । तब गुरु महाराज को स्वत: ही उमंग आई और यह शब्द सुनाया । इस शब्द को इलोल सागर शब्द भी कहते हैं क्योंकि यह विशेष उमंग इलोल की अवस्था में कहा गया था , इसलिए इस शब्द को सुनने व पढ़ने से विशेष आनंद की भी प्राप्ति होती हैं :- ॐ गुरु के शब्द असंख्य प्रबोधी ।खार समन्द परीलो ॥खार समन्दर परे परेरै ।चौखणड खारूं पहिला अन्त न पारूं ॥अनन्त कोड़ गुरु की दावण बिलंबी |करणी साचतरिला ॥साँझैजमों सवैरैं थापण | गुरु की नाथ डरीलो ॥भगवी टोपी थलसिर आयो |हेत मिलाण करीलो ॥अम्बाराय बधाई बाजे |हृदय हरि सिमिरिलो ॥कृष्ण मया चौखण्ड कृषांणी |जम्बूदीपे चरीलो ।जम्बूदीप ऐसो चर आयो |ईसकंदर चेतायो ॥मान्यो शील हकीकत जाग्यो |हक की रोजी धायों ॥ऊंनथ नाथ कुपह को पोहमा आणयां |पोह का धुर पहुंचायों ॥मोरे धरती ध्यान, बनस्पति बासो |औजू मण्डल छायों । गेंदू मेर पगाणे पर्बत ॥औजू मण्डल छायों ।गेंदू मेर पगाणे पर्बत ॥मन्सा सोड़ तुलायों । ऐ जुग चार छतीसां और छतीसां ॥आश्रा बहै आंधारी ।म्हे तो खड़ा बिहयों ॥तेतीसां की बरग बहाम्हे | बारां काजे आयो ॥बारां थाप घणां न ठाहर मतां तो डीले डीले कौड़ रचायो ॥म्हे ऊंचे मण्डल का रायो | समंद बिरोल्यो बासग नेतो ॥मेर मथाणी थायों ।सँसा अर्जुन मारयो ॥कारज सारयो ।ज्द म्हे रहस दमामा बायों ॥फेरी सीत लई जद लंका ।तद म्हे ऊथे थायों ॥दह सिर का दस मस्तक छेदा । बाण भला निर तायों ॥म्हे खोजी था पण होजी नां ही ।लह लह खेलत डायों ॥कंसा सुर सो जुवै रमिया । सहजे नन्द हरायो ॥कुंत कुंवारी कर्ण समानो |तिंहिं का पोह पोह पड़दा छायों ॥पाहे लाख मजीठी पाखो |बन फल राता पीझूं पाणीके रंग धायों ॥तेपण चाख न चाख्या |भाखन भाख्या ॥जोय जोय लियो फल केर रसयों ॥थे जोग न जोग्या भोग न भोग्या न चीन्हो सुर रायों ॥कण बिन कूकस कांये पीसो |निश्चे सरी न कायों ॥ म्हे अबधू निर पख जोगी |सहज नगर का रायों ॥जो ज्यौं आवे सौ त्यूं थरपां |साचासौं सत भायों ॥मौरे मन ही मुद्रा तन ही कंथा |जोग मारग सह लीयों ॥ सात सायर म्हे कुरलैं कीयों |ना म्हे पिया न रहयो तिसायों ॥डाकण साकण निद्रा खुदया |ये म्हारे तांबे कूप छिपायों ॥म्हारे मन ही मुद्रा तन ही कंथा |जोग मार्ग सह लियों ॥ डाकण साकण निद्रा खुदया|भाखन भाख्या ॥ शब्द :-30 { कुन्ची वाला } प्रसंग - एक बार श्रद्वालुओं ने गुरु महाराज से पूछा कि आप हमें ऐसी बात बताइये ताकि मरने के बाद हम सीधा स्वर्ग में जायें । कोई ऐसी कुंची (चाबी ) बताइये जिससे स्वर्ग का द्वार खुल जाये व हम स्वर्ग में प्रवेश कर सकें । तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया । इसको कुंची चाबी वाला शब्द भी कहते हैं । कहा जाता हैं कि मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए व्यक्ति को यदि यह शब्द सुनाया जाये तो भी उसको ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं और उसकी मोहमाया का भाव छूटने से उसके प्राण भी सरलता से निकल जाते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती हैं ॐ आयो हंकारो जिवड़ो बुलायों ।कह जिवड़ा क्या करण कमायो ॥थरहर कंपे जीवड़ो डोलै । उत माई पीव कोई न बौले ॥सुकरत साथ सगाई चालै ।स्वामी पवणा पांणी नवण करंतो ॥ चन्दे सुरे सीस नवन्तो ।विष्णु सुराँ पोई पूछ लंहतो ॥इन्हि खोटे जन मन्त्र स्वामी अहनिस तेरा नाम जपंतो ॥निगम कमाई मांगी मांग ।सुरपति साथ सुरासूरंग ॥सुरपति सुरां सू मेलो निज पोह खोज ध्याइये ॥भोम भली कृषाण भी भला |बूठो है जहां बाहियो ॥करसण करो स्नेही खेती | तिसिया साख निपाइये ॥लुण चुण लीयो मुरा तब कीयो ॥कण काजै खड़गाहिये ॥कणतुस झेड़ो होय निबेड़ो |गुरुमुख पवन उडाइये ॥पवणा डौले तुस उड़ैला |कण लै अर्थ लगाइये ॥यूं क्यूं भलो जे आपने जरिये ।औरां अजर जराइये ॥यूं क्यूं भलो जे आपने फरिये ।औरां अफर फराइये ॥ यूं क्यूं भलो जे आप न मरिये ।अवरां मारण धाइये ॥पहले क्रिया आप कमाइये |तो औरांन फरमा इये ॥मत भलके मर जाइये ॥शौच स्नान किरो जिन नांही | जिवड़ा काजे नहाइये ॥शौच स्नान किया जिन नांही |होय भंतूलो बहाइये ॥शील बिबरजत जीव दुहेलो |यमपुरिये संताइये ॥ रतन काया मुख सुवर बरगो |अवखल झंखे पाइये ॥सवामण सोनो करणे पाखो |किण पर बाह चलाइये ॥एक गउ गवाला ॠषि मांगी |करण पखो किण सुबच्छ दुहाइये ॥करण पखो किण कन्च्न दिन्हौ ।राजा कवन कहाइये ॥रिण मध्ये स्वामी करण पाखो ।कुण हीराडसन पुलाइये ॥ किंहि निश धर्म हुवे धुर पुरो ।सुर की सभा समाइये ॥जो नविये नवणी खविये खवणी ।जरिये जरणी ॥करिये करणी ।तो सीख हुआ धर जाइये ॥अहनिष धर्म हुवे धुर पुरो ।सुर की सभा समाइये ॥ किंहिं गुण बिदरो पार पहुंतो ।करणे फेर बसाइये ॥मनसुख दन जो दीन्हो करणै ।आवागवण जु आइये ॥गुरुमुख दानजु दीन्हौ बिदरे|सुर की सभा समाइये ॥निज पौह पाखौ पार असी पुर | जाणी गीत बिवाहै गाइये ॥भरमी भूला बाद बिबाद |आचार विचार न जाणत स्वाद ॥ कीरती के रंग राता मुरखा मन हट मरै |ते पार गिराये कित उतरै ॥ 30 ॥ शब्द :-31 प्रसंग :- एक बार एक श्रद्वालु ने श्री जम्भदेव जी से प्रश्न किया कि हे देव ! हमने सुना है कि जीवन में किसी प्रकार का संकट या कष्ट आने पर किसी देवी देवता की पूजा करके विशेष भेंट भी चढ़ानी चाहिए । कृपया आप हमारी शंका का निवारण कीजिए । तब गुरु महाराज ने उसे यह शब्द सुनाया : ॐ भल मूल सींचो रे प्राणी ज्यौं का भल बुद्धि पावे ॥जामन मरण भव काल जू चूकै ।तो आवागवण न आवे ॥भल मूल सींचो रे प्राणी ।ज्यौं तरवर मेलत डालूं ॥हरि पर हरि की आव न मानी । झख्या भूलां आलूं ॥देवा सेवा टेव न जांणी । नं बँच्या जम कालूं ॥भूलै प्राणी विष्णु न जंप्यौ मूलन खोज्यो ।फिर फिर जोया डालूं ॥बिन रैणायर हीरै नीरै ।नगन सीपे तके न खोला नालूं ॥ चलन चलन्ते बास बसन्ते जीव जीवन्ते काया नवन्ते ।काँयरे प्राणी विष्णु न घाती भालूं ॥ घड़ी घटंतर पहर पटंतर ।रात दिनंतर ॥ मास पखंतर ।क्षिण औल्हर हवा कालूं ॥मीठा झूंठा मोह बिटंबण ।मरक समाया जालूं ॥कबही को बाइंदो बाजत लौई ।घड़िया मस्तक तालूं ॥जीवां जौणी पड़ै फासा ।ज्यौं झींवर मछी मच्छा जालूं ॥पहलै जीवड़ो चैतो नांही ।अब उंडी पड़ी पहारूं ॥ जीवर पिंड बिछोड़ो होयसी।तादिन थाक रहै शिर मारूं ॥ शब्द :- 32 प्रसंग :- नागौर शहर में रामा सुराणा नाम का एक बनिया रहता था । उसका वास्ता कुछ बिश्नोई लोगों का नित्य स्नान करना , हवन करना , विष्णु का जाप करना व अन्य नियमों का पालन करना देख कर कहने लगा कि हे भाइयों , आप लोगों के स्नान , हवन व विष्णु जाप इत्यादि नियमों के पालन से तुम्हें कुछ भी फल नहीं मिलेगा बल्कि जीवन में दान से ही फल मिलता है , इसलिए आप लोग केवल दान दो ताकि अगले लोक में तुम्हें वापिस मिल जायेगा व बिना दान के तो कुछ भी सुख शांति प्राप्त होने वाली नहीं हैं । इस बात की शंका के निवारण हेतु बनिये सहित श्रद्वालुजन गुरु महाराज के पास पहुंचे व सेठ की बात बताकर शंका का निवारण करना चाहा । तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ कोत गऊ जे तीर्थ दानों ।पांच लाख तुरगम दानों ॥कण कंञ्चन पात पटंबर दानों ।गज गेवर हस्ती अति बल दानों ॥करण दधीच सिंवर बल राजा ।श्रीराम ज्यौं बहुत करै आचरूं ॥ जां जां बाद बिबादि अति अहंकारी लुब्द सवादी ।कृष्ण चरित बिन नांहि उतरिबा पारूं ॥ 32॥ शब्द :- ३३ प्रसंग :- फिर रामा सेठ ने जाम्भोजी जी से प्रश्न किया कि हे देव ! हमें मृत्यु से डर लगता हैं व आवागमन का चक्कर भी काफी मुश्किल व कष्टदायी लगता हैं | क्या कोई ऐसा उपाय नहीं हैं जिससे इस जन्म का यह शरीर ही अमर हो जाये और मनुष्य जन्म के पश्चात मरे ही नहीं | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ कवण न हुआ कवण न होयसी किण न सह्यो दु:ख भारूं ॥कवण न गया कवण न जासी । कवण रहा संसारूं ॥अनेक अनेक चलंता दीठा ।कलिका माणस कौण विचारूं ॥जो चित होता सो चित नांही ।भल खोटा संसारूं ॥किस का माई किसका भाई ।किस का पख परवारूं ॥ भूली दुनिया मर मर जावै ।न चीन्हौ करतारूं ॥ विष्णु विष्णु तुं भण रे प्राणी ।बल बल बारम्बारूं ॥ कसणी कसवा भूल न बहवा ।भाग परापति सारूं ॥गीता नाद कविता नाउं ।रंग फटारस टारूं ॥ फोकट प्राणी भर में भुला ।भलजे यौं चीन्हौं करतारूं ॥जामण मरण बिगोवो चुकै । रतन काया लै पार पहुचै तो आवागवण निवारुं ||३३|| शब्द :- ३४ प्रसंग :- रामा सेठ ने फिर प्रश्न किया कि हे देव ! विष्णु का जाप कितने दिनों तक या कितने समय तक किया जाये ताकि जीव को मुक्ति प्राप्त हो | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ फुरण फुहारै कृष्णी माया ।घण बरसंता सरवर नीरे ॥तिरी निरन्ते जे तिस मरे तो मरियों अत्रों धत्रों दूधूं दहियों ॥घीऊं मेऊं टेऊं जे लाभन्ता ।भूख मरे तो जीवन ही बिन सरियो ॥ खेत मुक्त ले कृष्णा अर्थो ।जे कन्ध हरे तो हरियो ॥विष्णु जपन्ता जीभु जे थाकै ।तो जीभड़ीया बीन सरियो ॥हरि हरि करता हरकत आवे तो ना पछतावो करियों ।भीखी लो भीखीयारी लो ॥ जै आद परम तत्व लाधो ।जाके बाद बिराम बिरासो सासों ॥तानै कौन कहसी सालिया साधौ ॥ शब्द :- ३५ प्रसंग :- एक बार एक नाथपंथी योगी ने गुरु महाराज से प्रश्न किया कि आप यह बतायें कि वेदों की बात सत्य है | उसने कहा कि आपके उपदेश तो मुझे वेदों से कुछ अलग लगते हैं | तब गुरु महाराज ने उसके प्रति यह शब्द सुनाया :- ॐ बल बल भणत व्यासूँ ।नाना अगम न आसूं ॥नाना उदक उदासूं ।बल बल भई निराशूं ॥ गल में पड़ी परासूं ।जां जां गुरु न चीन्हौ तइया सीचा न मूलूं कोई कोई बोलत थूलूं । ॐ शब्द :-३६ प्रसंग :- पूर्व के शब्द द्वारा जब गुरु महाराज ने उस योगी को यह बताया कि केवल शास्त्रों को पढ़ने मात्र से ज्ञान नहीं होता बल्कि शास्त्रों में लिखी बात का सही अर्थ समझ कर उसका ज्ञान ग्रहण करके वैसा ही आचरण करने से व परमतत्व कि पहचान करने से ही लाभ होता है | इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए गुरु महाराज ने यह बताया कि वेद और कुरान में तत्त्वज्ञान की बातें बहुत गहरी हैं | इन शास्त्रों के ज्ञान को सही सही समझने की आवश्यकता हैं : ओ3म् काजी कथै कुराणों । न चीन्हों फरमाणों ।। काफर थूलभयाणों । जइया गुरू न चीन्हीं ।। तइया सींच्या न मूलूं । कोई 2 बोलत थूलूं ।। ३६ ।। शब्द :-३७ प्रसंग :- फिर एक दुसरे योगी ने प्रश्न किया कि जब ब्रह्मा (परमात्मा ) एक हैं तब तो उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करने का तरीका या विचार भी एक ही प्रकार का होना चाहिए जबकि हम देखते हैं , कोई उस ब्रह्मा को प्राप्त करने या खोजने के लिए कुछ ही तरीके अपनाता है या विचारधारा बनाता है तो कोई दूसरा तरीका या विचारधारा की बात करता है | यह कैसे ? तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ लोहा लंग लुहारूं ठाठा घड़ै ठठारूं ।उतम कर्म कुम्हारूं ॥जइया गुरु न चीन्हौं । तइया सींचा न मूलूं ।कोई कोई बोलत थूलूं ॥ ॐ शब्द :- ३८ प्रसंग :- एक बार गुरु महाराज तत्त्वज्ञान की बातें अपने जिज्ञासुओं को बता रहे थे तो एक गोसाई साधु आया | उसने कहा कि आपके पास तो साधु होने का कोई प्रमाण , चिन्ह जैसे ठुमरा, कंठी, मुद्रा , तिलक , ताबीज आदि कुछ भी नहीं हैं | मेरे गले में तो यह देखो ठुमरा है , जिससे सिद्व होता हैं कि मैं सच्चा साधु हूँ | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ रे रे पिंडस पिंडू ।निरध्न जीव क्यों खणडू ॥ताछै खण्ड बिहणड़ूं घडिय से घमणड़ूं ॥ अइया पंथ कूपँथू ।जइया गुरु न चीन्हौ ।तइया सींचा न मूलूं ।कोई कोई बोलत थूलूं ॥ शब्द :-३९ प्रसंग :- उपर्युक्त शब्द सुनकर उस गोसाई साधु को कुछ ज्ञान हुआ तो कहने लगा कि हे देव ! आप हमें योग कि ऐसी युक्ति बतलाइये जिसको अपनाकर हमारा कल्याण हो जाये | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ उतम संग सूसंगू ।उतम रंग सुरंगू ॥उतम लंग सूलंगू ।उतम ढंग सूढंगू ॥ उतम जंग सूजंगू ।ताते सहज सुलीलूं ॥सहज सुपँथू मरतक मोक्ष दुवारूं ॥ शब्द :-४० प्रसंग :- नाथ संप्रदाय का एक प्रसिद्व साधु था , जिसका नाम था “लोहा पांगल “ वह लोहे का कच्छ धारण किये रहता था व अपने आप को महान योगी व ज्ञानी समझता था | उस इलाके में उसकी पूरी धाक थी | वह कई तांत्रिक विद्याएँ जानता था व बहुत वाद – विवादी , क्रोधी व अंहकारी था | उसने जब गुरु महाराज के चर्चे सुने तो एक बार गुरु महाराज के पास आया व अभिमानपूर्वक प्रश्न किया कि आप इतने ज्ञानी हैं तो बतायें कि परमात्मा कहाँ रहता हैं ? उसका निवास स्थान किस जगह है ? तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ सप्त पताले तिहूँ त्रिलोके ।चवदा भवने गगन गहीरे ॥बाहर भीतर सर्व निरन्तर । जहां चीन्हौ तहां सोई ॥सतगुरु मिलियो सतपंथ बतायो भ्रांत चुकाई ॥औरन बुझवा कोई ॥ शब्द :-४१ प्रसंग :- एक बार कन्नोज पांच सिद्व योगियों को अपने साथ लेकर आया | उन सिद्वो ने यह निश्चय किया कि यदि जाम्भा जी उन्हें बिना नाम व गाँव का नाम बताये ही पहचान लेंगे तो हम मान जायेंगे कि जाम्भा जी अन्तर्यामी हैं और फिर हम उनकी शरण ग्रहण कर लेंगे | वे समराथल धोरे पर आ कर भक्तों को मंडली में चुपचाप बैठ गये | गुरु महाराज ने उनकी मनोभावना समझ कर बिना उनके प्रश्न किये ही उनका नाम लेकर यह शब्द सुनाया :- ॐ सुण राजेन्दर ।सुण जोगेन्दर ॥सुण शेषिन्दर ।सुण सोफिन्दर ॥सुण चाचिन्दर । सिद्धक साध कहांणी ॥झुंठी काया उपजत बिणसत ।जां जां नुगरे थिती न जाणी ॥ शब्द :- ४२ प्रसंग :- लोहा पांगल नामक नाथों के महंत ने गुरु महाराज से पहले भी प्रश्न किया व उस प्रश्न का उत्तर भी गुरु महाराज से सुना लेकिन उसका अंहकार दूर नहीं हुआ | उसने कुछ समय पश्चात फिर प्रश्न किया कि मैं पूर्ण योगी हूँ | मेरा आचार विचार भी योगियों जैसा ही हैं क्योंकि हम कभी कपड़े नहीं पहनते व शरीर पर भस्म राख लगाये रहते हैं | इस प्रकार मुझे तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी हैं | यही तो लक्ष्ण होते हैं योगी के | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया :- ॐ आयसाँ काहै काजै खैह भकरूड़ो ।सेवो भूत मसांणी ॥घड़े ऊधै बरसत बहु मेहा ।तिंहिंमा कृष्ण चरित बिन ॥पड़यो न पड़सी पाणी ।जोगी जंगम ,नाथ ,दिगम्बर ।संन्यासी, ब्राह्मण, ब्रह्मचारी ॥ मनह्ठ पढिया पणिडत ।काजी ,मुल्ला ,खेलै आप दुवारी ॥निश्चै कायौं बायौं होयसी । जै गुरु बिन खेल पसारी ॥ शब्द :-४३ प्रसंग :-फिर ‘लोहा पांगल ’ ने गुरु महाराज से कहा कि मेरा योग तो अपार हैं व मुझे सिद्वि प्राप्त हो चुकी है व अन्य मेरी मंडली के योगी भी इसी रास्ते पर चलकर योग सिद्वि प्राप्त करने में लगे हुए हैं | हम कोई नाममात्र के योगी नहीं हैं | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया :- ॐ ज्यौं राज गए राजेन्दर झुरै ।खोज गए न खोजी ॥लाछ मुई गिरहायत झुरै ।अर्थ बिहूँणा लोगी ॥ मौर झड़ै कृषाण भी झुरै बिन्द गए न जोगी ॥जोगी जंगम जपिया तपिया ।जती तपी तक पीरूं ॥ जिंहिं तुल भूला पाहण तोलै ।तिंहिं तुल तोलन हीरूं ॥ जोगी सो तो जुग जुग जोगी ।अब भी जोगी सोई ॥थे कान चिरावो चिरघट पहरो ।आयसा यह पाखंड तो जोग न होई ॥ शब्द :-४४ प्रसंग :- उपर्युक्त शब्द को सुनकर ‘लोहा पांगल ‘ ने फिर कहा कि हमने अपने शरीर पर टोपी ,गले में डोरा ,भगवां भेष ,कंधे पर गुदड़ी , झोली व सिर पर लम्बी जटायें बढ़ा रखी हैं | ये सभी योग के चिन्ह हैं | फिर भी आप हमें सच्चा योगी नहीं मान रहे | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ खर तर झोली खर तर कँथा ।कांध सहै दु:ख भारूं ॥जोग तणी थे खबर न पाई ।काँय तज्या घर बारुं ॥ले सुई धागा सींवण लागा ।जड़ जटा धारी न लंघै पारी ।बाद बिवादी बेकरणो ॥ थे बीर जपो बैताल ध्यावो ।कांय न खोजो तत्व कणो ॥आयसां डंडत डंडू मुंडत मुंडू ।मुंडत माया मोह किसो ॥भरमी बादी बादे भूला ।कांय न पाली जीव दयों ॥ शब्द :-४५ प्रसंग :- फिर ‘लोहा पांगल ‘ ने गुरु महाराज से कहा कि मेरे गुरु का यह वरदान था कि जब भी मेरा वास्ता किसी परम पुरुष से होगा तब मेरा यह लोहे का कच्छ झड़ जायेगा व मेरे गुरु का संकेत भी था कि ऐसा सोवन नगरी समराथल पर अवतरित होने वाले परमपुरुष द्वारा ही संभव हो सकता है , लेकिन मेरा यह कच्छ तो अब तक झड़ा नहीं | इस पर गुरु महाराज ने उसे यह शब्द सुनाया : ॐ दोय मन दोय दिल सींवीं न कँथा ।दोय मन दोय दिल पुली न पँथा ॥दोय मन दोय दिल कही न कथा ।दोय मन दोय दिल सुनी न कथा ॥दोय मन दोय दिल पँथ दुहेला ।दोय मन दोय दिल गुरु न चेला ॥दोय मन दोय दिल बंधी न बेला ।दोय मन दोय दिल रब्ब दुहेला ॥दोय मन दोय दिल सुई न धागा ।दोय मन दोय दिल भिड़ै न भागा ॥दोय मन दोय दिल भेव न भेऊं ।दोय मन दोय दिल टेव न टेऊं ॥दोय मन दोय दिल केल न केला ।दोय मन दोय दिल स्वर्ग मेला ॥रावल जोगी तां तां फिरयों ।अण चीन्हें के चाहौं ॥चाहे काजै दिशावर खेलो ।मन हठ सीख न कायों ॥थे जोग न जोग्या भोग न भोग्या ।गुरु न चीन्हौ रायों ॥कण बिन कूकस कांय पीसो ।निश्च्य सरी न कायों ॥ बिन पायचिये पग दु:ख पावैं ।अवधू लौहे दु:खी सकायों ॥पारब्रह्म की शुद्ध न जांणी ।तो नागे जोग न पायों ॥ शब्द :-४६ प्रसंग :- फिर ‘लोहा पांगल ‘ ने कहा कि मैं तो शुरू से ही योगी हूँ व योगी वाले सारे चिन्ह भी धारण कर रखे हैं लेकिन आपने तो योगी वाले कोई भी चिन्ह नहीं पहन रखे इसलिए हमें आप पर विश्वास नहीं हो रहा | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया :- ॐ जिंहिं जोगी के तन ही कँथा मन ही मुद्रा ।तन ही कँथा पिंडे अगन थंघायो ॥जिंहि जोगी की सेवा कीजै ।तूठौ भव जल पार लंघावै ॥नाथ कहावे मर मर जावै ।से क्यौं नाथ कहावे ॥नान्ही मोटी जीया जूंणी ।निरजत सिरजत फिर फिर पुठा आवे ॥हमहीं रावल हमहीं जोगी ।हम राजा को रायों ॥ जो ज्यौं आवे सो त्यौं थरपां ।सांचा सो सत भायों ॥पाप न छिपा पुण्य न हारा ।करां न करतब लांवा वारुँ ॥जीव तड़े को रिजक न मेटूं ।मूवा परहथ सारुं ॥दौरे भिस्त बिचालै ऊभा ।मिलिया कान संवारुं ॥ शब्द :-४७ प्रसंग :-‘लोहा पांगल ‘ ने फिर कहा कि मैंने योग की लंगोट धारण कर रखी है व योग की कसौटी पर खरा भी उतरा हूँ , हमारी परीक्षा भी हो चुकी हैं , इसलिए मैं पूर्ण योगी हूँ | आप इस बात को मानते क्यों नहीं ? तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया :- ॐ काया कँथा मन जो गूंटो ।सींगी श्वाँस उश्वासूं ॥मन मृग राखले कृषाणी ।यौं म्हे भया उदासों ॥ हम ही जोगी हम ही जती ।हम ही सती ।हम ही राखवां चितूं ।पांच पटण नव थानक साधले आदि नाथ का भक्तूं ॥ ( इस प्रकार लोहा पांगल ने अपने प्रश्नों का उत्तर गुरु महाराज से सुनकर काफी ज्ञान प्राप्त किया व अपनी बहुत सी शंकाओ का भी समाधान किया | गुरु महाराज के शब्दों को सुनकर उसके ह्रदय से अंहकार की भावना दूर हो गई व अंत:करण पवित्र हो गया | वह गुरु महाराज का शिष्य बन गया | उसके बारह सौ शिष्य भी गुरु जम्भेश्वर भगवान के शिष्य बन गये | गुरु महाराज ने लोहा पांगल का नाम बदल कर उसका नया नाम “रूपा” रख दिया व आदेश दिया कि धरणोक गाँव में जाकर सेवा करे ताकि भक्ति व सेवा भाव से ही तेरे पापों का प्रायश्चित होगा व परमात्मा की प्राप्ति होगी | इस प्रकार उसने गुरु महाराज की आज्ञा लेकर सेवा का कार्य शुरू किया | लोहा पांगल के ही बारे में आगे शब्द ५५ में फिर आयेगा ) शब्द :- ४८ प्रसंग :- नाथ सम्प्रदाय के कई साधु गुरु महाराज से योग व तत्त्वज्ञान की बातें सुनकर उनके शिष्य बन गये व बिश्नोई बन गये | इस बात से एक नाथपंथी योगी मंडली का महंत लक्ष्मणनाथ व उसके अनुयायी बहुत नाराज हुए | लक्ष्मणनाथ की अगुआई में वे सब समराथल धोरे की तरफ रवाना हुए | लक्ष्मणनाथ ने समराथल धोरे से कुछ दूरी पर मंडली सहित डेरा लगाया व अपना एक दूत गुरु महाराज के पास भेजा कि जम्भदेव को जाकर कहो कि वह मेरे पास पैदल चल कर यहाँ आये व क्षमा मांगे | जम्भदेव जी ने कहा कि क्या विशेषता हैं तुम्हारे महंत में , तो दूत ने कहा कि लक्ष्मणनाथ एक चमत्कारी सिद्व योगी है व महान शक्ति वाले हैं और लक्ष्मणनाथ तो लक्ष्मण का साक्षात रूप हैं | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ लक्ष्मण लक्ष्मण न कर आयसां ।म्हारे साधां पड़ै बिराऊं ॥लक्ष्मण सो जिन लंका लीवी रावण मारयो ।ऐसो कियो संग्रामों ॥लक्ष्मण तीन भवन को राजा ।तेरे ऐक न गाऊं ॥लक्ष्मण कै तो लख चौरासी जीया जूणी ।तेरे एक न जीऊं ॥लक्ष्मण तो गुणवंतो जोगी ।तेरे बाद बिराऊं ॥ लक्ष्मण का तो लक्षण नांही ।शीश किस बिध नाऊं ॥ शब्द :- ४९ प्रसंग :- फिर उस योगी दूत ने कहा कि लक्ष्मणनाथ तो बहुत बड़ा ज्ञानी है व उसने परमात्मा के दर्शन भी कर रखे हैं | उसने हमें भी बहुत ज्ञान की बातें बताई हैं तथा सिद्व योगी हैं | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ अवधू अजरा जार ले ।अमरा राखले ॥राखले बिन्द की धारणा ।पाताल का पाणी आकाश कू चढ़ाय ले ॥भेट ले गुरु का दरशणो । शब्द :-५० प्रसंग :- फिर उस दूत ने कहा कि हमारा लक्ष्मणनाथ तो बालयोगी है व उसका योग अपार है | वह तो स्त्री का मुख तक नहीं देखता व हर तरह की अछूत चीजों से बच कर रहता है क्योकि यदि विषयों की ओर योगी की दृष्टि चली जाये तो उसका योग भ्रष्ट हो सकता हैं , इसलिए वह बड़ी सावधानी से रहता हैं | तब गुरु महाराज ने यह शब्द सुनाया : ॐ तइया सांसू तइया मासूँ ।तइया देह दमोई ॥उतम मध्यम क्यौं जाणी जै बिबरस लोई ॥ जाके बाद बिराम बिरांसो सांसो ।सरसा भोला चालै ॥ताकै भीतर छोतल कोई ।जाके बाद बिराम बिरांसो सांसो ॥भोलो भागो तांकै मूलै छौत न होई ।दिल दिल आप खुदायबंद जाग्यौ ॥ सब दिल जागौ सौई ।जो जिन्दे हज काबै जाग्यो ॥थल सिर जाग्यो सोई ।नाम विष्णु के मुसकल घातें ॥ते काफर शैतानी ।हिन्दू होय कर तीर्थ नहावै पिण्ड भरावे ।तेपण रहो इवाणी ॥ जोगी हो के मूण्ड मुण्डावै कान चिरावै ।गोरख हटड़ी धोखै ॥थल जाग्यो निज बाणी ।जिंहिं के नादे वेदे शीले शब्दे ॥लक्ष्ण अन्त न पारूं ।अञ्जन माहिं निरंजन आछै ॥सौ गुरुलक्ष्मण कवारुं ॥50॥ |